Wednesday, December 26, 2012
Monday, December 24, 2012
Aatma
Atma is never born nor it everdies that is to say.Atma is unborn Etrnal constant Ancient it is not killed but it is the body which is slain . To be born,to exist ,to grow ,to decay to perish -this six kinds of modifications belongs to the body reducing itself into primary elements of which it was composed of .Vide Ref Gita chap.2nd stanza 28
Tuesday, December 18, 2012
Monday, December 17, 2012
Taratam sagar
મારા વહાલા સહું સુંદરસાથજીને સાદર પ્રેમ પ્રણામ સાથે જણાવવાનું કે સતગુરુ શ્રી નિજાનંદ સ્વામી દ્વારા સ્થાપિત તથા તેમના પટુશિષ્ય મહામતિ પ્રાણનાથજીથી પ્રચારમાં આવેલું શ્રી નિજાનંદ સંપ્રદાય -શ્રી કૃષ્ણ પ્રણામી ધર્મનું પૂજનીય તથા આદરણીય ગ્રંથ શ્રી તરતામસાગરનું વાંચન કરજો જેનાથી તમોને પાતાળથી લઈને પરમધામ સુધીનું જ્ઞાન મળી જશે, જે ગ્રંથના ચૌદ ભાગ આ રીતે છે .1રાસ ,2,પ્રકાશ 3,શટઋતું,4-કળશ,5,સનંધ ,6-કીર્તન, 7-ખુલાસા ,8-ખીલવત ,9-પરિકરમાં ,10-સાગર,11-સિનગર ,12-સિંધી , 13-મારફતસાગર તથા કયામાંતનામાં આ રીતે 14 ભાગ મળીને એક સ્વરૂપ ઉભો થયા છે
એટલે આ ગ્રંથને સ્વરૂપસાહેબ કહેવામાં આવે છે
રાસનું પ્રકાસ થયો તે પ્રકાશનું પ્રકાસ ,તે ઉપર વળી કલસ ધરું તેમાં કરુણ તે અતિ અજવાસ ..
বাং ভাষীবান্ধুজান্যা শুভকামনা করছি .
એટલે આ ગ્રંથને સ્વરૂપસાહેબ કહેવામાં આવે છે
રાસનું પ્રકાસ થયો તે પ્રકાશનું પ્રકાસ ,તે ઉપર વળી કલસ ધરું તેમાં કરુણ તે અતિ અજવાસ ..
বাং ভাষীবান্ধুজান্যা শুভকামনা করছি .
Sunday, December 16, 2012
ऐसी स्त्री के संग रहती है लक्ष्मी
इसी बात को सामने रख सोचें तो भारतीय धर्म परंपराओं में स्त्री को भी लक्ष्मी रुप मानने के पीछे सुख देने वाली उसकी वह शक्ति है, जो वह मां, बेटी और अन्य सभी रिश्तों के द्वारा सृजन, पालन, सेवा के रूप में परिवार, समाज या जगत को देती है। जिनसे कुटुंब खुशहाल और सुखी होता है। धार्मिक मान्यता भी यही है कि देवता खासतौर पर धन और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी उसी स्थान पर वास करती है। जहां दरिद्रता और आलस्य न हो। यही कारण है कि जो स्त्री घर की व्यवस्थाओं और माहौल को अपने व्यवहार, आचरण और विचारों से पवित्र रखती है, उसे लक्ष्मी और उस घर में लक्ष्मी का वास माना जाता है।
शास्त्रों में भी बताया गया है कि लक्ष्मी ऐसी स्त्रियों पर हमेशा प्रसन्न रहती है। किंतु इसके लिए उसका व्यवहार और आचरण कैसा होना चाहिए? जानते हैं -
- सच बोलने वाली स्त्री। जिस स्त्री के बोल, व्यवहार और विचारों में सच समाया होता है, उससे लक्ष्मी बहुत खुश रहती है।
- पतिव्रता स्त्री यानि पति के लिए हर तरह से समर्पित और सेवा का भाव रखने वाली।
- जिस स्त्री का तन, मन और व्यवहार साफ हो।
- धार्मिक यानि देवता, शिक्षित और ब्राह्मणों को सम्मान देने वाली स्त्री।
- घर आए अतिथि की सेवा-सत्कार करने वाली स्त्री।
- सहनशील स्त्री यानि जो स्त्री पति या परिवार के सदस्यों की बड़ी से बड़ी गलती या दोष को भी माफ कर दे। दूसरे अर्थों में क्षमा का भाव रखने वाली स्त्री।
नारद भक्ति हैं, भगवान ने उनकी बातें सुन मन-ही-मन कह दिया तथास्तु। नारद
स्वयं त्रिकालदर्षी भी हैं और भगवान के टाइमकीपर भी। भगवान की व्रजलीलाएं
पूर्व हो रही हैं, सो वे भगवान को यह याद दिलाने आए हैं कि अब मथुरा,
हस्तिनापुर, कुरूक्षेत्र और द्वारिका की लीलाओं का समय आ रहा है। एक अच्छे
सहायक का यह कर्तव्य भी है कि स्वामी के सावधान रहने पर भी उन्हें समय-समय
पर सारे कामों की याद दिलाता रहे। नारद यही करते हैं। आप जल्द से जल्द
