Saturday, September 29, 2012

कलश हिंदी प्रकरण ९

विरह को प्रकास-राग आसावरी

एह बात मैं तो कहूं, जो केहेने की होए।
पर ए खसमें रीझ के, दया करी अति मोहे।।१
परब्रह्म परमात्माके मिलनकी बात यदि इन सीमित शब्दों द्वारा कहने योग्य होती तो मैं अवश्य कहता परन्तु सद्गुरु प्रसन्न होकर दया पूर्वक यह सब कहलवा रहे हैं.
सुनियो बानी सोहागनी, दीदार दिया पिया जब।
अंदर परदा उड गया, हुआ उजाला सब।।२
हे सुहागिनी ब्रह्मात्माओ ! यह बात ध्यान पूर्वक सुनो. जब मुझे धनीने दर्शन दिए तबसे मेरे हृदयसे अज्ञाानका पर्दा हट गया और हृदयमें ज्ञाानका प्रकाश छा गया.
पिया जो पार के पार हैं, तिन खुद खोले द्वार।
पार दरवाजे तब देखे, जब खोल देखाया पार।।३
जो अक्षरसे भी परे अक्षरातीत परमात्मा हैं उन्होंने ही स्वयं आकर परमधामके द्वार खोल दिए. पारके द्वार मुझे तब प्रत्यक्ष हुए जब उन्होंने इस प्रकार खोलकर दिखाए.
कर पकर बैठाए के, आवेस दियो मोहे अंग।
ता दिन थें पसरी दया, पल पल चढते रंग।।४
मेरे सद्गुरु धनीने मेरा हाथ पकड. कर मुझे अपने पास बैठाया और अपना आवेश प्रदान किया. उस दिनसे उनकी अनुकम्पा दिन प्रतिदिन बढ.ने लगी और पल-पल प्रेमका रङ्ग चढ.ता गया.
हुई पेहेचान पीउसों, तब कह्यो महामति नाम।
अब मैं हुई जाहेर, देख्या वतन श्री धाम।।५
जब मेरी पहचान सद्गुरु धनीसे हुई तब उन्होंने मुझे महामतिकी संज्ञाा प्रदान की. अब मैं अपने धनीकी अङ्गनाके रूपमें प्रकट हो गई और मुझे अखण्ड परमधामका साक्षात्कार भी हो गया.
बात कही सब वतन की, सो निरखे मैं निसान।
प्रकास पूरन द्रढ हुआ, उड गया उनमान।।६
मेरे सद्गुरुने मुझे परमधामकी सारी बातें बताईं. मैंने वहाँके एक-एक चिह्न (निशान) को देखा. तारतम ज्ञाानका पूर्ण प्रकाश हृदयमें उतर आनेसे ब्रह्म विषयक सभी कल्पनाएँ उड. गइंर्.
आपा मैं पेहेचानिया, सनमंध हुआ सत।
ए मेहेर कही न जावहीं, सब सुध परी उतपत।।7
तब मैंने स्वयंको पहचाना और परब्रह्म परमात्माके साथका मेरा सम्बन्ध भी सत्य सिद्ध हुआ. सद्गुरुकी इस कृपाका वर्णन किया नहीं जा सकता. उनकी कृपासे ही मुझे सृष्टिकी उत्पत्तिकी सभी सुधि हुई है.
मुझे जगाई जुगतसों, सुख दियो अंग आप।
कंठ लगाई कंठसों, या विध कियो मिलाप।।८
मेरे धनीने अपना आवेश देकर मुझे युक्तिपूर्वक जागृत किया और अखण्ड सुख दिया. मुझे गले लगाकर (मेरे हृदयमें आकर) वे मुझमें एकरूप हो गए.
खासी जान खेडी जिमी, जल सींचिया खसम।
बोया बीज वतन का, सो ऊग्या वाही रसम।।९
मेरे हृदयरूपी धरतीको उर्वरा जानकर उन्होंने उस पर ज्ञाानरूपी हल चलाया और उसमें प्रेमका जल सींचकर परमधामका तारतम ज्ञाानरूपी बीज बो दिया, जो अपनी गरिमाके अनुरूप उगने लगा.
बीज आतम संग निज बुध के, सो ले उठिया अंकूर।
या जुबां इन अंकूर को, क्यों कर कहूं सो नूर।।१०
वह तारतम ज्ञाानरूपी बीज मेरा आत्म-बल और अक्षरब्रह्मकी बुद्धिका संग पाकर परमधामके मूल सम्बन्धके रूपमें अंकुरित हुआ. अब मैं अपनी इस नश्वर जिह्वासे उस अंकुर (सम्बन्ध) एवं दिव्य प्रकाशका वर्णन कैसे करूँ ?
ना तो ए बात जो गुझ की, सो क्यों होवे जाहेर।
सोहागिन प्यारी मुझ को, सो कर ना सकूं अंतर।।११
अन्यथा ये सब रहस्यमयी (गुह्य) बातें कैसे प्रकट की जा सकतीं हैं ? किन्तु परब्रह्म परमात्माकी सुहागिनी आत्माएँ मुझे अति प्रिय हैं, इसलिए मैं उनसे किसी भी प्रकारका अन्तर नहीं रख सकता.
नेक कहूं या नूर की, कछुक इसारत अब।
पीछे तो जाहेर होएसी, तब दुनी देखसी सब।।१२
इसलिए अब मैं इस तारतम ज्ञाानके प्रकाशका सङ्केत मात्र वर्णन करता हूँ. बादमें तो यह सब ओर फैल जाएगा तब सारी दुनियाँ इस प्रकाशको देखेगी.
ए जो विरहा वीतक मैं कही, पिया मिले जिन सूल।
अब फेर कहूं प्रकास थें, जासों पाइए माएने मूल।।१३
अभी तक मैंने इस प्रकार सद्गुरुके विरहपूर्वक खोजकी बात तथा उन्हें हुए श्रीकृष्णके साक्षात्कारका वृत्तान्त कहा. अब मैं पुनः सद्गुरु द्वारा प्रदत्त तारतम ज्ञाानके प्रकाशसे कहता हूँ, जिससे मूल अर्थ (परमधामका सम्बन्ध) स्पष्ट हो जाएँगे.
ए विरहा लछन मैं कहे, पर नाहीं विरहा ताए।
या विध विरह उदम की, जो कोई किया चाहे।।१४
मैंने इस प्रकार विरहके लक्षण बता दिए. उन्हें विरहिणीके सम्पूर्ण लक्षण मत समझ लेना. प्रिय मिलनकी चाहसे जो विरहमें निमग्न होना चाहते हैं उनके लिए करने योग्य प्रयत्नोंका ही यहाँ निदर्शन हुआ है.
विरहा सुनते पीउ का, आहि ना उड गई जिन।
ताए वतन सैयां यों कहें, नाहिन ए विरहिन।।१५
अपने प्रियतम धनीका वियोग सुनते ही जिस विरहिणीके प्राण न निकल जाएँ, उसके लिए परमधामकी आत्माएँ यही कहेंगी कि यह तो सच्ची विरहिणी नहीं है.
जो होवे आपे विरहनी, सो क्यों कहे विरहा सुध।
सुन विरहा जीव ना रहे, तो विरहिन कहां थे बुध।।१६
जो स्वयं विरहिणी (विरहसे व्याकुल) होती है, उसमें विरहका वर्णन करनेकी सुधि ही कहाँ रहती है ? अपने प्रियतमके विरहकी बात सुनते ही उसके प्राण निकल जाते हैं, तो फिर उसमें कुछ कहनेकी बुद्धि ही कहाँ रहेगी ?
पतंग कहे पतंग को, कहां रह्या तूं सोए।
मैं देख्या है दीपक, चल देखाऊं तोए।।१7
यदि कोई पतङ्गा दूसरे पतङ्गेसे जाकर यह कहने लगे, अरे ! तू कहाँ सो रहा था. मैं तो दीपक देखकर आया हूँ. चल, तुझे भी उसके दर्शन कराऊँ.
के तो ओ दीपक नहीं, या तूं पतंग नाहे।
पतंग कहिए तिनको, जो दीपक देख झंपाए।।१८
तब दूसरा पतङ्गा कहता है, तुमने जो देखा है या तो वह दीपक नहीं है या फिर तू पतङ्गा नहीं है. पतङ्गा तो उसे कहा जाता है जो दीपकको देखते ही तत्क्षण झपट पड.े और जल मरे.
पतंग और पतंग को, जो सुध दीपक दे।
तो होवे हांसी तिन पर, कहे नाहीं पतंग ए।।१९
जो पतङ्गा दीपक देखकर दूसरे पतङ्गेको उसकी सुधि देने लगे तो उस पर अवश्य हँसी होगी. सब यही कहेंगे कि यह तो पतङ्गा ही नहीं है.
दीपक देख पीछा फिरे, साबित राखे अंग।
आए देवे सुध और को, सो क्यों कहिए पतंग।।२०
जो दीपककी ज्योतिको देखकर भी अपनी देहको यथावत् रखता हुआ लौट आए एवं दूसरोंसे उस दीपककी चर्चा करने लगे तो उसे पतङ्गा कैसे कहा जाए ?
जब मैं हुती विरह में, तब क्यों मुख बोल्यो जाए।
पर ए बचन तो तब कहे, जब लई पिया उठाए।।२१
जब तक मुझे धनीका विरह था तब तक मुखसे कोई भी शब्द कैसे निकल सकते ? किन्तु ये वचन तो मैंने तब कहे, जब मेरे सद्गुरु धनीने अपना आवेश देकर मुझे विरहसे उबार लिया.
ज्यों ए विरहा उपज्या, ए नहीं हमारा धरम।
विरहिन कबहूं ना करे, यों विरहा अनूकरम।।२२
यह विरह जिस प्रकार उत्पन्न हुआ है यह हमारे धर्मके अनुकूल नहीं है. विरहिणी आत्माको कभी भी इस प्रकार अनुक्रम पूर्वक (क्रमशः) विरह उत्पन्न नहीं होता.
विरहा नहीं ब्रह्मांड में, बिना सोहागिन नार।
सोहागिन अंग पीउ की, वतन पार के पार।।२३
वास्तवमें सुहागिनी आत्माओंके अतिरिक्त इस संसारमें अन्य किसीको भी विरह नहीं हो सकता क्योंकि सुहागिनी आत्माएँ ही परब्रह्म परमात्माकी अङ्गनाएँ हैं. उनका घर क्षर, अक्षरसे भी परे अक्षरातीत परमधाम है.
अब नेक कहूं अंकूर की, जाए कहिए सोहागिन।
सो विरहिन ब्रह्मांड में, हुती ना एते दिन।।२४
अब मैं थोड.ी-सी बात परमधामका मूल अंकुर धारण करनेवाली आत्माओंके विषयमें कहूँ, जो परब्रह्म परमात्माकी सुहागिनी कहलातीं हैं. ये विरहिणी आत्माएँ इस ब्रह्माण्डमें आज तक नहीं आई थीं.
सोई सोहागिन आइयां, पिया की विरहिन।
अंतरगत पिया पकडी, ना तो रहे ना तन।।२५
परब्रह्म परमात्माकी वही सुहागिनी आत्माएँ उनका विरह लेकर इस जागनीके ब्रह्माण्डमें आइंर् हैं. उनके हृदयमें विराजकर प्रियतम परमात्माने उन्हें पूर्ण सहारा दिया है अन्यथा उनका शरीर ही नहीं रह पाता.
ए सुध पिया मुझे दई, अन्दर कियो प्रकास।
तो ए जाहेर होत है, गयो तिमर सब नास।।२६
सद्गुरु धनीने तारतम ज्ञाानके प्रकाशसे मेरे हृदयको आलोकित कर मुझे इस प्रकारकी सुधि दी. इसलिए यह अखण्ड सुख प्रकट हो रहा है और अज्ञाानरूपी अन्धकारका नाश हो गया है.
प्यारी पिया सोहागनी, सो जुबां कही न जाए।
पर हुआ जो मुझे हुकम, सो कैसे कर ढंपाए।।२7
सुहागिनी आत्माएँ परब्रह्मको कितनी प्यारी हैं, उसका वर्णन इस जिह्वासे नहीं हो सकता, किन्तु मेरे धनीने मुझे ब्रह्मात्माओंको जागृत करनेका जो आदेश दिया है अब वह कैसे ढका रह सकता है ?
अनेक करहीं बंदगी, अनेक विरहा लेत।
पर ए सुख तिन सुपने नहीं, जो हमको जगाए के देत।।२८
इस जगतमें बहुत-से साधक उपासनाएँ करते हैं और बहुत-से विरह भी करते हैं. परन्तु ब्रह्मानन्दका यह अलौकिक सुख उन्हें स्वप्नमें भी अप्राप्य है, जिसे हमारे सद्गुरु हम ब्रह्मसृष्टियोंको जागृत कर दे रहे हैं.
छलथें मोहे छुडाए के, कछू दियो विरहा संग।
सो भी विरहा छुडाइया, देकर अपनों अंग।।२९
इस छलरूपी संसारके मोहसे छुड.ाकर मेरे सद्गुरु धनीने मुझे विरहका थोड.ा-सा अनुभव करवाया. फिर विरहके पश्चात् अपना आवेश देकर तथा मेरे हृदय मन्दिरमें स्वयं विराजमान होकर इस विरहसे भी मुक्त कर दिया.
अंग बुध आवेस देए के, कहे तूं प्यारी मुझ।
देने सुख सबन को, हुकम करत हों तुझ।।३०
उन्होंने अपना आवेश (अङ्ग), तथा जागृत बुद्धि (तारतमज्ञाान) देकर मुझे यह कहा कि तुम मेरी प्यारी अङ्गना हो. सब ब्रह्मात्माओंको सुख पहुँचानेके लिए मैं तुझे आदेश देता हूँ.
दुख पावत हैं सोहागनी, सो हम सह्यो न जाए।
हम भी होसी जाहेर, पर तूं सोहागनियां जगाए।।३१
सुहागिनी आत्माएँ दुःख पा रहीं हैं उनका वह दुःख मुझसे सहा नहीं जाता. मैं स्वयं भी तुम्हारे अन्तरमें प्रकट हो जाऊँगा, परन्तु तुम ब्रह्मात्माओंको जागृत करना.
सिर ले आप खडी रहो, कहे तूं सब सैयन।
प्रकास होसी तुझ से, द्रढ कर देखो मन।।३२
मेरे आदेशको शिरोधार्य कर सब ब्रह्मसृष्टियोंको जाग्रत करनेके लिए तुम खड.े हो जाओ. तुमसे ही तारतम ज्ञाानका प्रकाश पूरे ब्रह्माण्डमें फैलेगा, इस बातको अपने मनमें दृढ.ता पूर्वक धारण करो.
तोसों ना कछू अन्तर, तूं है सोहागिन नार।
सत सबद के माएने, तूं खोलसी पार द्वार।।३३
इसलिए मैंने तुमसे कोई अन्तर नहीं रखा है. तुम तो सुहागिनी अङ्गना हो. धर्मग्रन्थोंके सत्य वचनोंका गूढ.ार्थ खोलकर तुम ही सबको अखण्ड परमधामकी पहचान करा सकोगे.
जो कदी जाहेर ना हुई, सो तुझे होसी सुध।
अब थें आद अनाद लों, जाहेर होसी निज बुध।।३४
जो रहस्यमय ज्ञाान आज तक प्रकट नहीं हुआ है, उसकी भी सुधि तुम्हें होगी. अबसे अक्षरब्रह्मकी जागृत बुद्धि और तारतम ज्ञाानके द्वारा आदि अनादि (क्षर ब्रह्माण्डसे लेकर अक्षर अक्षरातीत तक) का ज्ञाान तुमसे प्रकट होगा.
ए बातें सब सूझसी, काहूं अटके नहीं निरधार।
हुकम कारन कारज, पार के पारै पार।।३५
इन सभी रहस्योंकी सूझ तुम्हें होगी. निश्चय ही तुम्हें कहीं अटकना (रुकना) नहीं पड.ेगा. परब्रह्म परमात्माके आदेशसे ही संसारकी सृष्टिका कारण (प्रेम सम्वाद) और कार्य (सृष्टि रचना) दोनों बने हैं. बेहदसे परे अक्षर और उससे परे अक्षरातीत परमधामका ज्ञाान तुम्हें ही सुलभ हुआ है.
चौदे तबक एक होएसी, सब हुकम के परताप।
ए सोभा होसी तुझे सोहागनी, जिन जुदी जाने आप।।३६
परब्रह्मकी आज्ञााके प्रतापसे चौदहलोकोंके प्राणी एकरूप हो जाएँगे अर्थात् सबको अखण्ड मुक्ति मिलेगी. हे सुहागिनी (इन्द्रावती) ! इसकी सम्पूर्ण शोभा तुझे मिलेगी. तुम स्वयंको मुझसे भिन्न मत समझना.
जो कोई सबद संसार में, अरथ ना लिए किन कब।
सो सब खातर सोहागनी, तूं अरथ करसी अब।।३7

