विरह को प्रकास-राग आसावरी
एह बात मैं तो कहूं, जो केहेने की होए।
पर ए खसमें रीझ के, दया करी अति मोहे।।१
परब्रह्म परमात्माके मिलनकी बात यदि इन सीमित शब्दों द्वारा कहने योग्य होती तो मैं अवश्य कहता परन्तु सद्गुरु प्रसन्न होकर दया पूर्वक यह सब कहलवा रहे हैं.
सुनियो बानी सोहागनी, दीदार दिया पिया जब।
अंदर परदा उड गया, हुआ उजाला सब।।२
हे सुहागिनी ब्रह्मात्माओ ! यह बात ध्यान पूर्वक सुनो. जब मुझे धनीने दर्शन दिए तबसे मेरे हृदयसे अज्ञाानका पर्दा हट गया और हृदयमें ज्ञाानका प्रकाश छा गया.
पिया जो पार के पार हैं, तिन खुद खोले द्वार।
पार दरवाजे तब देखे, जब खोल देखाया पार।।३
जो अक्षरसे भी परे अक्षरातीत परमात्मा हैं उन्होंने ही स्वयं आकर परमधामके द्वार खोल दिए. पारके द्वार मुझे तब प्रत्यक्ष हुए जब उन्होंने इस प्रकार खोलकर दिखाए.
कर पकर बैठाए के, आवेस दियो मोहे अंग।
ता दिन थें पसरी दया, पल पल चढते रंग।।४
मेरे सद्गुरु धनीने मेरा हाथ पकड. कर मुझे अपने पास बैठाया और अपना आवेश प्रदान किया. उस दिनसे उनकी अनुकम्पा दिन प्रतिदिन बढ.ने लगी और पल-पल प्रेमका रङ्ग चढ.ता गया.
हुई पेहेचान पीउसों, तब कह्यो महामति नाम।
अब मैं हुई जाहेर, देख्या वतन श्री धाम।।५
जब मेरी पहचान सद्गुरु धनीसे हुई तब उन्होंने मुझे महामतिकी संज्ञाा प्रदान की. अब मैं अपने धनीकी अङ्गनाके रूपमें प्रकट हो गई और मुझे अखण्ड परमधामका साक्षात्कार भी हो गया.
बात कही सब वतन की, सो निरखे मैं निसान।
प्रकास पूरन द्रढ हुआ, उड गया उनमान।।६
मेरे सद्गुरुने मुझे परमधामकी सारी बातें बताईं. मैंने वहाँके एक-एक चिह्न (निशान) को देखा. तारतम ज्ञाानका पूर्ण प्रकाश हृदयमें उतर आनेसे ब्रह्म विषयक सभी कल्पनाएँ उड. गइंर्.
आपा मैं पेहेचानिया, सनमंध हुआ सत।
ए मेहेर कही न जावहीं, सब सुध परी उतपत।।7
तब मैंने स्वयंको पहचाना और परब्रह्म परमात्माके साथका मेरा सम्बन्ध भी सत्य सिद्ध हुआ. सद्गुरुकी इस कृपाका वर्णन किया नहीं जा सकता. उनकी कृपासे ही मुझे सृष्टिकी उत्पत्तिकी सभी सुधि हुई है.
मुझे जगाई जुगतसों, सुख दियो अंग आप।
कंठ लगाई कंठसों, या विध कियो मिलाप।।८
मेरे धनीने अपना आवेश देकर मुझे युक्तिपूर्वक जागृत किया और अखण्ड सुख दिया. मुझे गले लगाकर (मेरे हृदयमें आकर) वे मुझमें एकरूप हो गए.
खासी जान खेडी जिमी, जल सींचिया खसम।
बोया बीज वतन का, सो ऊग्या वाही रसम।।९
मेरे हृदयरूपी धरतीको उर्वरा जानकर उन्होंने उस पर ज्ञाानरूपी हल चलाया और उसमें प्रेमका जल सींचकर परमधामका तारतम ज्ञाानरूपी बीज बो दिया, जो अपनी गरिमाके अनुरूप उगने लगा.
बीज आतम संग निज बुध के, सो ले उठिया अंकूर।
या जुबां इन अंकूर को, क्यों कर कहूं सो नूर।।१०
वह तारतम ज्ञाानरूपी बीज मेरा आत्म-बल और अक्षरब्रह्मकी बुद्धिका संग पाकर परमधामके मूल सम्बन्धके रूपमें अंकुरित हुआ. अब मैं अपनी इस नश्वर जिह्वासे उस अंकुर (सम्बन्ध) एवं दिव्य प्रकाशका वर्णन कैसे करूँ ?
ना तो ए बात जो गुझ की, सो क्यों होवे जाहेर।
सोहागिन प्यारी मुझ को, सो कर ना सकूं अंतर।।११
अन्यथा ये सब रहस्यमयी (गुह्य) बातें कैसे प्रकट की जा सकतीं हैं ? किन्तु परब्रह्म परमात्माकी सुहागिनी आत्माएँ मुझे अति प्रिय हैं, इसलिए मैं उनसे किसी भी प्रकारका अन्तर नहीं रख सकता.