बलराम और कृष्ण को यहां ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं। उनको मार डालने
में क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुष यज्ञ के
दर्शन और यदुवंशियों की राजधानी मथुरा की शोभा देखने के लिए यहां जाएं।
केशी-व्योमासुर वध-केशी दैत्य के द्वारा हत्या की योजना बनाई। कैशी अश्व के
रूप में वृंदावन पहुंचा, लेकिन कृष्ण ने उसको पहचान लिया। उसके गले में
अपना लोह सदृश हाथ डालकर उसके प्राण ही खेंच लिए। केशी के वध का समाचार कंस
ने जब सुना, तो व्योमासुर को वृन्दावन भेजा। वृन्दावन में व्योमासुर का भी
प्राणान्त कर दिया। कंस ने जिस केशी नामक दैत्य को भेजा था, वह बड़े भारी
घोड़े के रूप में मन के समान वेग से दौड़ता हुआ व्रज में आया। भगवान्
श्रीकृष्ण ने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहने वाला गोकुल भयभीत
हो रहा है।
उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिए और जैसे गरुड़ सांप को पकड़कर झटक देते हैं, उसी प्रकाश क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गए। इसके बाद वह क्रोध से तिलमिलाकर और मुंह फाड़कर बड़े वेग से भगवान् की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान् मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बांया हाथ उसके मुंह में इस प्रकार डाल दिया जैसे सर्प बिना किसी आशंका के अपने बिल में घुस जाता है।थोड़ी ही देर में उसका शरीर निष्चेश्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसके प्राण पखेरू उड़ गए। देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी और समस्त जीवों के सच्चे हितैशी हैं। कंस के यहां से लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के पास आए और एकांत में उनसे कहने लगे-यह बड़े आनन्द की बात है कि आपने खेल ही खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुश्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को भी मरते देखूंगा। उसके बाद शंखासुर, काल-यवन, मुर और नरकासुर का वध देखूंगा। आप स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्र के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदि का शुल्क देकर वीर-कन्याओं से विवाह करेंगे और जगदीश्वर!
आप द्वारका में रहते हुए नृग को पाप से छुड़ायेंगे। आप जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को जाम्बवान् से ले आएंगे और अपने धाम से ब्राह्मण के मरे हुए पुत्रों को ला देंगे। इसके पश्चात आप पौण्ड्रक मिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल को और वहां से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्र को नष्ट करेंगे। प्रभो! द्वारका में निवास करते समय आप और भी बहुत से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गाएंगे। मैं वह सब देखूंगा।
इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए कालरूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आंखों से देखूंगा। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिए मनुष्य का सा श्रीविग्रह प्रकट किया है। और आप यदु, वृश्णि तथा सात्वतवंषियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूं। भगवान् के दर्शनों के आहाद से नारदजी का रोम रोम खिल उठा। तदन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गए। इधर भगवान् श्रीकृष्णा कोषी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्न चित्त ग्वालबालों के साथ पूर्ववत् पशुपालन के काम में लग गए।
जब व्यामासुर खेलने लगा कृष्ण के साथ?