संसारमें जितने भी धर्मग्रन्थ हैं उनका गूढ.ार्थ आज तक किसीने ग्रहण नहीं किया. सब ब्रह्मात्माओंके लिए तुम उनका रहस्य स्पष्ट करोगे.
तूं देख दिल विचार के, उड जासी सब असत।
सारों के सुख कारने, तूं जाहेर हुई महामत।।३८
तुम अपने दिलमें विचार कर देखो, अब तुम्हारे द्वारा दुनियाँका समस्त अज्ञाान (असत् भाव) नष्ट हो जाएगा. सबको अलौकिक सुख देनेके लिए ही तुम महामतिके रूपमें प्रकट हुई हो.
पेहेले सुख सोहागनी, पीछे सुख संसार।
एक रस सब होएसी, घर घर सुख अपार।।३९
सबसे पहले ब्रह्मात्माओंको सुख प्राप्त होगा फिर सारे संसारमें यह वितरित होगा. जब पूरी दुनियाँ एकरस हो जाएगी, तब घर-घरमें अपार सुख होगा.
ए खेल किया जिन खातर, सो तूं कहियो सोहागिन।
पेहेले खेल देखाए के, पीछे मूल वतन।।४०
यह खेल जिन ब्रह्मात्माओंके लिए बनाया है, उन्हें तुम कहना कि पहले उन्हें मायाके खेल दिखाकर फिर मूल घर परमधाममें जागृत किया जाएगा.
अंतर सैयों से जिन करो, जो सैयां हैं इन घर।
पीछे चौदे तबक में, जाहेर होसी आखर।।४१
परमधामकी ब्रह्मात्माओंके साथ किसी भी प्रकारका अन्तर मत करना. पश्चात् अन्तिम समयमें तो यह ज्ञाान समस्त संसारमें फैल जाएगा.
तें कहे बचन मुखथें, होसी तिनथें प्रकास।
असत उडसी तूल ज्यों, जासी तिमर सब नास।।४२
तुम्हारे मुखसे निःसृत तारतम ज्ञाानके वचनोंके द्वारा संसारमें ज्ञाानका प्रकाश फैल जाएगा. जिससे असत्य वस्तु (अज्ञाान) रूईके रेशेकी भाँति उड. जाएगी और अज्ञाानरूप अन्धकार भी मिट जाएगा.
तूं लीजे नीके मायने, तेरे मुख के बोल।
जो साख देवे तुझे आतमा, तो लीजे सिर कौल।।४३
तुम स्वयं भी अपने मुखसे निःसृत वचनोंके गूढ. आशयको भली-भाँति आत्मसात् करना. जब तुम्हारी आत्मा इन वचनोंकी साक्षी दे, तभी इन वचनोंको शिरोधार्य कर अपनी (परस्पर जगानेकी) प्रतिज्ञााका अनुपालन करना.
खसम खडा है अंतर, जेती सोहागिन।
तूं पूछ देख दिल अपना, कर कारज द्रढ मन।।४४
जितनी भी ब्रह्मात्माएँ हैं उन सबके हृदयमें धामधनी विराजमान हैं. इसलिए तू अपनी अन्तरात्मासे पूछकर देख और अपने मनको दृढ.कर जागनीका कार्य कर.
आप खसम अजूं गोप हैं, आगे होत प्रकास।
उदया सूर छिपे नहीं, गयो तमर सब नास।।४५
आत्मा (आप) और परमात्मा (खसम) अभी तक प्रत्यक्ष नहीं हुए हैं. भविष्यमें तारतम ज्ञाानके द्वारा उनका प्रत्यक्ष अनुभव हो जाएगा. तारतम ज्ञाानरूपी सूर्य उदय हो चुका है, अब यह छिपेगा नहीं इसीसे सारा अन्धकार (अज्ञाान) दूर हो जाएगा.
प्रकरण ९
कलश हिंदी

