यही सही है कि वेदों में कई जगह कुंभ शब्द प्रयुक्त हुआ है और जल-प्रवाह
से उसका संबंध भी है। एक जगह चार की संख्या भी निर्दिष्ट है पर न तो उसका
संबंध अमृतमंथन कथा से जुड़ता है और न हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक
के चार कुंभ-पर्वो से कोई संगति बनती है। ऐसी स्थिति में वास्तविक तात्पर्य
का विचार करना उचित होगा।
जघानं वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पूरो अरदत्र सिन्धून्।
विभेद गिरं नवमित्र कुम्भमा गा इन्द्रो अकृणुतस्व युग्भि:।। (ऋग्वेद, 10/89/7)
इसका अर्थ है- इन्द्र सूर्य अथवा विद्युत मेघ को मारता है। जिस प्रकार
कुठार जंगलों को काटता है उसी प्रकार वह मेघों की नगरियों को ध्वस्त करता
है और नदियों को पानी से युक्त करता है। वह नये घड़े के समान मेघ का भेदन
करता है और अपने सहयोगी मरुतों के साथ वर्षा जल को अभिमुख करता है।
(ऋग्वेद)
भाषा-भाष्य, पृ. 888-889
दूसरी टीका में (नये घड़े) की जगह (कच्चे घड़े) शब्द दिया है पर आशय वही
है - प्रयाग कुंभ रहस्य में इसका अर्थ करते हुए कहा गया है- कुंभ पर्व में
जाने वाला मनुष्य स्वयं अपने में फल रूप से प्राप्त होने वाले दान होमादि
सत्कर्मो से काष्ठ काटने वाले कुठारादि की तरह अपने पापों का प्रक्षालन
करता है। जिस प्रकार गंगा नहर अपने तटों को नष्ट करती हुई प्रवाहित होती है
उसी प्रकार कुंभ पर्व अपने पूर्व संचित कर्मो से प्राप्त हुए शारीरिक
पापों को नष्ट करता है और नूतन बनावटी पर्वत की तरह बादल को नष्ट-भ्रष्ट कर
संसार में सुवृष्टि प्रदान करता है।
स्पष्ट हे कि इसमें कुंभ पर्व गंगा नहर और संचित कर्मो का कोई संदर्भ नहीं है। यह कह सकता हूं-
जाकी रही भावना जैसी।
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।।
शुक्ल यजुर्वेद का जो मंत्र उद्धत किया गया है- संख्या है 19/87। संदर्भ सही है। मंत्र इस प्रकार है-
कुम्भे वानेष्ठुर्जनिता शचोभिर्यास्मित्रगे योन्यां गर्गो नन्त:। प्लाशिर्व्यक्त शतधार उत्पन्त्ते दुबे च कुम्भी स्वधा पितृभ्य।।।
कुम्भो और कुम्भी का अर्थ स्त्री-पुरुष के संयोग से संतानोत्पत्ति का
रूपक प्रस्तुत किया गया है। दृष्टव्य भाषा-भाष्य दयानंद सरस्वती, पृ.729,
यहां पर इसका अर्थ दिया गया है- कुंभ पर्व सत्कर्म के द्वारा मनुष्य को इह
लोक में शारीरिक सुख देने वाल और जन्मान्तरों में उत्कृष्ट सुखों को देने
वाला है। पर्वपरक यह अर्थ उदात्त भावना से युक्त है परन्तु यह प्रश्न उठता
ही है कि क्या यह अर्थ सही है अथवा नहीं। सत्य की खोज गहन दायित्व से आती
है। अभीष्ट को आरोपित करना ठीक नहीं।
अथर्ववेद के दो मंत्रों में भी कुंभ शब्द आता है। उन पर भी विचार करना है।
पूर्ण: कुम्भोधिकाल आहितस्तं वै,
पश्यामो बहुधा नु संनत:।
-अथर्व 19/53/3)
सइमा विश्वा भुवनानि प्रत्यइ,
काल समाहु परमेव्योमन्।।
इसका अर्थ क्षेमकरणदास त्रिवेदी ने इस प्रकार किया है: समय के प्रयाग से
धर्मात्मा लोग अनेक सम्पत्तियों के साथ सद्मति प्राप्त करते हैं। वह
महाप्रबल सब स्थानों में परमात्मा के सामर्थय के बीच वर्तमान है, उसकी
महिमा को बुद्धिमान जानते हैं।
शास्त्री जी ने इसको इस रूप में प्रस्तुत किया है- हे संतगण! पूर्ण कुंभ
उस समय पर (बारह वर्षो के बाद) आया करता है जिसे हम अनेक बार प्रयागादि
तीर्थो में देखा करते हैं। कुंभ उस समय को कहते हैं जो महान आकाश में ग्रह
राशि आदि के योग से होता है। - प्रयाग-कुंभ-रहस्य,
यहां पूर्ण कुंभौ शब्द पूर्ण कुंभ पर घटित हो जाते हैं पर 12 वर्ष के
कुंभ का भाव स्वकल्पित एवं आरोपित लगता है। प्रयागादि तीर्थो में देखा करते
हैं। कुंभ उस समय को कहते हैं जो महान आकाश में ग्रह राशि आदि के योग से
होता है।
No comments:
Post a Comment