एक समय वे सब ग्वालबाल पहाड़ की चोटियों पर गाय आदि पशुओं को चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपाने का लुका-लुकी का खेल खेल रहे थे। उसी समय ग्वाल का वेष धारण करके व्योमासुर वहां आया। वह मायावियों के आचार्य मयासुर का पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेल में बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत से बालकों को चुराकर छिपा आता। वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़ की गुफा में ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालों में केवल चार-पांच बालक ही बच रहे। भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गए। जिस समय वह ग्वालबालों को लिए जा रहा था, उसी समय उन्होंने जैसे सिंह भेडिय़े को दबोच ले, उसी प्रकार उसे धर दबाया। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़ के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपने को छुड़ा लूं। परन्तु भगवान् ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजे में फांस लिया था कि वह अपने को छुड़ा न सका। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दानों हाथों से जकड़ कर उसे भूमि पर गिरा दिया और पषु की भांति गला घोंटकर मार डाला। देवता लोग विमानों पर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे। अब भगवान् श्रीकृष्ण ने गुफा के द्वार पर लगे हुए संकटपूर्ण स्थान से निकाल लिया।
यहां भगवान की बाल लीलाओं पर विराम लग रहा है। व्रज की आनंद लीला समापन की ओर है। अब भगवान मथुरा जाएंगे। कंस का बुलावा आ रहा है, अक्रूरजी कृश्ण की छवि मन में बसाए, नंद को कंस का निमंत्रण देने आ रहे हैं।
अक्रूर आगमन-अक्रूरजी भगवान को लेने आए हैं। रास्तें में सोचते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण तो पतितपावन हैं। वे मुझे अवश्य अपना लेंगे। यदि मुझे पापी को नहीं अपनाएंगे, तो फिर उनको पतितपावन कौन कहेगा। हे नाथ! मैं पतित हूं और आप पतितपावन हैं मुझे अपना लीजिएगा। विचार करना ही है तो पवित्र विचार करो। बुरे विचार मन को विकृत कर देते हैं। अक्रूरजी भगवान को लेने के लिए निकले हैं।
आदिनारायण का चिन्तन उनके मन में हो रहा है। उन्होंने मार्ग में श्रीकृष्ण के चरणचिह्न देखे। कमल ध्वजा और अंकुशयुक्त चरण तो मेरे श्रीकृष्ण के ही हो सकते हैं। ऐसा अक्रूरजी ने सोचा। इसी मार्ग से कन्हैया अवश्य गया होगा। इसी मार्ग से वह खुले पांव ही गायों का चराता फिरता होगा। ऐसा चिन्तन करते-करते अक्रुरजी ने सोचा कि यदि मेरे प्रभु खुले पांव पैदल घूमते हैं तो मैं तो उनका सेवक हूं। मैं रथ में कैसे बैठ सकता हूं। मैं सेवा करने योग्य नहीं हूं अधर्मी हूं, पापी हूं। मैं तो श्रीकृष्ण की शरण में जा रहा हूं। मुझे रथ पर सवार होने का क्या अधिकार? ऐसा सोचकर अक्रुरजी पैदल चलने लगे।
गोकुल पहुंचकर वहां की रज उन्होंने सारे शरीर पर लपेट ली। वृजरज की बड़ी महिमा है, क्योंकि वह प्रभु के चरणों से पवित्र हुई है। अक्रुरजी वन्दना भक्ति के आचार्य हैं। अक्रुरजी भगवान के पास पहुंचे। प्रणाम किया, अक्रुरजी के मस्तक पर अपना वरदहस्त रखते हुए श्रीकृष्ण ने उनको खड़ा किया।