श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)प्रकरण ३७

Shri Tartam Sagar

श्रीसाथनो प्रबोध-राग धन्यासरी
संभारो साथ, अवसर आव्यो छे हाथजी।
आप नाख्या जेम पहेले फेरे, वली नाखजो एम निघातजी।।१
इन्द्रावती कहती है, हे सुन्दरसाथ जी ! स्मरण करो, हमें तीसरे ब्रह्माण्डमें पहुँचनेका सुअवसर प्राप्त हुआ है. हमने जिस प्रकार प्रथम बार (व्रजसे रासमें जाते समय) अपनी आत्माको धामधनी श्री कृष्णके चरणोंमें सर्मिपत किया था उसी प्रकार जागनीके इस ब्रह्माण्डसे परमधाममें जागृत होनेके लिए भी अपनी आत्माको निश्चित रूपसे सर्मिपत करो.
सुन्दरबाई आपण माटे, आव्यां छे आणी वारजी।
ए आपणने अलगां नव करे, कांई मोकल्यां छे प्राण आधारजी।। २
सुन्दरबाई अर्थात् सद्गुरु श्रीदेवचन्द्रजी महाराज हमारे लिए इस जागनीके ब्रह्माण्डमें आए हैं. वे हमें स्वयंसे अलग नहीं करेंगे क्योंकि धामधनीने उन्हें परमधामसे भेजा है.
सुपनातरमां खिण न मूके, तो साख्यात अलगां केम थाएजी ।
कृपा वालाजीनी केही कहुं, जो जुए जीव रुदया मांहेजी ।। ३
स्वप्नवत् लीला-व्रज और रासके ब्रह्माण्डमें (परमधाम तथा धामधनीका पूरा परिचय प्राप्त न होनेपर उसे स्वप्नवत् कहा है) भी प्रियतम धनी श्रीकृष्णने ब्रह्मात्माओंको क्षणमात्रके लिए भी अलग नहीं किया, तो इस जागनीके ब्रह्माण्डमें साक्षात् सद्गुरुके रूपमें पधारे हुए हमारे धनी श्री श्यामाश्याम हमसे अलग कैसे होंगे ? इसलिए उनकी कृपाका वर्णन किस प्रकार करूँ ? यदि जीव हृदयपूर्वक विचार कर देखे तो उसे अनुभव होगा कि प्रियतमकी दयाका वर्णन नहीं हो सकता है.
एवडी वात वालो करे रे आपणसुं, पण नथी कांई साथने सारजी ।
भरम उडाडी जो आपण जोइए, तो बेठा छे आपणमां आधारजी ।।४
प्रियतम धनी ऐसी महत्त्वपूर्ण बात हमसे कहते हैं, परन्तु सुन्दरसाथको इसका कुछ भी ज्ञाान नहीं है. यदि हम अपने भ्रमको दूर कर देखें तो निश्चित कर पाएँगे कि प्रियतम धनी हमारे अन्दर ही विराजमान हैं.
सुपनातरमां मनोरथ कीधां, तो तिहां पण वालोजी साथजी।
सुन्दरबाई लई आवेस धणीनो, नव मूके आपणो हाथजी।।५
स्वप्नवत् ब्रह्माण्ड-व्रज तथा रासमें हम लोगोंने जो इच्छाएँ व्यक्त की थीं वहाँ भी प्रियतम श्रीकृष्ण हमारे साथ रहे. इस तीसरे ब्रह्माण्डमें सुन्दरबाई श्री धणीका आवेश लेकर सद्गुरुके रूपमें आईं हैं. अब वे हमारा हाथ नहीं छोड.ेंगी.
तिलमात्र दुख नव दिए रे आपणने, जो जोइए वचन विचारीजी।
दुख आपणने तो ज थाय छे, जो संसार कीजे छे भारीजी।।६
धामधनीने हमें थोड.ा-सा भी दुःख नहीं दिया. हम उनके वचनों पर विचार करें तो हमें ऐसा अनुभव होगा कि हम तो सांसारिक सुखोंको ही महत्त्व देकर उन्हींमें मग्न रहते हैं इसलिए हमें दुःखका अनुभव होता है.
अंतरध्यान समे दुख दीधां, ए आसंका मन मांहेजी।
एणे समे संसार भारी नव कीधो, साथे दुख दीठां एम कांएजी।।
रासलीलाके समय जब श्रीकृष्ण अन्तर्धान हुए तो हम ब्रह्मात्माओंको दुःखका अनुभव हुआ. अब मनमें यह आशंका उठती है कि उस समय हमने संसारकी ममता एवं आसक्तिको महत्त्व नहीं दिया था फिर भी हमें इस प्रकारका दुःख क्यों देखना पड.ा ?
दुख तां केमे न दिए रे वालोजी, ए तां विचारीने जोइएजी।
सांभरे वचन तो ज रे सखियो, जो माया मूकतां घणुं रोईएजी।।८
इन्द्रावती कहती है, प्रियतम धनी किसी भी प्रकारका दुःख नहीं देते हैं. इस वास्तविकताको तारतम ज्ञाान द्वारा विचार करके देखो. हे सखियो ! मायाको छोड.ते हुए हमें बड.ा दुःख लगता है. अतः परमधामके वचनोंका स्मरण करानेके लिए ही रासके समय श्रीकृष्ण अन्तर्धान हुए हैं.
वचन संभारवाने काजे मारे वाले, दुख दीधां अति घणांजी।
आपण मनोरथ एहज कीधां, वाले राख्यां मन आपणांजी।।९
मूल वचन (मायावी दुःख देखनेकी इच्छा) का स्मरण करानेके लिए ही हमारे प्रियतम धनीने हमें अन्तर्धानके समय दुःख दिया है. कारण यह है कि हमलोगोंने परमधाममें यही (दुःखरूपी खेल देखनेकी) इच्छा की थी. इसलिए प्रियतम धनीने हमारी मनोकामनाएँ पूरी की.
आपण मायानी होंस ज कीधी, अने माया तो दुख निधानजी।
ते संभारवाने काजे रे सखियो, वालो पाम्यां ते अंतरधानजी।।१०
हे सुन्दरसाथजी ! हमने माया देखनेकी इच्छा व्यक्त की थी. निश्चय ही यह माया तो दुःखरूप ही है. इन वचनोंका स्मरण करानेके लिए प्रियतम श्रीकृष्णजी अन्तर्धान हुए थे.
नहीं तो अधखिण ए रे आपणो, नव सहे विछोहजी।
ए तां विचारीने जोइए रे सखियो, तो तारतम भाजे संदेहजी।।११
अन्यथा प्रियतम श्रीकृष्ण आधे क्षणके लिए भी हमारा वियोग सहन नहीं कर सकते. इन वचनों पर विचार करके देखोगी तो हे सखियो ! तारतम ज्ञाान सभी सन्देह मिटा देता है.
एणे समे तारतमनी समझण, ते में केम कहेवायजी।
अनेक विधनुं तारतम इहां, तेणे घर लीला प्रगट थायजी।।१२
अब इस समय तारतम ज्ञाानकी समझ हमें प्राप्त हो चुकी है. मैं किस प्रकार इसके गुणगान करूँ ? इस जागनीके ब्रह्माण्डमें तो तारतम ज्ञाानके अखण्ड प्रकाश द्वारा विभिन्न लीलाएँ (परमधाम, व्रज, रास और जागनी) स्पष्ट होतीं हैं.
ओलखवाने धणी आपणो, कहुं तारतम विचारजी ।
साथ सकल तमे ग्रहजो चितसुं, नहीं राखुं संदेह लगारजी।।१३
अपने धामधनी और मूल घर परमधामका परिचय देनेके लिए तारतम ज्ञाानका विवेचन कर रही हूँ. हे सुन्दरसाथजी ! तुम सब एकाग्र चित्त होकर इसे ग्रहण करो. आपके मनमें तनिक भी शंका रहने नहीं दूँगी.
पहेले फेरे तां ए निध ना हुती, अजवालुं तारतमजी।
तो आ फेरो थयो आपणने, साथ जुओ विचारी मनजी।।१४
प्रथम बार व्रज तथा रासलीलाके समय यह तारतम ज्ञाानरूपी निधि हमारे पास नहीं थी. तारतम ज्ञाानका प्रकाश भी नहीं था. इसलिए हमें इस ब्रह्माण्डमें आना पड.ा. हे सुन्दरसाथजी ! इस बात पर विचार करके देखो.
उत्कंठा नव रहे केहनी, जो कीजे तारतमनो विचारजी।
तारतमतणुं अजवालुं लईने, आव्या आपणमां आधारजी।।१५
यदि तारतम ज्ञाान पर विचार करके देखें तो किसीके भी मनमें किसी भी प्रकारकी उत्कण्ठा शेष नहीं रहेगी. ऐसे ज्ञाानका प्रकाश लेकर हमारे बीच धामधनी सद्गुरुके रूपमें पधारे हैं.
एणे अजवाले जो न ओलख्या, तो आपणमां अति मणांजी।
चरणे लागी कहे इन्द्रावती, वालो नव मूके गुण आपणांजी।।१६
इस तारतमके प्रकाशमें भी यदि हम सद्गुरु धनीकी पहचान न कर सके तो मानना चाहिए कि हममें अत्यधिक कमी है. इन्द्रावती चरणोंमें प्रणाम कर कहती है, प्रियतम धनी तो हमें कृतार्थ करनेका अपना स्वभाव नहीं छोडें.गे.
प्रकरण २
सकल साथ, रखे कोई वचन विसारोजी।
धणी मल्या आपणने मायामां, अवसर आज तमारोजी।।१
इन्द्रावती कहती है, हे सुन्दरसाथजी ! सद्गुरुके वचनोंको भूलना नहीं. इस मायावी संसारमें धामधनी हमें सद्गुरुके रूपमें प्राप्त हुए हैं. तुम्हेंे यह सुयोग्य अवसर प्राप्त हुआ है.
सुन्दरबाई अंतरगत कहावे, प्रकास वचन अति भारीजी।
साथ सकल तमे मली सांभलो, जो जो तारतम विचारीजी।।२
सद्गुरु श्रीदेवचन्द्रजी (सुन्दरबाई) मेरे हृदयमें विराजमान होकर (मेरे द्वारा) कहलवाते हैं कि प्रकाश ग्रन्थ (प्रकाश वचन) की बातें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और र्मािमक हैं. हे सुन्दरसाथजी ! तुम सब मिलकर सुनो और तारतम ज्ञाान पर विचार करो.
साथजी एणे पगले चालजो, पगलां ते एह प्रमाणजी।
प्रगट तमने पहेले कह्युं, वली कहुं छुं निरवाणजी।।३
हे सुन्दरसाथजी ! इस प्रेम मार्गका अनुसरण करो (जिस प्रकार व्रजभूमिसे निकलकर रासमण्डलमें जाते समय सांसारिक ममताका त्याग किया था). वास्तवमें यही मार्ग हमारा योग्य मार्ग है. इससे पूर्व (रास ग्रन्थमें) भी मैंने ये बातें स्पष्ट शब्दोंमें कही थी अब पुनः इसीको निश्चयपूर्वक कहती हूँ.
हवे रखे माया मन धरो, तमे जोई ते अनेक जुगतजी।
कै कै पेरे कह्युं में तमने, तमे हजी न पाम्यां त्रपतजी।।४
अब मायाके प्रति रुचि मत रखो. तुम सबने इसे युक्तिपूर्वक देखा है. इसके (छल-कपट, और कुटिलताके) विषयमें मैंने तुम्हें कई बार कहा है तथापि तुम अभी तक इससे तृप्त नहीं हुए हो.
जिहां लगे तमे रहो रे मायामां, रखे खिण मूको रासजी।
पचवीस पख लेजो आपणां, तमने नहीं लोपे मायानो पासजी।।५
जब तक तुम इस मायावी संसारमें रहो तब तक रास ग्रन्थके वचनोंको नहीं छोड.ना. साथ ही परमधामके पच्चीस पक्षको भी अपने हृदयमें रखना. जिससे तुम पर मायाका प्रभाव नहीं पडे.गा.
अनेक विध में घणुंए कह्युं, हवे रखे खिण विहिला थाओजी।
रासतणी रामतडी जो जो, जे भरियां आपण पाओजी।।६
मैंने इस विषयमें आपको अनेक प्रकारसे समझाया है. अब एक क्षणके लिए भी धनीसे अलग न हों. अखण्ड रासकी आनन्दमयी रामतें देखो और विचार करो कि उस समय हमने कैसे प्रेमपूर्ण कदम रखे थे.
रास रामतडी रखे खिण मूको, जे आपण कीधी परमाणजी।
तमे घणुंए नव मूको माया, पण हुं नहीं मूकुं निरवाणजी।।
रासकी रामत (प्रेमानन्द लीला) को एक क्षणके लिए भी मत छोड.ो. जिनको निश्चित ही हमलोगोंने किया था. हे सुन्दरसाथजी ! यद्यपि तुम मायाको नहीं छोड.ोगे फिर भी मैं तुम्हें किसी भी प्रकारसे नहीं छोडूँगीं (समझाती रहूँगी).
कहे इन्द्रावती वचन वालानां, जे सुणियां आपण सारजी।
हवे लाख वातो जो करे रे माया, तो हुं नहीं मूकुं चरण निरधारजी।।८
इन्द्रावती कहती है, हमलोगांेने सद्गुरुके श्रेष्ठ वचन-तारतम ज्ञाानको सुना है. अब माया चाहे लाख बातें करके मुझे ठगनेका प्रयत्न करे फिर भी मैं निश्चय ही धनीके चरण नहीं छोडूँगी.
प्रकरण ३
prakash gujrati
यों हम ना करें तो और कौन करे, धनी हमारे कारन दूजा देह धरे ।
आतम मेरी निजधामकी सत, सो क्यों ना कर उजाला अत ।।२३
यदि हम ऐसा (इस तारतम ज्ञाानको फैलानेका) कार्य नहीं करेंगे तो अन्य कौन करेगा ? सद्गुरु धनीने हमारे लिए ही दूसरी बार शरीर धारण किया है. यदि मेरी आत्मा सचमुच परमधामकी है तो वह इस संसारमें परमधामके ज्ञाानका प्रकाश क्यों नहीं फैलाएगी ?
श्री सुन्दरबाईके चरन प्रताप, प्रगट कियो मैं अपनों आप ।
मोंसों गुनवंती बाइएं किए गुन, साथें भी किए अति घन ।।२४
सद्गुरु श्री देवचन्द्रजी (सुन्दरबाई) के चरणोंके प्रतापसे मैंने स्वयंको प्रकट किया है. मुझ पर श्रीगोवर्धन ठाकुर (गुणवन्तीबाई) ने बडे. उपकार किए हैं और सुन्दरसाथने भी मुझ पर बड.ा अनुग्रह किया है.
जोत करूं धनीकी दया, ए अंदर आएके कहया।
उडाए दियो सबको अंधेर, काढयो सबको उलटो फेर ।।२५
अब मैं धनीकी दयाको प्रकाशित करती हूँ. उन्होंने मेरे हृदयमें बैठकर ये वचन कहे हैं. उन्होंने इन वचनोंके द्वारा सबके अज्ञाानरूपी अन्धकारको दूर किया और संसारके समस्त जीवोंके जन्म-मरणके उलटे चक्रको समाप्त कर दिया.
प्रकरण २१
श्री प्रकास ग्रन्थ(हिन्दुस्थानी)
फेर फेर ना आवे ए अवसर, जिन हाम ले जागो घर ।
थोडेमें कह्या अति घना, जान्या धन क्यों खोइए अपना ।।७०
ऐसा अवसर बार-बार नहीं आएगा. इसलिए अपनी समस्त मायावी इच्छाओंका त्याग करते हुए परमधाममें जागृत हो जाओ. थोडे.-से ही शब्दोंमें मैंने बहुत कुछ कह दिया है. अपनेसे परिचित सद्गुरुरूपी धनको क्यों खो रहे हो ?
हम आगे ना समझे भए ढीठ, तो दई श्रीदेवचन्दजीएं पीठ ।
ना तो क्यों छोडे साथको एह, जो कछू किया होए सनेह ।।७१
पहले भी हम ढीठ बनकर बैठे रहे, तभी तो श्रीदेवचन्द्रजी हमें पीठ देकर चले गए. यदि हमने कुछ भी स्नेह दिखाया होता, तो वे हम सुन्दरसाथको छोड.कर क्यों चले जाते ?
अब फेर आए दूजा देह धर, दया आपन ऊपर अति कर ।
अब ए चेतन कर दिया अवसर, ज्यों हंसते बैठे जागिए घर ।। ७२
अब वे पुनः दूसरा शरीर धारण कर हमारे बीच पधारे हैं. उन्होंने हम पर अपार दया की है. तारतम ज्ञाान द्वारा हमें सचेत कर उन्होंने जागृतिके लिए पुनः यह अवसर दिया है, जिससे हम सब सुन्दरसाथ हँसते हुए परमधाममें उठ बैठें.
सब मनोरथ हुए पूरन, जो ए बानी बिचारो अंतसकरन ।
ए तो इन्द्रावती कहे फेर फेर, जो धाम धनी कृपा करी तुम पर ।।७३
यदि इस वाणी पर अन्तःकरणसे विचार कर देखोगे तो ज्ञाात होगा कि सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो गइंर् हैं. यह तो इन्द्रावती तुम्हें बार-बार कह रही है क्योंकि धामधनीने तुम पर अपार कृपा की है.
प्रकरण २९
लीला दोऊं पेहेले करी, दूजे फेरे भी दोए।
बिना तारतम ए माएने, न जाने कोए।।१२६
जिस प्रकार प्रथम अवतरणमें व्रज और रासकी दो लीलाएँ हुईं, उसी प्रकार दूसरी बार इस जागनीके ब्रह्माण्डमें भी दो प्रकारकी लीलाएँ (जागनी व्रज-श्रीसुन्दरबाई और जागनी रास-श्रीइन्द्रावतीके द्वारा) सम्पन्न हुई, किन्तु तारतम ज्ञाान पाए बिना इन अर्थोंको कोई नहीं समझ सकता.
एक में उपज्या तारतम, दूजे मिने उजास।
सब विध जाहेर होएसी, जागनी प्रकास।।१२
प्रथम स्वरूप निजानन्द स्वामी श्री देवचन्द्रजीमें यह तारतम ज्ञाान उदय हुआ एवं दूसरे स्वरूप श्री प्राणनाथजीसे इसका प्रकाश फैल गया. इस प्रकार जागनी लीलाका यह प्रकाश सब प्रकारसे विस्तृत होगा.
प्रकरण ३१
श्री प्रकास ग्रन्थ(हिन्दुस्थानी)
खरी वस्त जे थासे सही, ते रहेसे वचन रासना ग्रही।
जेम कह्युं छे करसे तेम, ते लेसे फलतणो तारतम।।२१
जो सच्ची ब्रह्मात्मा होगी, वे रासके वचन अवश्य ग्रहण करेगी और धनीजीने जो कहा है उसी आदेशका पालन करेगी. ऐसी आत्माएँ तारतमका फल (पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्ण एवं परमधाम) प्राप्त करेगी.
प्रकरण ३४ श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
घर श्री धाम अने श्रीक्रस्न, ए फल सार तणो तारतम।
तारतमे अजवालुं अति थाए, आसंका नव रहे मन मांहे।।२३
हमारा घर अखण्ड परमधाम तथा हमारे धनी श्रीकृष्ण यही तारतमका सार फल है. इस तारतम ज्ञाान द्वारा अत्यन्त प्रकाश फैलता है. जिससे मनमें किसी भी प्रकारकी शंका नहीं रहती है.
प्रकरण ३३
श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
ब्रह्मांड मांहे आवियों एह, मन तणां भाजवा संदेह।
साथ माहें एक सुन्दरबाई, तेणे श्रीराजे दीधी बडाई।।१९
मनकी आकांक्षा पूर्ण करनेके लिए हम सब इस ब्रह्माण्डमें आ गए. ब्रह्मात्माओंमेंसे सुन्दरबाईको श्री राजजीने बड.प्पन (अग्रता) प्रदान किया.
आवेस अंग आपी आधार, दई तारतम उघाडयां बार।
घर थकी वचन लई आवियां, ते तां सुंदरबाईने कह्यां।।२०
अपने अङ्गस्वरूपा श्री सुन्दरबाईको श्रीराजजीने अपनी आवेश शक्ति दी. तारतम ज्ञाान देकर परमधामके अखण्ड सुखोंका द्वार खोल दिया. वे स्वयं अखण्ड परमधामसे तारतमके वचन लेकर आए और सुन्दरबाईको वे वचन कहे.
साथ वचन सांभलियां एह, वासनाए कीधां मूल सनेह।
ते मांहे एक इन्द्रावती, कहेवाणी सहुमां महामती।।२१
सद्गुरुके पाससे सुन्दरसाथने वे वचन सुने और वे उनसे मूल परमधामका जैसा ही प्रेम करने लगे. उन सुन्दरसाथमेंसे एक इन्द्रावतीकी आत्मा थी जो सबमें
महामति (उत्तम बुद्धियुक्त) कहलाई.
तारतम अंग थयो विस्तार, उदर आव्या बुध अवतार।
इछा दया ने आवेस, एणे अंग कीधो प्रवेस।।२२
इन्द्रावतीके अंगसे (मुझसे) तारतम ज्ञाानका विस्तार हो गया, तथा अक्षरकी जागृत बुद्धि उनके अन्तःकरणमें समा गई. इच्छा (धनीकी आज्ञाा), दया (श्यामाजीकी आत्मा) तथा श्री राजजीका आवेश ये सब मिलकर इन्द्रावतीके अङ्गमें समाहित हो गए.
प्रकरण ३७
श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
हमारा घर अखण्ड परमधाम तथा हमारे धनी श्रीकृष्ण यही तारतमका सार फल है. इस तारतम ज्ञाान द्वारा अत्यन्त प्रकाश फैलता है. जिससे मनमें किसी भी प्रकारकी शंका नहीं रहती है.
प्रकरण ३३
श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
ब्रह्मांड मांहे आवियों एह, मन तणां भाजवा संदेह।
साथ माहें एक सुन्दरबाई, तेणे श्रीराजे दीधी बडाई।।१९
मनकी आकांक्षा पूर्ण करनेके लिए हम सब इस ब्रह्माण्डमें आ गए. ब्रह्मात्माओंमेंसे सुन्दरबाईको श्री राजजीने बड.प्पन (अग्रता) प्रदान किया.
आवेस अंग आपी आधार, दई तारतम उघाडयां बार।
घर थकी वचन लई आवियां, ते तां सुंदरबाईने कह्यां।।२०
अपने अङ्गस्वरूपा श्री सुन्दरबाईको श्रीराजजीने अपनी आवेश शक्ति दी. तारतम ज्ञाान देकर परमधामके अखण्ड सुखोंका द्वार खोल दिया. वे स्वयं अखण्ड परमधामसे तारतमके वचन लेकर आए और सुन्दरबाईको वे वचन कहे.
साथ वचन सांभलियां एह, वासनाए कीधां मूल सनेह।
ते मांहे एक इन्द्रावती, कहेवाणी सहुमां महामती।।२१
सद्गुरुके पाससे सुन्दरसाथने वे वचन सुने और वे उनसे मूल परमधामका जैसा ही प्रेम करने लगे. उन सुन्दरसाथमेंसे एक इन्द्रावतीकी आत्मा थी जो सबमें
महामति (उत्तम बुद्धियुक्त) कहलाई.
तारतम अंग थयो विस्तार, उदर आव्या बुध अवतार।
इछा दया ने आवेस, एणे अंग कीधो प्रवेस।।२२
इन्द्रावतीके अंगसे (मुझसे) तारतम ज्ञाानका विस्तार हो गया, तथा अक्षरकी जागृत बुद्धि उनके अन्तःकरणमें समा गई. इच्छा (धनीकी आज्ञाा), दया (श्यामाजीकी आत्मा) तथा श्री राजजीका आवेश ये सब मिलकर इन्द्रावतीके अङ्गमें समाहित हो गए.
प्रकरण ३७
श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)

मेहेर सागर

meher sagar

सागर आठमा मेहेरका (श्रीराजजीकी कृपाका आठवां सागर)

और सागर जो मेहेर का, सो सोभा अति लेत।
लेहेरें आवे मेहेर सागर, खूबी सुख समेत।।१

श्रीराजजीकी कृपाका यह (मेहेर) सागर अतिशय शोभा सम्पन्न है. इसमें अपार सुखोंकी लेहेरें निरन्तर उठा करतीं हैं.
(पूर्व र्विणत सातों सागरोंमें प्रत्येकमें एक-एक रसका वर्णन है परन्तु इस मेहेर सागरमें पूर्व कथित सभी सागरोंके रसके साथ-साथ कृपाका विशेष रस समाहित है इसलिए यहाँ पर 'और' कहा है.)
The ocean of Grace is extremely splendorous. The waves in the ocean of Grace bring unique happiness.

हुकम मेहेर के हाथ में, जोस मेहेर के अंग।
इसक आवे मेहेर से, बेसक इलम तिन संग।।२

श्री राजजीका आदेश उनकी कृपाके अधीन है, जोश भी कृपाका अङ्ग स्वरूप है. शाश्वत प्रेम एवं जागृत बुद्धिका ज्ञाान भी उनकी कृपासे ही प्राप्त होते हैं.
The will of the Supreme lies in the hand of Grace and His inspiration is the essence of Grace.
From the grace sprouts the love in the heart and reveals the absolute wisdom with it. 2
(The heart is purified by the understanding of the absolute wisdom. The pure heart makes the
the mind quiet. Only the pure heart can love. The love for Lord is the only way to unite with the Lord.)It’s the Grace of the Lord which can bring the Love in the heart and can reveal the absolute wisdom(beshak ilam-the scientific knowledge which ends the confusion in mind, which is complete and whole in itself, the supreme truth) to the soul)
The grace will enable the mind to understand the real meaning hidden in the scriptures and dispel all doubts and confusion in the mind. By the grace the soul can understand the supreme truth and is able to love the supreme reality and thus will establish the original relationship with the beloved Lord.

पूरी मेहेर जित हक की, तित और कहा चाहियत।
हक मेहेर तित होत है, जित असल है निसबत।।३

जहाँ पर श्रीराजजीकी असीम कृपा पूर्णरूपसे होती है, वहाँ अन्य किस वस्तुकी आवश्यकता शेष रहेगी ? किन्तु श्रीराजजीकी कृपा उन पर ही होती है जिनका मूल सम्बन्ध श्रीराजजीसे है.
When the soul establishes the original relationship with the Lord, then the Supreme Commander showers the full grace, does the soul seek anything more? 3
(The happiness of the world are temporary and pleasures are momentous(do not last) and thus one becomes slave to one's own desires of fun or happiness forever.
Where there is complete grace of Lord the soul experiences the everlasting bliss (nijanand) the happiness that is eternal in nature, what does soul seek more when the seeking cease to exist ? The grace of Lord takes place where the soul establishes the relationship with Lord in speech, thoughts and deeds
)

मेहेर होत अव्वल से, इतहीं होत हुकम।
जलुस साथ सब तिनके, कछू कमी न करत खसम।।४
सर्व प्रथम ब्रह्मात्माओं पर श्रीराजजीकी असीम कृपा होती है. तदुपरान्त उनका आदेश उनको प्राप्त होता है इसके साथ-साथ ज्ञाान एवं आवेश आदि भी प्राप्त होते हैं. अपनी अङ्गनाओंके लिए श्रीराजजी किसी भी प्रकारकी कमी रहने नहीं देते हैं.
The grace upon the soul is bestowed from the very beginning (the grace of Lord is eternally present). The Grace issues forth Lord’s will. The procession follows such soul and all the needs are fulfilled by Lord. 4
(The physical body of the person becomes the instrument in bringing supreme grace to the perishable world. The presence of the grace of Lord through these souls has made this world divine too.
Remember, when one gets awakened, also becomes enlightened (the presence of Brahmic light within) which brightens the lives of immediate surrounding. Thus procession of people follow and the beloved Lord, the master denies nothing to the soul. The Lord fulfills all the need and the soul lacks nothing. The soul who enlighten the cosmos and make it divine are not dependent on the world or the people but totally on Lord.
The entire cosmos is created to merely entertain the soul. In this world of illusion one can understand the operation of the world but cannot see the operator or the creator. One cannot even detect the essence of life or the being present in the physical living beings, when this invisible being leaves the living being; the body becomes organic decay! Once the secret of the existence of the being is known the Lord Himself is known and the cause of the creation and the entire cosmos (universes, space and other dimensions) is understood. One becomes cosmic conscious and all the wishes are fulfilled. The soul conscious being is not driven by the physical senses. The soul becomes the master and reins all these physical senses. The body becomes the temple of the soul. )

ए खेल हुआ मेहेर वास्ते, माहें खेलाए सब मेहेर।
जाथें मेहेर जुदी हुई, तब होत सब जेहेर।।५

ब्रह्मात्माओं पर अपार कृपा कर उन्हें प्रेमका महत्त्व समझानेके लिए ही इस नश्वर जगतकी रचना हुई है. इसीलिए इस खेलमें भी श्रीराजजी उनको कृपापूर्वक खेला रहे हैं. जिससे श्रीराजजीकी कृपा दूर हो जाती है उसे यह सम्पूर्ण खेल विषतुल्य लगने लगेगा.
This worldly drama is created out of Grace and all the sports been played over here are of Grace. The moment the Grace ceases one experiences everything is painful like poison (that brings death). (The entire universe is a sport of the Lord created in the dream of Akshar Brahma to manifest the grace of Lord to the divine souls. Remember, at raas leela, Aksharateet Shri Krishna withdrew His inspiration and there was nothing but pain of separation from the beloved.) 5

दोऊ मेहेर देखत खेल में, लोक देखे ऊपर का जहूर।
जाए अन्दर मेहेर कछू नहीं, आखर होत हक से दूर।।६

इस जगतके खेलमें श्रीराजजीकी कृपा दो प्रकार से (बाह्य तथा आन्तरिक) देखी जाती है. जगतके जीव उनकी बाह्यकृपा (भौतिक सुख) को देखते हैं किन्तु जो आन्तरिक कृपा (आत्मिक सुख) से वञ्चित रह जाते हैं वे अन्ततोगत्वा श्रीराजजीके सान्निध्यसे भी वञ्चित रह जाएँगे.
In this world drama of dream there are two types of Grace but the ignorant people appreciate the external grace, the one that appears to be good. If you look closely you will find there is nothing but emptiness and actually is distracting the soul away from the Lord. Following such grace in the end one is driven away from the Supreme Lord. 6
‘All that glitters is not gold’.
The root of evil in human being is the desire and all the actions are done to fulfill it but the wants and desires are never fulfilled.
The worldly people generally seek worldly pleasure(name, fame, glory, power, riches and pleasure to the senses) and are quite happy in having it. Deep inside they do not even want beloved Lord and the divine abode. They pray Lord to fulfill these desires and when they find not answered they resort to black magic. (All the boons of worldly pleasures which take the soul away from the reality appear as grace to ignorant but in real that is not grace). The soul will be far away from the Reality and will wonder in wilderness (wants, desires and passions that never end).

मेहेर सोई जो बातूनी, जो मेहेर बाहेर और माहिं।
आखर लग तरफ धनीकी, कमी कछु ए आवत नाहिं।।7

वास्तवमें आन्तरिक कृपा ही विशेष मानी गई है. जो बाह्य (भौतिक) एवं आन्तरिक (आत्मिक) दोनों सुख प्रदान करती है. जो अन्तिम पल तक श्रीराजजीके प्रति दृढ. श्रद्धा रखता है उसे किसी भी प्रकारकी कमी नहीं आती है
The Grace that happens within is the true one and manifests internally and externally too (one needs deep understanding to see the grace upon the soul). The grace brings the soul closer to the Lord and the soul experiences nothing short(experiences abundance). The soul becomes free from the wants and desires. The soul becomes one with the reality. In the end it is attracted towards the Master and experiences the fulfillment. 7

मेहेर होत है जिन पर, मेहेर देखत पांचों तत्व।
पिंड ब्रह्मांड सब मेहेर के, मेहेर के बीच बसत।।८

श्रीराजजीकी असीम कृपा जिस पर होती है वह आत्मा पाँचों तत्त्वोंमें (पूरे जगतमें) उनकी कृपाके ही दर्शन करती है. उसके लिए पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड भी कृपामय हो जाते हैं. ऐसी आत्मा सर्वदा स्वयंको कृपाके अन्तर्गत पाती है.
The one on whom the Grace is bestowed finds that the five elements (earth, fire, water, wind, ether the aakaash element [the akaash is actually an element but I am not able to explain it very well]) which are vital in creating life is blessed by the Grace. The physical mass (body) and the cosmos all are residing under the Grace. 8

ए दुख रूपी इन जिमीमें, दुख न काहूं देखत।
बात बडी है मेहेर की, जो दुखमें सुख लेवत।।९

जिस पर श्रीराजजीकी कृपा होती है वह आत्मा इस दुःखमय जगतमें भी दुःखका नहीं अपितु सुखका ही अनुभव करती है. यही तो श्रीराजजीकी कृपाकी विशेषता है.
By grace of Supreme Shri Krishna that even in the land of misery, one does not see sufferings any where.
Such is the importance of grace the amidst misery the soul experiences the bliss. 9
(
If you open the newspaper or switch on the TV, you will find that whole entire earth is filled with misery (unemployment, war, natural calamity, loss, insecurity, crime etc.)It appears everywhere there is suffering. With the Grace of the Lord ones sees no sorrow in the world. So immense is the greatness of Grace that even in the sorrowful world the soul experiences the joy. )

सुख में तो सुख दायम, पर स्वाद न आवत ऊपर।
दुख आए सुख आवत, सो मेहेर खोलत नजर।।१०

परमधाममें सर्वदा सुख ही सुख हंै. इसलिए वहाँ पर ब्रह्मात्माओंको सुखके स्वादका अनुभव नहीं हुआ. वस्तुतः दुःख प्राप्त होने पर ही तो सुखका स्वाद प्राप्त हो सकता है. (इसलिए ब्रह्मात्माओंको दुःखमय जगतमें भेजा गया). अब श्रीराजजीकी कृपासे ही उनकी आत्मदृष्टि खुल रही है
When one is joyous one does not know the taste of the joy. When the soul goes through the sorrow it understands the value of the eternal joy (what it was experiencing) and thus the Grace opens the internal eyes of the soul. 10
The Supreme souls experienced the eternal bliss and did not know its value.
It is to experience the grace of Lord that we are seeing this world of misery. In the sorrow we understand the bliss and thus the realization comes to the soul of the Grace of Lord.

इन दुख जिमी में बैठके, मेहेरें देखे दुख दूर।
कायम सुख जो हक के, सो मेहेर करत हजूर।।११

इस दुःखमय जगतमें रहते हुए भी श्रीराजजीकी कृपासे स्वयंको दुःखसे दूर देख सकते हैं. श्रीराजजीकी कृपासे ही सर्वदा उनके अखण्ड सुख प्राप्त होते हैं.
In this world which appears full of sorrow, the Grace removes all the sorrow and grants the eternal bliss of the Supreme to the soul. The misery caused by the ignorance will be eradicated. The soul is surrounded by the compassion and love in the midst of the cruelty and selfishness. There is rule of Lord in the entire cosmos; once the internal eye is open one can see that there is some order in the operation of the universe.11

मैं देख्या दिल विचार के, इसक हक का जित।
इसक मेहेर से आइया, अव्वल मेहेर है तित।।१२

मैंने हृदयपूर्वक विचार करके देखा तो ज्ञाात हुआ कि जहाँ भी उनका प्रेम है वहाँ पर उससे पूर्वसे ही उनकी कृपा है. क्योंकि उनकी कृपासे ही प्रेमका आविर्भाव होता है.
I have closely watched the heart where there is the Love of the Lord originates
and that love also is derived from the Grace. Since the Love for the Lord springs from the Grace, the Grace must exist first. Since the Love follows the Grace, the Grace is the foremost of the two. 12

अपना इलम जिन देत हैं, सो भी मेहेर से बेसक।
मेहेर सब विध ल्यावत, जित हुकम जोस मेहेर हक।।१३

श्रीराजजी जिसको अपना ज्ञाान देते हैं उसे अपनी कृपासे सन्देह रहित बना देते हैं. उनकी कृपा सभी गुणोंको खींच लेती है, जिससे उनका आदेश तथा जोश भी खींचे हुए चले आते हैं.
The grace gives the knowledge of the self and that too which is absolute. There will be no doubts or confusion in mind.
It’s the grace which offers the soul the self knowledge followed by the absolute knowledge of the Supreme. The grace brings all sorts of things like the will of the Lord, the power of inspiration, the grace and finally the Lord Himself.
13

जाको लेत हैं मेहेर में, ताए पेहेले मेहेरें बनावे वजूद।
गुन अंग इंद्री मेहेर की, रूह मेहेर फूकत माहें बूंद।।१४

श्री राजजी जिसको अपनी कृपा दृष्टिके अन्तर्गत लेना चाहते हैं, वे उसके शरीरको भी पहलेसे ही योग्य बना देते हैं. जिससे उसके गुण, अङ्ग तथा इन्द्रियाँ आदि सभी कृपामय हो जाते हैं फिर उस शरीरमें कृपापूर्वक आत्माका प्रवेश करवाते हैं.
When the Lord considers bestowing the grace then first and foremost the grace forms the entity (personality). The qualities (gun), physical body, senses all is ordained by the grace and later it’s the grace which blows soul in this droplet(The human being is made in the image of oceanic Lord). 14

मेहेर सिंघासन बैठक, और मेहेर चंवर सिर छत्र।
सोहोबत सैन्या मेहेर की, दिल चाहे मेहेर बाजंत्र।।१५

जिसके ऊपर श्रीराजजीकी अपार कृपा होती है उसके लिए उनकी कृपाकी ही बैठक, सिंहासन, चँवर, सिरछत्र, सहचारी सैन्य तथा इच्छानुकूल वाद्ययन्त्र आदि प्राप्त होते हैं.
(तात्पर्य यह है कि जिसको धनीकी कृपाका अनुभव हुआ उसे उसी कृपामें सम्पूर्ण भौतिक वैभवका भी अनुभव हो जाता है. जैसे इन्द्रावतीको हुआ है.)
Grace empowers the soul by granting highest position and royal respects (thrones, chanvar, sir chhatra). The battalions of soldiers are sent by the Grace and also the music of victory, pleasant to the heart is played. 15
(The soul is the master of the body and the mind. It rules the senses, desires, intellect, emotions and physical organs. Such realized soul is an emperor in oneself listening to the sweet music from within). The outside world is the reflection of the world within. The entire inner divine splendor of graceful soul is reflected in the physical world thus bringing the divinity, love, wisdom and abundance in this world fulfilling ‘sukh shital karoon sansar’. )

बोली बोलावे मेहेर की, और मेहेरै का चलन।
रात दिन दोऊ मेहेर में, होए मेहेरें मिलावा रूहन।।१६

जिस पर धनीकी अपार कृपा होती है उसकी वाणी तथा व्यवहारमें भी रात-दिन वही कृपा झलकती रहती है. अन्ततः आत्माको मूलमिलावाका सुख भी इसी कृपासे प्राप्त होता है.
The grace inspires the speech and it’s the grace that reflects in the action. The person will walk the talk and live a life full of divine grace. There will be consistency in the speech, action, intellect (mind) directed from the soul.
The night(ignorance of the world) and day the light of the supreme intelligence all are of Grace and the grace will unite all other like souls. 16

बंदगी जिकर मेहेर की, ए मेहेर हक हुकम।
रूहें बैठी मेहेर छाया मिने, पिएं मेहेर रस इसक इलम।।१7

श्रीराजजीकी कृपा एवं उनके आदेशसे ही ब्रह्मात्माएँ पूजा-अर्चना तथा वन्दना करतीं हैं. इस प्रकार ब्रह्मात्माएँ कृपाकी छत्रछायामें बैठकर प्रेम तथा ज्ञाानका रस आस्वादन करतीं हैं.
Pray for this Grace as this Grace is the will of the Lord Supreme. (The soul must make an effort first out of free will and seek the divine Grace of Lord so it will manifest.) The divine souls are sitting under His Grace and are drinking the Graceful nectar of Divine Love and Wisdom. 17

जित मेहेर तित सब हैं, मेहेर अव्वल लग आखर।
सोहोबत मेहेर देवहीं, कहूं मेहेर सिफत क्यों कर।।१८

जहाँ पर कृपा होती है, वहीं सब कुछ हो जाता है. यह कृपा आरम्भसे लेकर अन्त तक बनी रहती है. इसी कृपाके कारण सत्य सङ्गत प्राप्त होता है. इस प्रकार इस कृपाकी महिमाका वर्णन कैसे करें ?
Where there is Grace there is everything and this Grace is from the beginning till the end. The Grace is eternally present. Grace is always there. One must look within and see from the eyes of the soul.
The true companion is bestowed by the Grace. (A person gets affected by the surrounding, environment, friends, relatives, conditions and all are outcome of grace). How can I express the importance of grace?18

एह जो दरिया मेहेर का, बातून जाहेर देखत।
सब सुख देखत तहां, मेहेर जित बसत।।१९

इस कृपाके सागरमें बाह्य तथा आन्तरिक (भौतिक तथा आध्यात्मिक) दोनों प्रकारके सुख प्राप्त हैं. वस्तुतः जहाँ कृपा होती है वहाँ सर्वप्रकारके सुख प्राप्त होते हैं.
In this ocean of Grace the batuni(internal) divinity is manifested. Manifestation of that which is within is accomplished by the ocean of Grace (Shri Krishna playing in Braj and Raas with celestial souls is an example of what is in the heart of Gopi manifested outside this is the secret of manifestation of Shri Krishna for each Gopi). All the beings are empowered with this Grace (manifest the desire of the soul), but unless one becomes soul conscious how can one know this fact. The whole life is wasted in being body conscious, following the senses and relating oneself in the outside world. One must go within and find the real self and see what marvelous gift life has given to one.
All types of eternal happiness are found where there is Grace.
19

बीच नाबूद दुनीय के, आई मेहेर हक खिलवत।
तिन से सब कायम हुए, मेहेरै की बरकत।।२०

श्री राजजीकी कृपासे ही इस नश्वर जगतमें ब्रह्मात्माएँ अवतरित हुईं हैं. उन्हींके द्वारा जगतके जीवोंको अखण्ड मुक्ति स्थलका सुख प्राप्त होगा. वस्तुतः यह सब श्रीराजजीकी कृपाका ही प्रताप है.
Middle of this perishable world and the worldly people the will of the Lord descended to sport and along came His grace. The coming of eternal beings made everything eternal and this is the blessing of the Grace.
In this perishable world exists the imperishable by the grace of Lord which otherwise was not possible. The blessings of the grace of Lord can turn this finite into infinite or momentous into eternal. (Great is the power of grace.) 20