अक्रुरजी ने सोचा कि जब कन्हैया उन्हें चाचा कहकर पुकारेगा तभी वे खड़े होंगे। लेकिन अक्रुरजी सोचते हैं कि मुझ पापी को भला वे काका क्यों कहेंगे। भगवान ने अक्रुरजी का मनोभाव जान लिया। अक्रुरजी चाहते थे कि कृष्ण काका कहकर पुकारें। श्रीकृष्ण ने उनके मस्तक पर हाथ धरते हुए कहा कि काका अब उठिए भी। उनको उठाकर आलिंगन किया। जीव जब षरण में आता है तो भगवान् उसको अपनी बांहों में भर लेते हैं। आज अक्रुरजी को वही अनुभुति हो रही हैं जो कभी निषात को हुई थी, तब श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगाया था। जो कभी प्रहलाद को हुई थी जब नरसिंह अवतार ने प्रहलाद को हृदय से लगाया था।अक्रुरजी अपना भाव भुल बैठे। अक्रुरजी बोले-नन्दजी! मैं तो आप सबको राजा कंस की ओर से आमन्त्रण देने आया हूं। मथुरा में धनुष यज्ञ किया जा रहा है। आपको दर्शनार्थ बुलाया गया है। आप चहे गाड़ी से आएं किन्तु बलराम और श्रीकृष्ण के लिए सुवर्ण रथ लेकर आया हूं। कंस ने सुवर्ण रथ भेजा है। गांव के बालकों ने जब ये बात जानी तो वे भी साथ चलने को तैयार हो गए। नन्दबाबा ने सभी बच्चों को साथ चलने की अनुमति दे दी।क्रमश:
उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिए और जैसे गरुड़ सांप को पकड़कर झटक देते हैं, उसी प्रकाश क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गए। इसके बाद वह क्रोध से तिलमिलाकर और मुंह फाड़कर बड़े वेग से भगवान् की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान् मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बांया हाथ उसके मुंह में इस प्रकार डाल दिया जैसे सर्प बिना किसी आशंका के अपने बिल में घुस जाता है।थोड़ी ही देर में उसका शरीर निष्चेश्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसके प्राण पखेरू उड़ गए। देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी और समस्त जीवों के सच्चे हितैशी हैं। कंस के यहां से लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के पास आए और एकांत में उनसे कहने लगे-यह बड़े आनन्द की बात है कि आपने खेल ही खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुश्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को भी मरते देखूंगा। उसके बाद शंखासुर, काल-यवन, मुर और नरकासुर का वध देखूंगा। आप स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्र के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदि का शुल्क देकर वीर-कन्याओं से विवाह करेंगे और जगदीश्वर!
आप द्वारका में रहते हुए नृग को पाप से छुड़ायेंगे। आप जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को जाम्बवान् से ले आएंगे और अपने धाम से ब्राह्मण के मरे हुए पुत्रों को ला देंगे। इसके पश्चात आप पौण्ड्रक मिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल को और वहां से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्र को नष्ट करेंगे। प्रभो! द्वारका में निवास करते समय आप और भी बहुत से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गाएंगे। मैं वह सब देखूंगा।
इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए कालरूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आंखों से देखूंगा। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिए मनुष्य का सा श्रीविग्रह प्रकट किया है। और आप यदु, वृश्णि तथा सात्वतवंषियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूं। भगवान् के दर्शनों के आहाद से नारदजी का रोम रोम खिल उठा। तदन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गए। इधर भगवान् श्रीकृष्णा कोषी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्न चित्त ग्वालबालों के साथ पूर्ववत् पशुपालन के काम में लग गए।
जब व्यामासुर खेलने लगा कृष्ण के साथ?