वरनन करूं क्यों मेहेर की, सिफत ना पोहोंचत।
ए मेहेर हककी बातूनी, नजर माहें बसत।।२१

श्रीराजजीकी कृपाका वर्णन कैसे करें ? उसकी प्रशंसाके लिए शब्द भी मौन रह जाते हैं. उनकी यह आन्तिरक कृपा उनकी ही दृष्टिमें रहती है अर्थात् जिस पर उनकी कृपादृष्टि होती है उसे अपार सुख प्राप्त होता है.
How can I describe the grace, the words cannot suffice. The grace of Supreme is spiritual and found within. This grace of Lord is divine (batuni that is of paramdham) and resides in his vision. 21

ए मेहेर करत सब जाहेर, सबका मता तोलत।
जो किन कानों ना सुन्या, सो मेहेर मगज खोलत।।२२

इसी कृपासे सभी रहस्य स्पष्ट हो जाते हैं, इसीसे सबके सिद्धान्तोंका मूल्याङ्कन होता है. जिस पूर्णब्रह्म परमात्माके विषयमें आज तक किसीने यथार्थ रूपसे सुना भी नहीं था उनके गूढ. रहस्योंको भी इसी कृपाने स्पष्ट कर दिया है.
Grace reveals all the secrets and judges everyone's intelligence. In contemplation one finds the answer in their mind revealed by grace what one has never heard before.
This divine grace manifests in all the discoveries and inventions as per the intelligence of the beings (the intelligence of all the beings are measured or considered). What the ears have never heard the grace reveals it to the mind. 22

वरनन करूं क्यों मेहेरकी, जो बसत हक के दिल।
जाको दिलमें लेत हैं, तहां आवत न्यामत सब मिल।।२३

श्रीराजजीके हृदयमें स्थित इस कृपाका वर्णन कैसे करें ? वे जिसको हृदयमें ले लेते हैं वहाँ पर सभी सम्पदाएँ स्वतः चली आतीं हैं.
How can I describe the Grace that resides in the heart of the Lord Supreme.
On whom Lord considers to shower grace there flows all the bounties and treasures of Paramdham itself (Treasures of Paramdham are love,consciousness,eternal living, timelessness, intelligence,bliss). (One must rely only on the Grace of Lord. Look upon Grace, have faith on Lord. Pray Grace for everything and not to any mere mortals! One must practice all these spiritual teachings in life) 23

वरनन करूं क्यों मेहेर की, जो बसत है माहें हक।
जाको निवाजें मेहेर में, ताए देत आप माफक।।२४

श्रीराजजीके अन्दर सर्वदा रहनेवाली इस कृपाका वर्णन ही कैसे करें ? जिसको वे अपनी कृपासे विभूषित कर देते हैं उसे वे उसकी क्षमताके अनुरूप सामर्थ्य प्रदान करते हैं.
How can I describe the Grace that resides in the heart of the Lord Supreme. On whom Lord considers to shower grace he makes him like Him. (All the power and splendor of the Lord is manifested in the soul.)
24

बात बडी है मेहेर की, जित मेहेर तित सब।
निमख ना छोडें नजर से, इन ऊपर कहा कहूूं अब।।२५

इस कृपाकी बात ही निराली है. जिस पर कृपा दृष्टि होती हो, उसे सब कुछ प्राप्त हो जाता है. वे उसे पल मात्रके लिए भी अपनी दृष्टिसे दूर नहीं करते. अब इससे अधिक क्या कहूँ ?
The great is the attribute of the grace of the beloved Love. Where there is grace there is everything. Even for a moment of time Lord does not keep the soul away from His sight. What can I say more about the grace now, asks Mahamati. 25

जहां आप तहां नजर, जहां नजर तहां मेहेर।
मेहेर बिना और जो कछू, सो सब लगे जेहेर।।२६

जिन ब्रह्मात्माओंके हृदयमें श्रीराजजी का वास है उन्हीं पर उनकी दृष्टि भी है. जहाँ पर उनकी दृष्टि होती है वहीं पर उनकी कृपा होती है. इसलिए ब्रह्मात्माओंको श्रीराजजीकी कृपाके अतिरिक्त सब कुछ विषतुल्य लगता है.
Where Lord is there is His sight, where there is His sight there bestows His grace. Anything devoid of grace seems like poison (something bitter, painful and that zaps life out from the body). 26

बात बडी है मेहेर की, मेहेर होए ना बिना अंकुर।
अंकुर सोई हक निसबती, माहें बसत तजल्ला नूर।।२7

श्रीराजजीकी कृपाकी महिमा अति विशेष है किन्तु सम्बन्धके बिना वह प्राप्त नहीं होती है. वस्तुतः ब्रह्मात्माओंका ही सम्बन्ध श्रीराजजीसे है, वे ही तेजोमय भूमि परमधाममें रहतीं हैं.
The attribute of grace is great but the grace cannot be where there is no sprouting (favorable condition- the willingness of the soul). The sprouting must be of spiritual nature the one which establishes the original relationship with the Lord and dwells in paramdham (the ultimate abode). The sprouting which establishes the relationship with the Master and within resides the ultimate abode (The ultimate abode is within the self where the Master resides)27

ज्यों मेहेर त्यों जोस है, ज्यों जोस त्यों हुकम।
मेहेर रेहेत नूर बल लिएं, तहां हक इसक इलम।।२८

जैसे ही श्रीराजजीकी कृपा प्राप्त होती है वैसे ही उनका जोश तथा उनकी आज्ञाा प्राप्त होती है. वस्तुतः यह कृपा तेजोमय शक्तिके साथ ही रहती है उसके साथ श्रीराजजीका प्रेम तथा ज्ञाान भी रहते हैं.
Where there is grace there is Lord's inspiration and where there is inspiration of the Lord, over there issues forth His will. In the grace that comes from the power of the Supreme there exist the ultimate love of/for the Lord and the absolute wisdom. 28

मीठा सुख मेहेर सागर, मेहेर में हक आराम।
मेहेर इसक हक अंग है, मेहेर इसक प्रेम काम।।२९

श्रीराजजीकी इस कृपा सागरमें मधुर सुख तथा शान्ति है. कृपा तथा प्रेम दोनों श्रीराजजीके ही अङ्ग हैं. कृपाके द्वारा धामधनीसे मिलनेकी उत्कण्ठा उत्पन्न होती है.
Sweet is the ocean of grace, in this grace there is deep relaxation (complete rest) of the Lord Supreme. The grace and love are parts of Lord’s body. And the Grace and Love are action of the Love. 29

काम बडे इन मेहेर के, ए मेहेर इन हक।
मेहेर होत जिन ऊपर, ताए देत आप माफक।।३०

धामधनीकी कृपाके कार्य अति महान हैं जिनके ऊपर यह कृपा होती है उसे वे अपने अनुरूप बना देते हैं.
The grace is extremely useful as this grace is in the Lord. The soul bestowed with the Grace gets united with Him. The soul and the Supreme become one and thus God makes the soul just like Himself. 30

मेहेरें खेल बनाइया, वास्ते मेहेर मोमन।
मेहेरें मिलावा हुआ, और मेहेर फिरस्तन।।३१

श्रीराजजीकी कृपासे ही ब्रह्मात्माओंेके लिए इस नश्वर जगतकी रचना हुईर् है एवं इसमें ब्रह्मात्माओं तथा ईश्वरीसृष्टिका अवतरण सुरताके रूपमें हुआ है.
The entire cosmos is the created by the grace of Lord to entertain the celestial souls to show the grace of the Lord. It’s the grace which will gather all the souls and the grace will direct the return journey to the original abode. 31

मेहेरें रसूल होए आइया, मेहेरें हक लिए फुरमान।
कुंजी ल्याए मेहेर की, करी मेहेरें हक पेहेचान।।३२

श्रीराजजीकी कृपासे ही उनका सन्देश लेकर रसुल मुहम्मद इस जगतमें आए हैं. सद्गुरु श्रीदेवचन्द्रजी महाराज भी उन्हींकी कृपासे तारतम ज्ञाानरूपी कुञ्जी लेकर आए और उन्होंने पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचान करवाई.
The Grace of Lord itself came as messenger (Rasool) and by the grace brought the message of the Lord. The knowledge that dispels all the darkness of the ignorance called tartam also derives from the Grace and it is this grace that reminds the soul of the Lord.
Shri Devchandraji brought the key to the grace and reminded the Grace of Lord. (pehchaan - whom one knew before but had forgotten, later when one meets again and remembers). He gave the understanding of the Grace of Lord. 32
(तीनों सूरत महंमद की, तिन जुदी जुदी करी पुकार ।
रूहें फिरस्ते लेवें सब साहेदियां, जो लिख भेजी परवरदिगार ।।
रसूल मुहम्मद द्वारा र्नििदष्ट श्रीश्यामाजीके तीनों स्वरूपोंने भिन्न-भिन्न प्रकारसे ज्ञाान प्रदान किया. इस प्रकार ब्रह्मात्माएँ तथा ईश्वरीसृष्टि परमात्मा द्वारा भेजे गए सन्देशको साक्षीके रूपमें ग्रहण करेंगीं.
All the three forms of Mohammad (Shyama) have spoken the words of wisdom message sent by Lord in three different ways and languages. All the celestial souls will benefit this wisdom that is send by beloved Lord Supreme.
बसरी मलकी और हकी, ए तीनों के जुदे खिताब ।
एक फुरमान ल्याई दूसरी कुंजी, तीसरी खोले किताब ।।८
श्रीश्यामाजीके तीनों स्वरूपों (बशरी, मलकी और हकी) को अलग-अलग प्रकारकी शोभा (उपाधियाँ) प्राप्त हुई है. उनमें-से एक परमात्माका सन्देश ले आए. दूसरेने तारतम ज्ञाानरूपी कुञ्जी प्रदान की तो तीसरे धर्मग्रन्थोंके गूढ. रहस्योंको स्पष्ट करते हैं.
The three different form Shri Shyama sent by the Lord Supreme are Basri, Malki, Hakki and they have three different merits. One brought the message of the Lord, and second brought the key to Paramdham and the third opened the mysteries of all the scriptures of the world.
लिख भेजी रमूजें इसारतें, दो गिरो तीन सूरत पर ।
दूसरा बका की न खोल सके, ए वाहेदत गुझ खबर ।।९
परमात्माने इन तीनों स्वरूपोंके द्वारा ब्रह्मसृष्टि एवं ईश्वरीसृष्टिके लिए परमधामके गूढ. रहस्योंको सङ्केतके रूपमें भेजा है. इन अद्वैत स्वरूपोंके अतिरिक्त अन्य कोई भी अखण्ड परमधामके एकात्मभावके गूढ. रहस्योंको स्पष्ट नहीं कर सकता है.
Lord sent the information about Himself and the abode in symbols for the two beings (Ishwari and Brahma) with three messengers (Basri, Malki, Hakki).
Lord sent three messengers to awaken the Brahma and Ishwari Shristi by explaining the underlying meanings of the signs and symbols in scriptures. None other can crack the deeper meanings about the Supreme Abode in the scriptures and the secrets about the Supreme.
prakaran 1 chhota kayamatnama
)

दै मेहेरें कुंजी इमाम को, तीनों महंमद सूरत।
मेहेरें दई हिकमत, करी मेहेरें जाहेर हकीकत।।३३

श्रीराजजीकी कृपासे ही सद्गुरु (श्री देवचन्द्रजी) ने मुझे तारतम ज्ञाानरूपी कुञ्जी प्रदान की जिससे मैंने रसूल मुहम्मद द्वारा र्नििदष्ट तीनों स्वरूपोंका रहस्य स्पष्ट किया. इसी कृपाने मुझे शक्ति दी जिसके कारण मैंने परमधामकी यथार्थता स्पष्ट कर दी.
It’s the grace which gave this key(tartam knowledge that dispels all darkness of ignorance) to Shri Prannathji by which I revealed all the three aspects of a prophet . It’s the grace which granted knowledge and made known the reality to the world. 33

सो फुरमान मेहेरें खोलिया, करी जाहेर मेहेरें आखरत।
मेहेरे समझे मोमन, करी मेहेरें जाहेर खिलवत।।३४

श्रीराजजीकी कृपाने ही कुरानके गूढ. रहस्य स्पष्ट किए एवं आत्मजागृतिका (अन्तिम) दिन भी प्रकट कर दिया. इसी कृपाके द्वारा ब्रह्मात्माओंने यह रहस्य समझा और मूलमिलावेके प्रेम सम्वादके गूढ. रहस्य भी स्पष्ट कर दिए.
The grace of Lord decoded the hidden meaning of the scriptures and it’s the grace which cleared what is holding on the end. The understanding to the celestial souls comes from the grace and by the Lord’s grace they know the entire world of dream creation for the sport. 34

ए मेहेर मोमिनों पर, एही खासल खास उमत।
दई मेहेरें भिस्त सबन को, सो मेहेर मोमिनों बरकत।।३५

वस्तुतः ब्रह्मात्माओं पर ही यह कृपा हुई है क्योंकि ये ही सर्वश्रेष्ठ समुदाय (खासलखास उमत) हैं. इसी कृपाके प्रतापसे उन्होंने जगतके जीवोंको मुक्तिस्थलका सुख प्रदान किया है.
The Supreme Lord sports with His divine souls(brahamashristi) and eternally showers grace on them. The entire cosmos is created in the dream of Akshar Brahma to show the world of illusion to the celestial souls. When the celestial souls graced the world by their presence, the supreme intelligence entered the cosmos which also descends in the mind of the willing souls. The souls which gain the understanding of the infinite actually become infinite and achieve the eternal abode Bhista in unlimited, imperishable, indivisible land of the Supreme. This world also has become divine because of the presence of the divine souls. 35

मेहेरें खेल देख्या मोमिनों, मेहेरें आए तलें कदम।
मेहेरें क्यामत करके, मेहेरें हंसके मिले खसम।।३६

श्रीराजजीकी कृपासे ही ब्रह्मात्माओंने यह खेल देखा है और वे इस खेलमें भी श्रीराजजीके चरणोंमें आ गइंर् हैं. अब इसी कृपाके द्वारा जागृत होकर वे हँसती हुई अपने धनीसे मिलेंगी.
Its by the grace of Lord the divine souls are enjoying this worldly drama, and by His grace they will wake up under his feet. The grace will end this worldly drama and it’s the grace which will unite the souls with the Lord. 36

मेहेर की बातें तो कहूं, जो मेहेर को होवे पार।
मेहेरें हक न्यामत सब मापी, मेहेरें मेहेर को नाहीं सुमार।।३7

यदि कृपाका कोई पारावार होता तो मैं उसकी चर्चा अवश्य करता. इस कृपाने सभी सम्पदाओंका निरूपण किया (मापा) किन्तु यह स्वयं अपना निरूपण नहीं कर सकता है.
I could speak more about the grace if only in the ocean of grace I could fathom to the other end.
By the grace of Lord the spiritual wealth of one can be measured but how can one measure the grace coming out of grace?37

जो मेहेर ठाढी रहे, तो मेहेर मापी जाए।
मेहेर पलमें बढे कोट गुनी, सो क्यों मेहेरें मेहेर मपाए।।३८

यदि यह कृपा स्थिर होती तो इसे मापा जा सकता किन्तु यह तो पलमात्रमें करोड.ों गुणा बढ. जाती है. इसलिए इसे कैसे मापा जाए ?
If the grace stays steady one can even try measuring it but it grows billion times in a moment then how can by the grace, the grace can be measured?38

मेहेरें दिल अरस किया, दिल मोमिन मेहेर सागर।
हक मेहेर ले बैठे दिलमें, देखो मोमिनों मेहेर कादर।।३९