एक समय वे सब ग्वालबाल पहाड़ की चोटियों पर गाय आदि पशुओं को चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपाने का लुका-लुकी का खेल खेल रहे थे। उसी समय ग्वाल का वेष धारण करके व्योमासुर वहां आया। वह मायावियों के आचार्य मयासुर का पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेल में बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत से बालकों को चुराकर छिपा आता। वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़ की गुफा में ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालों में केवल चार-पांच बालक ही बच रहे। भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गए। जिस समय वह ग्वालबालों को लिए जा रहा था, उसी समय उन्होंने जैसे सिंह भेडिय़े को दबोच ले, उसी प्रकार उसे धर दबाया। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़ के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपने को छुड़ा लूं। परन्तु भगवान् ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजे में फांस लिया था कि वह अपने को छुड़ा न सका। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दानों हाथों से जकड़ कर उसे भूमि पर गिरा दिया और पषु की भांति गला घोंटकर मार डाला। देवता लोग विमानों पर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे। अब भगवान् श्रीकृष्ण ने गुफा के द्वार पर लगे हुए संकटपूर्ण स्थान से निकाल लिया।
यहां भगवान की बाल लीलाओं पर विराम लग रहा है। व्रज की आनंद लीला समापन की ओर है। अब भगवान मथुरा जाएंगे। कंस का बुलावा आ रहा है, अक्रूरजी कृश्ण की छवि मन में बसाए, नंद को कंस का निमंत्रण देने आ रहे हैं।
अक्रूर आगमन-अक्रूरजी भगवान को लेने आए हैं। रास्तें में सोचते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण तो पतितपावन हैं। वे मुझे अवश्य अपना लेंगे। यदि मुझे पापी को नहीं अपनाएंगे, तो फिर उनको पतितपावन कौन कहेगा। हे नाथ! मैं पतित हूं और आप पतितपावन हैं मुझे अपना लीजिएगा। विचार करना ही है तो पवित्र विचार करो। बुरे विचार मन को विकृत कर देते हैं। अक्रूरजी भगवान को लेने के लिए निकले हैं।
आदिनारायण का चिन्तन उनके मन में हो रहा है। उन्होंने मार्ग में श्रीकृष्ण के चरणचिह्न देखे। कमल ध्वजा और अंकुशयुक्त चरण तो मेरे श्रीकृष्ण के ही हो सकते हैं। ऐसा अक्रूरजी ने सोचा। इसी मार्ग से कन्हैया अवश्य गया होगा। इसी मार्ग से वह खुले पांव ही गायों का चराता फिरता होगा। ऐसा चिन्तन करते-करते अक्रुरजी ने सोचा कि यदि मेरे प्रभु खुले पांव पैदल घूमते हैं तो मैं तो उनका सेवक हूं। मैं रथ में कैसे बैठ सकता हूं। मैं सेवा करने योग्य नहीं हूं अधर्मी हूं, पापी हूं। मैं तो श्रीकृष्ण की शरण में जा रहा हूं। मुझे रथ पर सवार होने का क्या अधिकार? ऐसा सोचकर अक्रुरजी पैदल चलने लगे।
गोकुल पहुंचकर वहां की रज उन्होंने सारे शरीर पर लपेट ली। वृजरज की बड़ी महिमा है, क्योंकि वह प्रभु के चरणों से पवित्र हुई है। अक्रुरजी वन्दना भक्ति के आचार्य हैं। अक्रुरजी भगवान के पास पहुंचे। प्रणाम किया, अक्रुरजी के मस्तक पर अपना वरदहस्त रखते हुए श्रीकृष्ण ने उनको खड़ा किया।
अक्रुरजी ने सोचा कि जब कन्हैया उन्हें चाचा कहकर पुकारेगा तभी वे खड़े होंगे। लेकिन अक्रुरजी सोचते हैं कि मुझ पापी को भला वे काका क्यों कहेंगे। भगवान ने अक्रुरजी का मनोभाव जान लिया। अक्रुरजी चाहते थे कि कृष्ण काका कहकर पुकारें। श्रीकृष्ण ने उनके मस्तक पर हाथ धरते हुए कहा कि काका अब उठिए भी। उनको उठाकर आलिंगन किया। जीव जब षरण में आता है तो भगवान् उसको अपनी बांहों में भर लेते हैं। आज अक्रुरजी को वही अनुभुति हो रही हैं जो कभी निषात को हुई थी, तब श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगाया था। जो कभी प्रहलाद को हुई थी जब नरसिंह अवतार ने प्रहलाद को हृदय से लगाया था।अक्रुरजी अपना भाव भुल बैठे। अक्रुरजी बोले-नन्दजी! मैं तो आप सबको राजा कंस की ओर से आमन्त्रण देने आया हूं। मथुरा में धनुष यज्ञ किया जा रहा है। आपको दर्शनार्थ बुलाया गया है। आप चहे गाड़ी से आएं किन्तु बलराम और श्रीकृष्ण के लिए सुवर्ण रथ लेकर आया हूं। कंस ने सुवर्ण रथ भेजा है। गांव के बालकों ने जब ये बात जानी तो वे भी साथ चलने को तैयार हो गए। नन्दबाबा ने सभी बच्चों को साथ चलने की अनुमति दे दी।क्रमश:
बेटियों के ससुराल में खाना
बेटियों के ससुराल में खाना क्यों नहीं खाते!