श्रीराजजीकी कृपाने ही ब्रह्मात्माओंके हृदयको परमधाम बनाया है. अबउनके हृदयमें कृपाका अथाह सागर उमड.ने लगा. हे ब्रह्मात्माओ देखो ! तुम्हारे हृदयमें श्रीराजजी कृपापूर्वक विराजमान हो गए हैं. यह उनकी महती कृपाका परिणाम है.
Out of grace the heart of the celestial soul becomes the abode of the Supreme Arash,Paramdham. The heart of the celestial souls thus becomes the ocean of Grace as the Supreme Lord resides in this heart holding the grace. Behold O dear souls the kindness of the Lord’s grace.39

बात बडी है मेहेर की, हक के दिल का प्यार।
सो जाने दिल हक का, या मेहेर जाने मेहेर को सुमार।।४०

श्रीराजजीकी यह कृपा अति श्रेष्ठ है. यह तो उनके हृदयका प्रेम स्वरूप है. इसके महत्त्वको या उनका हृदय जानता है या उनकी यह कृपा ही जानती है.
Great is the Lord’s grace which flows from the heart of the Lord as Love. Only heart who can know the heart of Lord can understand the grace and from this grace one can know the abundance of the grace.40

जो एक वचन कहूं मेहेर का, ले मेहेर समझियो सोए।
अपार उमर अपार जुबांए, तो मेहेर को हिसाब न होए।।४१
श्रीराजजीकी कृपाका एक भी शब्द मुझसे कहा जा रहा है तो उसे तुम उसी कृपाके द्वारा समझनेका प्रयत्न करो. अन्यथा अपार समय तक असंख्य जिह्वासे इसका वर्णन करने लगें तो भी इसका निरूपण नहीं हो सकता.
When I utter a word about the grace, only who is blessed with the grace can understand. Even if I try to describe grace for infinite ages with infinite tongues, I cannot do so. There is no limit to the grace hence it cannot be accounted or measured or calculated, it infinite, boundless and unlimited. 41

निपट बडा सागर आठमा, ए मेहेर को नीके जान।
जो मेहेर होए तुझ ऊपर, तो मेहेरकी होए पेहेचान।।४२

श्रीराजजीकी कृपाका यह आठवाँ सागर वस्तुतः अति विशाल है. हे आत्मा! तुझ पर श्रीराजजीकी असीम कृपा हुई है जिससे तुझे इसकी पहचान हो गई.
This eighth ocean of grace is very vast, try to understand this deeply. If you are showered with grace you will know what grace is! (Words cannot explain, senses cannot feel, mind cannot conceive it only the soul can experience it). 42

सात सागर वरनन किए, सागर आठमा बिना हिसाब।
ए मेहेर को पार न आवहीं, जो कै कोट करूं किताब।।४३

सातों सागरोंका वर्णन हो गया किन्तु इस कृपा सागरका कोई पारावार नहीं है. इसका वर्णन करते हुए यदि करोड.ों ग्रन्थोंकी रचना भी करने लगें तथापि इसका कोई पार पाया नहीं जा सकेगा.
I have described the seven oceans but this eighth ocean of Grace has no bound, even if I write many millions of books about the grace it cannot be described as it is infinite.43

ए मेहेर मोमिन जानहीं, जिन ऊपर है मेहेर।
ताको हक की मेहेर बिना, और देखें सब जेहेर।।४४

इस कृपा सागरको तो ब्रह्मात्माएँ ही जान सकतीं हैं जिन पर यह कृपा हुई है. इसलिए ब्रह्मात्माओंको श्रीराजजीकी कृपाके अतिरिक्त अन्य सब कुछ विषतुल्य लगने लगता है.
These celestial souls will understand this grace on which it is bestowed upon. For them without the grace of Lord, everything seems like poison. (The celestial souls seeks only Grace of Lord everything else is like poison that separates the soul from supreme or takes the jeev in the cycle of birth-death hence poison))44

महामत कहे ऐ मोमिनो, ए मेहेर बडा सागर।
सो मेहेर हक कदमों तलंे, पीओ अमीरस हक नजर।।४५

महामति कहते हैं, हे ब्रह्मात्माओ ! श्रीराजजीकी कृपाका यह सागर अति महान है. अब इसी कृपाके द्वारा श्रीराजजीके चरणोंमें जागृत होकर उनकी दृष्टिके अमृत रसका पान करो.
O celestial souls says Mahamat(Greater Intelligence) Lord’s grace is a great ocean and is found under the feet of the Lord, drink the ambrosia of this grace flowing from the eyes of Lord.45
---------------Mehar sagar completed

Philosophy of Nijanand

Philosophy of Nijanand

Understanding the philosophy of Nijananda Sampradaya, aka Shri Krishna Pranami Dharma and Shri Prannath Vani.
सतगुरु ब्रह्मानंद है,सुत्र है अक्षर रुप |
सिखा सदा तीनसे परे ,चैतन्य चित जो अनुप ||१||
श्री महामति प्राणनाथ द्वारा प्रचलित निजानन्द सम्प्रदाय (श्री कृष्ण प्रणामी धर्म) की पध्दति अर्थात शाखा, सूत्र, सेवन, गोत्र, इष्ट , जाप, साधन, मन्त्र, पुरी, देवी, शाल, क्षेत्र, सुख, विलास, ऋषि, देव, तीर्थ, शास्त्र, ज्ञान, कुल, फल, द्वार एवं निवास आदि मान्यताओं क उद्घोष निम्नलिखित पद में व्यक्त किया है।
सतगुरु की साक्षी:
ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादि लक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वदा साक्षिरूपम्,
भावातीतं त्रिगुण रहितं सतगुरु तन्नमामि ॥
(स्कन्द्पुराणे गुरुगीतायम्)
अर्थ:= सच्चिदानंद ब्रह्म का आनन्द अन्ग, जिन्हे श्यामा कहा गया, वही सत्गुरु हैं। वे सर्वोत्तम ज्ञान एवं परम सुख के दाता हैं। वे द्वंद्व अर्थात माया, निरंजन निराकार एवं साकार ब्रह्मांड से परे हैं । आकाश जैसा उनका स्वभाव है, तत्वमसि में से असि पद ब्रह्म को कह गया है । तत पद ईश्वर से परे ब्रहं क लक्ष्य देते हैं। वह अचल रूप, सदा साक्षी स्वरूप हैं । स्वभाव अर्थात अध्यात्म अर्थात अक्षरब्रह्म से भी परे हैं । तीनों गुण सत-रज-तम के स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश से परे हैं । ऐसे सतगुरु को सप्रेम नमस्कार है । पुरुषोत्तम श्री कृष्ण जी की अर्धांगिनी आनन्द अंग श्री श्यामा जी ने भारत में श्री देवचन्द्र जी के रूप में अवतार लीया । यही सतगुरु स्वरूप निजानन्द स्वामी हैं ।

यदक्षरं परंब्रह्म तत्सूत्रमिति धार्येत् ।
सूचनात्सूत्रमित्याहु: सूत्रं नाम परं पदं ॥
तत्सूत्रं विदितं येन स विप्रो वेदपारग:
(ब्रह्मोपनिषद)
अर्थ: सच्चिदानंद ब्रह्म के सत अंग अक्षर ब्रह्म से परे परब्रह्म उत्तम पुरुश ही समस्त सृष्टि के सूत्रधारी हैं । इस मूल सूत्र से परिचित ही यथार्थ में वेदज्ञ ब्रह्मज्ञानी हैं । परमहंस उसी अविनाशी सूत्र को धारण करते हैं ।
शिखा की साक्षी यथा:-
शिखा ज्ञान्मयी यस्य उपवितमं च तन्मयम् ।
ब्राह्मण्यं सकलं तस्य इति ब्रह्म विदो विदु:॥
चिदेवपंचभूतानि चिदेवभुवनत्रयम ।
(ब्रह्मोपनिषद)
अक्षरब्रह्म जो समस्त सृष्टि क सूत्रधार है, शिखा उससे परे है । वह ज्ञानमयी चिद् अर्थात चेतन स्वरूप है और आनन्द में तन्मय है। इसे ही परब्रह्म कहा है। यही चेतन अक्षरब्रह्म में समाविष्ट है, जहाँ से वह पांचो देवों, पन्च्भूतों अर्थात् जल पृथ्वी, तेज, वायु और आकाश तत्व तथा तीनों लोकों के देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश इस प्रकार समग्र सृष्टि में व्यापक हो गया है । ( अक्षर ब्रह्म से वह चेतन, अक्षर ब्रह्म की आनन्दोल्लसित निद्रा अवस्था में उसके स्वप्न में व्यापक है। यही स्वप्न ब्रह्मांड है, जो स्वप्न टूटने पर मिथ्या हो जयेगा) अत: व चित्घन अक्षरातीत ब्रह्म ही वह शिखा है, जिसके परे अन्य कोई नहिं है

सेवन है पुरोषोत्तम,गोत्र चिदानंद जान |
परमकिशोरी ईस्ट है ,पतिब्रता साधन मान ||२||
सेवन की साक्षी यथा:
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूट्स्थोऽक्षर उच्यते ॥
उत्तम: पुरुष्स्त्वन्य: परमात्मेतुदैहृत:॥
यो लोक त्रयमाविष्य विभर्त्यव्यय ईश्वर:॥
(गीता अध्याय १५/१६,१७)
इस लोक में दो पुरुष हैं, एक क्षर पुरुष, दूसरा अक्षर पुरुष । क्षर पुरुष अर्थात पंचदेव,पंचभूत, एवं त्रिगुण सहित विराट स्वरूप नाश्वान होने से अनात्मा है। अविनाशी अक्षर पुरुष ही आत्मा है । उसकी प्रतिष्ठा, सत्त के रूप में स्थित जो पुरुष त्रैलोकी का पालन कर्ता है, उसे ईश्वर कहा जाता है । यह ईश्वर महाविष्णु है, जो क्षर पुरुष रूपी विराट वृक्ष (जगत) का मूल है ।
गोत्र की साक्षी यथा:
अनदिमादिचिद्रूपं चिदानंदंपरंविभु:।
वृन्दावनेश्वरं ध्यायेत् त्रिगुणस्यैककारणम् ॥
अर्थ:
जो अनादि है, चिद्घन स्वरूप है । सबका स्वामी है । ब्रह्मा विष्णु महेश आदि सबका कारन रूप है । उस वृन्दावननाथ श्री कृष्ण क मैं ध्यान करता हूँ।
इष्ट की साक्षी, यथा:
सिद्ध रूपाऽसिचारध्या सा श्यामा जीवनं मम ।
य: स्मृत्वाभावयति त्वां तैरहं भावित: सदा ॥
तत्र में वास्तवं रूपं यत्र यत्र भवदृशी।
ममेष्टं च ममात्मा त्वं राधैबाराध्यते मव ।
(पुराण सहिंता)
अर्थ:
स्वयंसिद्ध स्वरूपा राधा देवी। आप ही मेरी आराध्या हैं ।
हे श्यामा आप ही मेरे जीवन का जीव हैं । जो लोग भक्ति भावना से आपको याद करते हैं मैं उनका भी अनुग्रहित हूं । जहाँ भी मुझे आपके दर्शन होते हैं, मैं आपके ही अपने वास्तविक स्वरूप का दर्शन करता हूं। आप ही मेरी इष्ट हैं, आत्मा हैं । अत: मैं सदा आपकी आराधना करता हूं।

साधन की साक्षी -
नाहं वेदैर्न तपसा ने दानेन न चेज्यया।
भक्त्या त्वनन्यया लभ्य अहंमेव विधोऽर्जुन ॥
(गीता)
श्री कृष्ण जी कहते हैं ’हे अर्जुन ! मैं ने तो वेदपाठ के द्वारा, न तपस्या से, न दान से, और न ही यज्ञ करने से प्राप्त होता हूँ । मैं तो केवल अनन्य भक्ति से ही प्राप्त हो सकता हूँ । (इस प्रकार की अनन्य भक्ति पतिव्रता पत्नी के प्रति ही हुआ करती है । अत: परमात्मा को पति रूप में अनन्य भाव से प्रेम लक्षणा भक्ति द्वारा ही प्राप्त करना सम्भव है।)

श्री युगल किशोरको जाप है,मन्त्र तारतम सोहे |
ब्रह्मबिद्या देवी सही ,पुरी नौतन मम जोए ||३||

जाप की साक्षी -
राधया सह श्री कृष्णं युगलं सिंहासने स्थितम ।
पूर्वोक्तं रूपलावणं दिव्याभूषा श्रिगम्बरम् ॥
(बराह संहिता)
रूप और लावण्य से सम्पन्न तथा दिव्य वेष-भूषा से युक्त तथा सिंहासन पर विराजमान श्री राधा सहित श्री कृष्ण की किशोर जोडी का स्मरण करता हूँ ।

मंत्र ’तारतम’ की साक्षी, यथा:
स्वकृत विचित्रयोनिषु विशन्निव हेतुतया,
तरतमश्च कास्यनलवत् स्वकृतानुकृति: ।
अथ वितथस्वभूष्ववितथं तव धाम स मम् ।
विरज-धियोऽन्वयन्त्यभिविपण्यव एकरसम् ॥
(भागवत् १०-८७-१९)
अर्थ: हे भगवान्। आपने ही देवता, मनुष्य और पशु आदि विचित्र योनियाँ बनाई । सदा सर्वदा सब रूपों में आप ही हैं । इसलिये कारन रूप से प्रवेश न करने पर भी आप ऐसे जान पडते हैं, मानों उसमें प्रविष्ट हुए हों। साथ ही विभिन्न आकृतियों का अनुकरण कर्के कहीं उत्तम, तो कहीं अधम रूप से प्रतीत होते हैं, जैसे आग छोटी बडी लकडियों और कर्मों के अनुसार प्रचुर अथवा अल्प परिणाम में या उत्तम अधम रूप में प्रतीत होती है। संत पुरुष पारलौकिक कर्मों की निरासक्ति से उनके फलों से विरक्त हो जाते हैं, और अपनी निर्मल बुध्दि से सत्य-असत्य, अनात्मा को पहचान कर जगत के झूठे रूपों में नहीं फँसते । आपके सर्वत्र एक रस स्वभाव से स्थित सत्य स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं -

अठोतर सौ पख शाखा सही,शाला है गोलोक |
सतगुरु चरण को क्षेत्र है,जहाँ जाए सब शोक ||४||
सुख विलास माहे नित्य ब्रिन्दाबन,ऋषि महाबिष्णु है जोय |
बेद हमारो स्वसम है ,तिर्थ जमुनाजी सोहे ||५||
सास्त्र श्रवण श्री भागवत,बुद्ध जागृतिको ज्ञान |
कुल मूल हमारो आनन्द है,फल नित्य बिहार प्रमाण ||६||
दिव्य ब्रह्मपुर धाम है,घर अक्षरातित निवास |
निजानंद है सम्प्रदाय,उत्तर प्रश्न प्रकाश ||७||
धनि श्री देवचन्द्रजी निजानंद,तिन प्रकट करी सम्प्रदाय येह |
तिनथे हम येह लखी है ,हम द्वार पावे अब तेह||८||

Meaning in English!
सतगुरु ब्रह्मानंद है,सुत्र है अक्षर रुप |
satguru brahmanand hai, sutra hai akshar roop
The absolute bliss (bliss of brahm) is our Satguru, Our relation in the world is through Akshar the imperishable.
सिखा सदा तीनसे परे ,चैतन्य चित जो अनुप ||१||Shikha sada unse pare Chetan chid jo anoop
But the Supreme is beyond Akshar and is amazing absolute consciousness (chit : the inner mind)
सेवन है पुरोषोत्तम,गोत्र चिदानंद जान |Sevan hai purushottam, gotra chidananda jaan
We serve this Supreme ultimate being 'Purush' , and know our gotra(classification of beings) as blissful consciousness
परमकिशोरी ईस्ट है ,पतिब्रता साधन मान ||२||Param kishori isht hai , pativatra sadhan maan

The Supreme and eternal youthful Shyama is our destination(we are part of her) and surrendering like a virtuous devoted wife is our means (total surrender)
श्री युगल किशोरको जाप है,मन्त्र तारतम सोहे |Shri jugal kishor ko jaap hai, mantra tartam hai sohe

We recite(jaap) ultimate eternal youthful duo ( Shyama Shyam Radha Krishna) and Tartam mantra illumines magnificiantly
Tartam means sails out of darkness
ब्रह्मबिद्या देवी सही ,पुरी नौतन मम जोए ||३||Brahmavidya devi sahi puri nautan mam joye

The knowledge of Brahm(Supreme wisdom of ultimate truth and reality) is the goddess and at Navtanpuri it is founded and one must see
अठोतर सौ पख शाखा सही,शाला है गोलोक |Athotar sau pakh shakha sahi shala hai goulok
There are 108 paksh shakha (kinds of branches), Gaulok is the depot
सतगुरु चरण को क्षेत्र है,जहाँ जाए सब शोक ||४||Satguru charan ko kshetra hai jahan jai sab shok
The feet of Satguru(the true spiritual guru is actually supreme residing within) is our domain where all the sorrows disappear (find no peace anywhere else).