इसलिए इस मान्यता को लोगों ने अंधविश्वास मान लिया है। दरअसल ये मान्यता कोई अंधविश्वास नहीं है। हर परंपरा के पीछे हमारे पूर्वजों की कोई गहरी सोच जरूर रही है। बेटी शादी में कई रस्में होती है। जिनके बिना शादी होती ही नहीं है। उन्हीं रस्मों में से एक है कन्यादान। कन्यादान शादी का मुख्य अंग माना गया है। शास्त्रों के अनुसार दान करना पुण्य कर्म है और इससे ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है। दान के महत्व को ध्यान में रखते हुए इस संबंध में कई नियम बनाए गए हैं ताकि दान करने वाले को अधिक से अधिक धर्म लाभ प्राप्त हो सके। ऐसा ही एक नियम है दिए हुए दान का उपयोग नहीं करना। जिस तरह ब्राह्मण को दिया हुआ दान वापस नहीं लिया जाता या दान की हुई गाय का दूध नहीं पीया जाता है। उसी तरह शादी में संकल्प कर कन्या का दान वर को किया जाता है। इसलिए एक बार कन्या को दान करने के बाद उसके ससुराल में भोजन करना या उसके घर का पानी भी नहीं पीये जाने का रिवाज बनाया गया था।
अमावस्या को
अमावस्या को लड़कियों को खुले बाल करके नहीं घुमना चाहिए क्योंकि
इन शक्तियों के प्रभाव में आने के बाद लड़कियों का मानसिक स्तर व्यवस्थित नहीं रह पाता और उनके पागल होने का खतरा बढ़ जाता है। विज्ञान के अनुसार अमावस और हमारे शरीर का गहरा संबंध है। अमावस का संबंध चंद्रमा से है। हमारे शरीर में 70 प्रतिशत पानी है जिसे चंद्रमा सीधे-सीधे प्रभावित करता है। ज्योतिष में चंद्र को मन का देवता माना गया है। अमावस के दिन चंद्र दिखाई नहीं ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। लड़कियां मन से बहुत ही भावुक होती है।
जब चंद्र नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर के पानी में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है। इन्हीं कारणों से अमावस्या के दिन लड़कियों को खुले बाल रखकर घुमने से मना किया जाता है। चंद्रमा हमारे शरीर के जल को किस प्रकार प्रभावित करता है इस बात का प्रमाण है समुद्र का ज्वारभाटा। पूर्णिमा और अमावस के दिन ही समुद्र में सबसे अधिक हलचल दिखाई देती है क्योंकि चंद्रमा जल को शत-प्रतिशत प्रभावित करता है।
Monday, December 10, 2012
Rab di khwahish
Muhabbat di masti vich, mere masroor bande.
Mai tainu ki banaya, tu ki bangiya?
Apani badai vich, even hi tan giya?
Phullan tu najuk ,main tera dil banaya.
Daradan da unde vich, ehasas paya
Aj pkar laye tu, ulate hi chaale .
Tere amal ho gaye, amavas tun kale.
Tere matthe tilak, seene vich sadhe.
Tu kai dil tode, aur kai ghar ujade.
Tu masjid te chadke, madirnu dhaya.
Aur mandir nu dhake, Gurudwara banaya.
Ki samjhya rama tera apana, aur allah paraya.
Inna jhameliyan vich, tu mainu rulaya.
Tu kinnu bhent, phullan di deke rijhana e?
Tu kadah de chadhave, bhave chadha na tu.
Mandirande ghante, bhave baja na baja tu.
Aur masjid vich jake, sajdae niva na tu.
Khuda di khalkat vich, thikana hai mera .
Tu khalkat da hoja, main ban javan tera.
Aur apani kartut, phullan de piche chhipana e?
Par e insaf da ghar hai, koi thana nahin .
Itthe bade badiyan da, koi thikana nahin.
Tu kisi girde nu, uthaya daskhan?
Aur kisi ronde nu, uthaya daskhan?
Kisi dukhi dil da, phat nahin sita .
Meri mala pheri, tu kakh nahin kita.
Sunday, December 2, 2012
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