सुख विलास माहे नित्य ब्रिन्दाबन,ऋषि महाबिष्णु है जोय |Sukh vilas nitya vrindavan rishi mahavishnu hai joye
The bliss we find in eternal Vrindavan(this is not the perishable Vrindavan of this earth) which Akshar (rishi MahaVishnu) also witnessed.
(Akshar is aka MahaVishnu the Creator. He is termed rishi as he was a seeker who wanted to understand the pastime of the Supreme Self.
Adi Narayan The one who rests on water was created first and his mental creation is Lord Vishnu of Vaikunth, Brahma and Mahesh who further created the world. )
बेद हमारो स्वसम है ,तिर्थ जमुनाजी सोहे ||५|| Ved hamaro swasam hai teerath yamuna sohe
Our Ved is swasam (knowledge of the self the Nij= Swa) and our pilgrimage is splendourous Jamunaji
सास्त्र श्रवण श्री भागवत,बुद्ध जागृतिको ज्ञान |Shastra shravan shri Bhagavat budhi jagrat ko gyan
The scriptures we listen is Bhagavat which is wisdom of awakened mind
We believe listening to Shri Bhagawat will awaken the mind,
कुल मूल हमारो आनन्द है,फल नित्य बिहार प्रमाण ||६||Kul mool hamaro anand hai phal nitya vihar praman

Our ancestry origin is bliss and the fruit eternal pasttime our evidence
(we will realise that our source is eternal joy and experiencing the bounties and abundance bliss is our proof) Witnessing the eternal joy from the source of the self which is our original state and we are the descendent of this bliss and experience is our direct proof.
दिव्य ब्रह्मपुर धाम है,घर अक्षरातीत निवास |Divya Brahm pur dham hai ghar aksharateet nivas
Divine full with splendour of Supreme- Brahm is our abode which is home of our soul Aksharateet (beyond Akshar)
निजानंद है सम्प्रदाय,उत्तर प्रश्न प्रकाश ||७||Nijanand hai samprada ye uttar prashna prakash

Nijanand The bliss of the soul is our tradition the enlightening is the answer of the query
धनि श्री देवचन्द्रजी निजानंद,तिन प्रकट करी सम्प्रदाय येह |dhani devchandraji nijanand jin prakat kari samprada yeh
Master Shri Devachandraki founded this tradition of Nijanand
तिनथे हम येह लखी है ,हम द्वार पावे अब तेह||८||tin thein ham yeh lakhi ham dvar pavain ab teh
From him we are able to propagate these words and thus now we attain the doors of Abode.
Know the Master!

घर श्री धाम अने श्रीक्रस्न, ए फल सार तणो तारतम।
तारतमे अजवालुं अति थाए, आसंका नव रहे मन मांहे।।२३

हमारा घर अखण्ड परमधाम तथा हमारे धनी श्रीकृष्ण यही तारतमका सार फल है. इस तारतम ज्ञाान द्वारा अत्यन्त प्रकाश फैलता है. जिससे मनमें किसी भी प्रकारकी शंका नहीं रहती है.
Our abode is Paramdham(akhand aksharateet) and Shree Krishna, this the fruit of Tartam sagar(dispeller of the ignorance brought by Satguru Devachandraji). The light of this will be so great that all the confusion from mind will be removed says Mahamati Prannathji.

The revelations of the Supreme Truth.
Nij the Self : name of the Self is Shri Krishna which has no beginning and is eternal and is from Aksharateet (imperishable, unbound, limitless, beyond creator the Akshar).
Shri Krishna is absolute Supreme (PurnBrahm) He is paramanand ultimate Bliss, is akhand indivisible, and Sat- Truth. He is the soverign ruler of the entire creation(universes) and also rules our heart hence is called Shri Raaj. He is extremely loving and adorable hence called Vallabh. He is our beloved hence Piyu. He is master (groom) of Shyama and He is the truth. He is the one who sustains the Brahmshristis hence Bhartaar!
The eternal,indivisible, permanent abode of Shri Krishna is called Paramdham (the ultimate abode) it is beyond the Creator Akshar hence called Aksharateet, it is situated in the heart of the soul (Nij-dham).
Thus the name of the Self (nijnaam) is Shri Krishna from Eternal and beyond imperishable creator Akshar , this is what is now revealed (jaher) along with the splendour of our original abode(vatan). The purnaBrahm (Whole Truth)reveals the name of the Self as Shri Krishna anadi(neither has beginning nor the end) and is from Aksharateet (beyond the creation, creator and is imperishable).

The groom(var) Lord of Shyama is the truth and is the source of everlasting bliss and hence grants the eternal (sada) bliss. The Shyamavar satya hain (Shyama's master is the truth) where as Shyama is the aanand bliss essence. Akshar the Creator of the universe is also part of truth aspect of Supreme. The Supreme Lord Shri Krishna is the source of all the consciousness (chetan). The eternal absolute Supreme Brahm of Aksharateet (beyond Akshar) , the epitomy of Love, dwells in the heart of the soul along with splendour of abode of the self is revealed as Shri Krishna to Sundarbai(celestial soul) and Shyama(consort of Shyam Shri Krishna).
This is a request of my Vallabha(is extremely lovable, adorable ) through this angana Indravati (Mahamati Prannath) -one who is one with the Lord or part of the Lord (ang means the complete being of the soul) to kindly accept these words in the heart.
That the words of my beloved Lord is not of this world, what is that is beyond formlessness(or black hole-the endless shunya niraakar niranjan which surrounds the entire universes) , these words are beyond that too.
This is generated from inspiration of Lord in my soul, please my dear sundarsathji think over it. These words of truth we must churn in our mind and get the saar(the real essence). We must contemplate all the time. In this "saar", there are lots and lots of true happiness and bliss, so this is what I have resolved (determined) to accept it and when I grant this to my other brahmshrishti I will consider myself as true consort of the Lord (angana naar). When this bliss comes in us all the bikaars are dissolved and we will benefit the joy of Aksharateet abode (The abode is indivisible, whole and real)and the presence of Supreme Master within!
Nij the self name Shri Krishna , aanand Shri Shyama ang : part of the Shyama the celestial souls Brahmatma.
Union with Shri Krishna and Shyama is Nijanand.
Those who accept it with full faith and follow will gain the fruit of Tartam that is Nijanand.
Thus name of our faith is Nijanand (Bliss of the Self name Shri Krishna)- aka Shri Krishna Pranami (one who surrenders to Shri Krishna).
Nijanand faith was founded 350 years ago by Satguru (one who eliminates darkness of ignorance by the light of truth) Shri Master Devachandraji, Gujarat, India and propagated by his disciple Shri Meharaj Thakkar who after enlightenment or united with the Supreme, he received the awakened cosmic intelligence (mind of the creator Akshar), Inspiration of the Lord (Gabriel), the bliss attribute of the Supreme Shyama, Will of the Lord Supreme and the wisdom of original abode(Tartam wisdom of abode of the Supreme) and the better known as Mahamati Prannath (Greater Intelligence, Lord of the soul).
The above gurus read scriptures of all religions (Ved, Upanishad,Bhagavat, Pooran of Hindus, Toret of Jews, Bible of Christians, Quran of Islam religion). They found the word of God differed in languages but not in the core truth. The people of all the religions are following rituals,traditions, customs, other habits and external clothes, food etcs and they are fighting among themselves over false perception of truth.
There is fighting in the name of God too because the people following the holy books have not got the understanding of the message of God. Torah or Toret is written in code, Bible is spoken in parables, Ved and Bhagavat also has maintained the truth hidden amongst the complicated verses. There is external differences and internal confusion(ego consciousness, lack God consciousness) thus there is chaos in the world. We the followers of Nijanand do not involve ourselves in any religious conflicts.
"By laying stress on the comparative study of the Holy Books of all the religions, Mahamati Prannath explained to the people that the fitting answer to the bigotry and religious fanaticism is the proper understanding of the true spirit of religion and the religious war. If God is one then He is prudent enough to send His message to all his people of different countries and at different times, then how can his messages be a cause of mutual conflicts and wars?" Kateb Vani (Semitic Wisdom) Dr. B. P .Bajpai
The first step to end this mad conflict is by understanding the messages of scriptures (word of God) through the light of Tartam wisdom and then experience the bliss of the self (the bliss is within) and when we experience this we will be able to make the whole world blissful and happy. But none are able to do so no matter how much people are trying.
All the religions are waiting for the last prophet who will do the awakening. Christians are waiting for second coming of Christ, Jews are waiting for messiah, Muslims for their Imam Mehedi and hindus Budh nishkalank avtaar (the intelligence which is untarnished and pure). Our founder gurus(Satguru and Mahamati Prannath) were the last prophets that world is waiting for, they have given all the signs, symbols, prophecies, indication of time of their arrival and proofs through all the scriptures.

Hence we have holy book Tartam sagar (it is ocean which eradicates darkness of ignorance and saves the soul) aka Kuljam Swaroop which is a absolute knowledge of the Supreme which reveals the secret of all above mentioned scriptures in layman terms of those days (350 years earlier hindustani language). Tartam wisdom is also scientific knowledge. (One can experience when one follows it).
Since there is revelation of so many scriptures, guidance by othe prophets and additional information, the book contains 18758 verses.
The truth about the world and 7 upper realms and 6 lower realms (14 planes of existence), the Creator, the purpose of creation is given.

Our faith does not believe in conversion as God is one and only one, one just needs raise one's consciousness and know who God is. God has name which is very loving and attractive and it is Shri Krishna - Shyam but He has infinite names too as there are infinite universes with infinite languages but the scriptures describing about the flood point towards Shri Krishna. God has form. Man is made in His image. God also has abode (imperishable,eternal, not bound by time,unchanging,conscious, blissful).
The tartam wisdom includes the purpose of creation and the core value(the truth) one must follow. This world is play of the God to entertain the divine souls. The souls are lost in the world and thus prophets came to gather the lost sheeps. Krishna is the name which is the core of the soul, It is attracting force of all the souls.
Krishna is also popular as Vishnu's avtaar but the Supreme Lord that is eternal and of imperishable abode is not the same.
There are three types of souls jeev (aam in islam)- natural, ishwari (khas in islam)- divine angels, brahm (khasal khas in Islam) celestial (chosen ones or meek ones who shall inherit the kingdom of heaven).

The three angels Michael is Brahma who is incharge of creation-birth who is also incharge of maintaining the words of God, angel Azazeel is Vishnu preservation and angel Israel is incharge of termination-death is Mahesh. Gabriel is the inspirational power of Lord 'Josh' who whispers the message of God to prophets. Israfil who blows the trumpet when the last prophet come is Budh-Cosmic Intelligence. The Satan Lucifer the fallen angel , Shaitan Iblish the mind of angel Azazeel and the cursed Narad the mind(mann) of Vishnu are not three but one. It is nothing but the desiring mind (mann) in different languages luring human beings away from the God. The natural being the Jeev following desires of mind eats the fruit of action which is forbidden and shares it with Aatam the witnesser within which also partly enjoys it and forgets it original divine self and thus falls from the bliss of the self(Nijanand) to world of misery. There is more in this topic.
Our goal is soul realization by raising our consciousness that we are aatma hence how to do it is given in plain spoken language. One has to practice what one learns to experience the truth. Path to God is only one that is love and it is practiced first by loving God's creation animals included thus we practice compassion towards animals and birds and eat vegetarian food and practice non-violence (speech, mind and action). Any substance that makes us less aware, makes us unconscious, creates habit which brings discomfort in its absence is forbidden(drugs, alchohol,tobacco etcs). We are suppose to bring more awareness of the self, be more conscious in our living(watch our speech, thoughts and actions- three must be correlated). All the hypocrisy, external rituals, celebration of festivals , wearing saintly dress, growing beard/hair or cutting it short all the outwardly show can fool some people but God cannot be deceived by such activities. We must not work to create an impression or an image but be true to ourselves.

We must know ourselves first and then we can know God, goes our first principle. The soul must be awakened and it cannot until we understand our mind, its pursuits,its desires and its activities. Thus understanding of the mind, the human pursuit and the world is given. You can cherish the way of the world or the kingdom of God. The teaching of Mahamati's wisdom is to surrender the ego and accept Lord and witness the world consciously and become soul conscious thus waking our soul from the deep slumber. When the soul awakens while present in the perishable body, that is the day of awakening, it is the soul waking up from the grave. Once this happens, the soul will witness the Supreme within along with abode, the soul will unite with super soul and will know the consequences of one's action (judgement). The infinite is handed over us to shine in the darkness, wake up from the slumber and thus ending the dream world and entering the supreme abode and attaining the Nijanand the bliss of the self within. Once we have achieved this everlasting bliss, united with the Supreme Lord then we experience the compassion for whole humanity and thus we will work to end the human misery.
The temples built by our original guru is our pilgrimage (Shri Navtanpuri Dham, Jamnagar,Gujarat, India, Mahamangalpuri Dham, Surat, Gujarat, India, Padmawatipuri Dham, Panna, India)
We have many temples and assemblies for the followers to meet and worship in Nepal, Bhutan, India, and two in USA.

Our current spiritual guru is Rev. Krishnamani Maharaj who will visit the temple at Tennessee on 4th July weekend.
Though we have temples but the Supreme God resides in the heart of the soul. One must find the Lord within, the religious center and spiritual guru is to help us but we must help ourselves first.The gurus work to enlighten the soul within us and making us equal to them. Guru is a candle which is already lit and it lights all the other unlit candles, after enlightening all are equal.
This is the same faith followed by Mahatma Gandhi's mother Putalibai which gave him the essence of unity in all religion.
This is a small and brief introduction of our faith.

श्री किरन्तन

श्री किरन्तन

राग श्री मारू

पेहेले आप पेहेचानो रे साधो, पेहेले आप पेहेचानो ।
बिना आप चीन्हें पार ब्रह्मको, कौन कहे मैं जानो।।१

महामति कहते हैं, हे साधुजन ! सर्व प्रथम स्वयं (आत्मा) को पहचानो, क्योंकि स्वयंको पहचाने बिना कौन कह सकता है कि मैंने परब्रह्म परमात्माको पहचान लिया है.

पीछे ढूंढो घर आपनों, तब कौन ठौर ठेहेरानो।
जब लग घर पावत नहीं अपनों, तोलों भटकत फिरत भरमानो ।।२

यदि शरीर छोड.नेके पश्चात् अपने (आत्माके) मूल घरको ढूँढ.ने लगोगे, तब किस स्थानमें ठहर पाओगे ? क्योंकि जब तक आत्मा अपने मूल घरको प्राप्त नहीं कर लेती, तब तक भ्रममें पड.कर भवसागरमें ही भटकती रहती है.

पांच तत्व मिल मोहोल रच्यो है, सो अंत्रीख क्यों अटकानो ।
याके आसपास अटकाव नहीं, तुम जागके संसे भांनो ।। ३

(पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन) पाँचों तत्त्वोंको मिलाकर इस नश्वर ब्रह्माण्डरूपी महलकी रचना की गई है. यह अन्तरिक्षमें कैसे अटक रहा है ? इसके आसपास या ऊपर नीचे कोई सहारा तक नहीं है. हे सज्जन वृन्द ! स्वयं जागृत होकर इस संशयका निवारण करो.

नींद उडाए जब चीन्होंगे आपको, तब जानोगे मोहोल यों रचानो ।
तब आपै घर पाओगे अपनों, देखोगे अलख लखानो ।।४

हे साधुजन ! अज्ञाानरूपी निद्राको दूर कर जब स्वयंको पहचानोगे, तब ज्ञाात होगा कि इस ब्रह्माण्डरूपी महलकी रचना किस प्रकार हुई है ? तब तुम्हें स्वयं अपने मूल घर परमधामकी प्राप्ति (अनुभूति) हो जाएगी तथा पूर्णब्रह्म परमात्मा श्रीराजजीके दर्शन भी होंगे.

बोले चाले पर कोई न पेहेचाने, परखत नहीं परखानो ।
महामत कहें माहें पार खोजोगे, तब जाए आप ओलखानो ।।५

अनेक लोगोंने परमात्माके विषयमें ज्ञाानोपदेश दिया तथा अनेक लोगोंने परमात्माकी प्राप्तिके लिए साधनाएँ भी कीं किन्तु किसीने भी उन्हें नहीं पहचाना. इस प्रकार प्रयत्न करनेपर भी पहचान योग्य परब्रह्म परमात्मा पहचाने नहीं गए. महामति कहते हैं, अन्तर्मुख होकर जब परम तत्त्वको ढूँढ.ोगे, तब आत्मा और परमात्माकी स्वतः पहचान हो जाएगी.


प्रकरण १ चौपाई ५
राग श्री मारू

बिंदमें सिंध समाया रे साधो, बिंदमें सिंध समाया ।
त्रिगुन सरूप खोजत भए विसमए, पर अलख न जाए लखाया ।।१

हे साधुजन ! इस बिन्दुरूपी झूठी मायामें विराट शक्तिशाली सिन्धुरूपी परमात्मा समाया हुआ प्रतीत होता है. सत रज और तम इन तीनों गुणोंके अधिष्ठाता देवता-ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी सिन्धुरूपी परमात्माको खोजते-खोजते चकित हो गए हैं तथापि वे अलख परमात्मा दृष्टिगोचर नहीं हुए.

वेद अगम केहे उलटे पीछे, नेत नेत कर गाया।
खबर न परी बिंद उपज्या कहां थें, ताथें नाम निगम धराया ।।२

वेद भी परब्रह्मकी खोज करनेके उपरान्त उसे अगम्य (पहुँचसे परे) कहकर 'नेति नेति' (अन्त नहीं, अन्त नहीं) कहते हुए उलटे पीछे लौट गये. यह बिन्दुरूपी माया कहाँसे उत्पन्न हुई है, इसकी जानकारी न होनेसे उसका नाम निगम पड.ा.

असत मंडलमें सब कोई भूल्या, पर अखंड किने न बताया ।
नींदका खेल खेलत सब नींदमें, जागके किने न देखाया ।।३

इस असत्य मण्डल (नश्वर ब्रह्माण्ड अर्थात् भवसागर) में सभी लोग अपना मार्ग भूल गए हैं. अखण्ड अविनाशी परमात्माकी बात कोई नहीं करता. यह संसार स्वप्नका खेल है और सभी लोग अज्ञाानकी निद्रामें यहाँ विचरण कर रहे हैं, स्वयं जागृत होकर परमात्माके विषयमें किसीने भी मार्गदर्शन नहीं किया.


सुपनकी सृस्टि वैराट सुपनका, झूठे सांच ढंपाया ।
असत आपे सो क्यों सत को पेखे, इन पर पेड न पाया ।।४

यह विराट ब्रह्माण्ड स्वप्नका बना हुआ है और इसकी समग्र सृष्टि भी स्वप्नकी ही है. इसलिए असत्यके विस्तारसे सत्य ढक गया है. मायावी जीव स्वयं स्वप्नके होनेके कारण सत्य परमात्माको कैसे देख सकते ? इस प्रकार उन्हें परम तत्त्व भी नहीं मिल सका.

खोजी खोजें बाहेर भीतर, ओ अंतर बैठा आप।
सत सुपने को पारथें पेखे, पर सुपना न देखे साख्यात ।।५

परमात्माको ढूँढ.नेवाले लोग इस विश्वमें पिण्ड-शरीरमें अथवा ब्रह्माण्ड (बाहर) में परमात्माको ढूँढ.ते हैं, परन्तु स्वयं परमात्मा तो आत्म स्वरूपसे अन्तरमें विराजमान हैं. सत्य आत्माएँ (ब्रह्मात्माएँ) पार परमधाममें रहकर इस स्वप्नरूपी झूठे संसारको देख रही हैं, परन्तु स्वप्नके जीव उन्हें देख नहीं पाते.

भरमकी बाजी रची विस्तारी, भरमसों भरम भरमाना ।
साध सोई तुम खोजो रे साधो, जिनका पार पयाना ।।६

यह संसारका खेल मात्र भ्रमका विस्तार है. (यहाँ पर) भ्रमके जीव इसी भ्रमरूपी खेलमें भ्रमित हो रहे हैं. इसलिए हे साधुजन ! ऐसे तत्त्वदर्शी सद्गुरुकी खोज करो, जिसने भ्रान्तियोंसे मुक्त होकर पारका मार्ग प्राप्त किया हो.


मृगजलसों जो त्रिषा भाजे, तो गुरु बिना जीव पार पावे ।
अनेक उपाए करे जो कोई, तो बिंदका बिंदमें समावे ।।7

यदि मृगजल द्वारा तृषा शान्त हो सकती हो, तो सद्गुरुके ज्ञाानके बिना भी जीव पार पा सकता है (किन्तु यह तो सम्भव नहीं है). इसलिए कोई अनेक प्रयत्न ही क्यों न कर ले किन्तु बिन्दुरूप मायाके जीव मायामें ही समाहित हो जाते हैं.

देत देखाई बाहेर भीतर, ना भीतर बाहेर भी नाहीं।
गुरु प्रसादे अंतर पेख्या, सो सोभा वरनी न जाई।।८

ब्रह्माण्डमें चौदह लोकोंके अन्दर एवं बाहर जितने भी दृश्यमान पदार्थ हैं, उनमें परमात्मा नहीं है (मात्र परमात्माकी सत्ता है). सद्गुरुकी असीम कृपा द्वारा अन्तरमें उनके दर्शन हुए उनकी यह शोभा अवर्णनीय है.

सतगुरु सोई मिले जब सांचा, तब सिंध बिंद परचावे ।
प्रगट प्रकास करे पारब्रह्मसों, तब बिंद अनेक उडावे ।।९

ऐसे सच्चे सद्गुरु जब मिल जाते हैं, तब वे सिन्धुरूपी पूर्णब्रह्म परमात्मा और बिन्दुरूपी झूठी मायाकी पहचान करा देते हैं और पूर्णब्रह्म परमात्मा का साक्षात् अनुभव (दर्शन) करवाकर बिन्दुरूपी मायाके अनेक प्रपञ्चोंको उड.ा देते हैं.

महामत कहें बिंद बैठे ही उडया, पाया सागर सुख सिंध ।
अक्षरातीत अखंड घर पाया, ए निध पूरव सनमंध।।१०

महामति कहते हैं, सद्गुरुकी कृपा द्वारा अनायास (सहज) ही बिन्दुरूपी झूठी मायाके प्रपञ्च दूर हो गए हैं और सिन्धुरूप पूर्णब्रह्म परमात्माका अपार सुख प्राप्त हो गया. पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीतके अखण्ड घर-परमधामकी प्राप्ति हो गई. यह अखण्ड निधि पूर्व सम्बन्धके कारण ही प्राप्त हुई.

प्रकरण २ चौपाई १५
राग केदारो

साधो भाई चीन्हो, सबद कोई चीन्हो।
ऐसो उतम आकार तोको दीन्हों, जिन प्रगट प्रकास जो किन्हों ।।१

हे साधुजन ! परमात्माकी पहचान करानेवाले शास्त्र वचनोंके रहस्यको समझो (इन शब्दोंका ज्ञाान प्राप्त कर अपनी अन्तरात्माको पहचानो). धामधनीने तुम्हें ऐसा श्रेष्ठ शरीर (मनुष्य देह) दिया है, जिसके द्वारा परमात्माका साक्षात् अनुभव किया जा सकता है.
O seeker! Understand the Reality enmeshed in the words of scriptures. You have got a human form which is the greatest amongst other living beings in which you can see the one who brought the light for us (you can see the Supreme)

मानषे देह अखंड फल पाइए, सो क्यों पाएके वृथा गमाइए।
ए तो अधखिनको अवसर, सो गमावत मांझ नींदर।।२

मनुष्य शरीरके द्वारा ही परब्रह्म परमात्मारूपी अखण्ड फल प्राप्त हो सकता है. ऐसे महामूल्यवान् मानव शरीरको प्राप्त कर उसे क्यों व्यर्थ गँवा रहे हो? यह अवसर तो आधे क्षणके लिए प्राप्त हुआ है, इसे अज्ञाानरूपी निद्रामें पड.कर व्यर्थ गँवा रहे हो.
The human body can achieve the indivisible, imperishable, eternal Supreme Godhead; after receiving such valuable form why do you let it waste for nothing. The opportunity granted at this moment which lasts only a split of a second, why do you waste in sleeping? Wake up Sundarsath and make best use of your time, achieve the love of Lord in this precious birth as a human being, this opportunity is only for few moments.

सबदा कहे प्रगट परवान, सबदा सतगुरसों करावे पेहेचान ।
सतगुरु सोई जो अलख लखावे, अलख लखे बिन आग न जावे ।।३

धर्मशास्त्रोंके (शब्दोंके) द्वारा यथार्थ ज्ञाान प्रकट होता है और वे धर्मशास्त्र ही सद्गुरुकी पहचान भी कराते हैं. जो पूर्णब्रह्म परमात्माकी वास्तविक परख करवाते हैं वे ही सद्गुरु कहलाते हैं. क्योंकि परमात्माकी पहचान हुए बिना अन्तर्दाह (त्रय ताप) नहीं मिटती है.
The words in the Scriptures say can describe Reality and it also guides you how to recognize the true guru. The true guru (satguru) is the one who can reveal the Supreme and without knowing the Supreme Truth the fire burning as the desire can never be extinguished.

सास्त्र ले चले सतगुरु सोई, वानी सकलको एक अरथ होई ।
सब स्यानांेकी एक मत पाई, पर अजान देखे रे जुदाई ।।४

धर्मग्रन्थोंके प्रमाणभूत सिद्धान्तोंके अनुरूप चलने वाले ही सद्गुरु हो सकते हैं. सब धर्मग्रन्थोंकी वाणी समान अर्थ धारण करती है (अर्थात् एक ही पूर्णब्रह्म परमात्माकी ओर संकेत करती है). वास्तवमें सब ज्ञाानीजनोंका अभिप्राय भी एक है, किन्तु धर्मग्रन्थोंके सिद्धान्तोंको न समझने वाले अज्ञाानीजन उनमें भिन्नता देखते हैं.
Remember the true Guru is the one who approves all the scriptures as all the teaching of all the scriptures of all the religions has one and one reality. And all the wise also hold one and only one truth it is the ignorant who see the differences and create conflicts.
Mahamti-Prannathji finds no conflict in any shastra scriptures, holy Quran and Bible. He said they all point to one Lord but they have hidden the Reality so only a true seeker could see. He tried hard to clarify the mysticism in all the shastras but look at Dunis! They have divided tartamsagar into Meherraj says, Indrawati says and Mahamati says and continue their conflict. What does Kuljam Swaroop Mean?

सास्त्रोंमें सबे सुध पाइए, पर सतगुरु बिना क्यों लखाइए ।
सब सास्त्र सबद सीधा कहे, पर ज्यों मेर तिनके आडे रहे ।।५

शास्त्रोंमें परमात्माकी सभी सुधि मिलती है, किन्तु बिना सद्गुरुके उसे किस प्रकार समझा जाए ? सर्वशास्त्रमें परमतत्त्वको समझनेके लिए सीधी और सरल बातें कही हैं परन्तु जिस प्रकार आँखके सामने केवल एक तिनका आ जानेसे पर्वत ढँक जाता है, उसी प्रकार मनमें व्याप्त भ्रान्तियोंसे सत्यज्ञाान छिप जाता है.
The scriptures have all the wisdom to understand the Reality the Supreme Truth but without a true guru how can one understand it. The words of scriptures are actually very straightforward, simple and easy to understand but like a tiny particle in the eyes can prevent a person to see even a huge mountain ahead so does the confusion and wrong perceptions hides the truth.

सो तिनका मिटे सतगुरुके संग, तब पारब्रह्म प्रकासे अखंड ।
सतगुरुजीके चरन पसाए, सबदों बडी मत समझाए।।६

सद्गुरुके समागम द्वारा जब यह भ्रान्तिरूपी तिनका दूर होगा, तभी परब्रह्मका अखण्ड प्रकाश दिखाई देगा. सद्गुरुके चरणोंके प्रताप (कृपा) से ही शास्त्रोंके शब्दोंमें निहित गूढ. रहस्य समझा जा सकता है.
The foreign particle of the eye i.e. the doubts, the confusion in the mind can be easily removed by a true guru and the Absolute, the Whole one that is not divisible, Supreme Lord of the beyond (paar Brahma) will shine upon you. Only with the grace of true Guru the hidden meaning of the words about Reality in scriptures will be revealed to your mind.

तब खोज सबदको लीजे तत्व, तौल देखिए बडी केही मत ।
जासों पाइए प्रानको आधार, सो क्यों सोए गमावे रे गमार ।। 7

इसलिए हे सज्जन वृन्द ! शास्त्रोंमें र्नििदष्ट वचनोंका मन्थन कर उनके तत्त्वज्ञाानको ग्रहण करो. विवेक पूर्वक तुलनात्मक दृष्टिसे देखो कि बड.ी बुद्धि (महामति) कौन हैं ? जिस मानव देह द्वारा प्राणाधार परमात्माकी प्राप्ति होती है, उसे अज्ञाान निद्रामें सोकर मूढ.ोंकी भाँति क्यों गँवा रहे हो ?
When you go through the scriptures measure with your wise mind(not ego) which one is better and the one that leads you to the Supreme and accept that and do not waste your precious opportunity sleeping like an idle idiot.

यामें बडी मतको लीजे सार, सतगुरु याहीं देखावें पार ।
इतहीं वैकुंठ इतहीं सुंन, इतहीं प्रगट पूरन पारब्रह्म।।८

ऐसेमें विवेक बुद्धि द्वारा बड.ी मति वालोंके ज्ञाानका सार ग्रहण करो. सद्गुरु यहीं पर (इसी संसारमें) पूर्णब्रह्म परमात्माके धामका साक्षात्कार कराते हैं. आत्म-जागृति होने पर यहीं वैकुण्ठ तथा शून्यका अनुभव होगा और यहीं पर पूर्णब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार भी होगा.
Derive the truth out of the wise words. Take the the advice of wise mind and the true Guru who will be able to show you the beyond living in this world. And you will be able to see the Baikunth, Vacuum(emptiness) and the Supreme shall appear before you over here. (Sorry I could not do justice to Mahamati Prannath ji’s wani)

ए वानी गरजत मांझ संसार, खोजी खोज मिटावे अंधार।
मूढमति न जाने विचार, महामत कहे पुकार पुकार।।९

यह तारतम वाणी इस संसारमें गर्जना कर रही है. खोजनेवाले जिज्ञाासु ही खोजकर अपने हृदयके अज्ञाानरूप अन्धकारको दूर करते हैं. इसलिए महामति प्राणनाथजी पुकार-पुकार कर इसका रहस्य स्पष्ट कर रहे हैं. मूढ लोग इसका मूल्य न समझनेके कारण इस विषयमें विचार नहीं करते.