नेक कहूं या नूर की, कछुक इसारत अब।
पीछे तो जाहेर होएसी, तब दुनी देखसी सब।।१२
इसलिए अब मैं इस तारतम ज्ञाानके प्रकाशका सङ्केत मात्र वर्णन करता हूँ. बादमें तो यह सब ओर फैल जाएगा तब सारी दुनियाँ इस प्रकाशको देखेगी.
ए जो विरहा वीतक मैं कही, पिया मिले जिन सूल।
अब फेर कहूं प्रकास थें, जासों पाइए माएने मूल।।१३
अभी तक मैंने इस प्रकार सद्गुरुके विरहपूर्वक खोजकी बात तथा उन्हें हुए श्रीकृष्णके साक्षात्कारका वृत्तान्त कहा. अब मैं पुनः सद्गुरु द्वारा प्रदत्त तारतम ज्ञाानके प्रकाशसे कहता हूँ, जिससे मूल अर्थ (परमधामका सम्बन्ध) स्पष्ट हो जाएँगे.
ए विरहा लछन मैं कहे, पर नाहीं विरहा ताए।
या विध विरह उदम की, जो कोई किया चाहे।।१४
मैंने इस प्रकार विरहके लक्षण बता दिए. उन्हें विरहिणीके सम्पूर्ण लक्षण मत समझ लेना. प्रिय मिलनकी चाहसे जो विरहमें निमग्न होना चाहते हैं उनके लिए करने योग्य प्रयत्नोंका ही यहाँ निदर्शन हुआ है.
विरहा सुनते पीउ का, आहि ना उड गई जिन।
ताए वतन सैयां यों कहें, नाहिन ए विरहिन।।१५
अपने प्रियतम धनीका वियोग सुनते ही जिस विरहिणीके प्राण न निकल जाएँ, उसके लिए परमधामकी आत्माएँ यही कहेंगी कि यह तो सच्ची विरहिणी नहीं है.
जो होवे आपे विरहनी, सो क्यों कहे विरहा सुध।
सुन विरहा जीव ना रहे, तो विरहिन कहां थे बुध।।१६
जो स्वयं विरहिणी (विरहसे व्याकुल) होती है, उसमें विरहका वर्णन करनेकी सुधि ही कहाँ रहती है ? अपने प्रियतमके विरहकी बात सुनते ही उसके प्राण निकल जाते हैं, तो फिर उसमें कुछ कहनेकी बुद्धि ही कहाँ रहेगी ?
पतंग कहे पतंग को, कहां रह्या तूं सोए।
मैं देख्या है दीपक, चल देखाऊं तोए।।१7
यदि कोई पतङ्गा दूसरे पतङ्गेसे जाकर यह कहने लगे, अरे ! तू कहाँ सो रहा था. मैं तो दीपक देखकर आया हूँ. चल, तुझे भी उसके दर्शन कराऊँ.
के तो ओ दीपक नहीं, या तूं पतंग नाहे।
पतंग कहिए तिनको, जो दीपक देख झंपाए।।१८
तब दूसरा पतङ्गा कहता है, तुमने जो देखा है या तो वह दीपक नहीं है या फिर तू पतङ्गा नहीं है. पतङ्गा तो उसे कहा जाता है जो दीपकको देखते ही तत्क्षण झपट पड.े और जल मरे.
पतंग और पतंग को, जो सुध दीपक दे।
तो होवे हांसी तिन पर, कहे नाहीं पतंग ए।।१९
जो पतङ्गा दीपक देखकर दूसरे पतङ्गेको उसकी सुधि देने लगे तो उस पर अवश्य हँसी होगी. सब यही कहेंगे कि यह तो पतङ्गा ही नहीं है.
दीपक देख पीछा फिरे, साबित राखे अंग।
आए देवे सुध और को, सो क्यों कहिए पतंग।।२०
जो दीपककी ज्योतिको देखकर भी अपनी देहको यथावत् रखता हुआ लौट आए एवं दूसरोंसे उस दीपककी चर्चा करने लगे तो उसे पतङ्गा कैसे कहा जाए ?
जब मैं हुती विरह में, तब क्यों मुख बोल्यो जाए।
पर ए बचन तो तब कहे, जब लई पिया उठाए।।२१
जब तक मुझे धनीका विरह था तब तक मुखसे कोई भी शब्द कैसे निकल सकते ? किन्तु ये वचन तो मैंने तब कहे, जब मेरे सद्गुरु धनीने अपना आवेश देकर मुझे विरहसे उबार लिया.
ज्यों ए विरहा उपज्या, ए नहीं हमारा धरम।
विरहिन कबहूं ना करे, यों विरहा अनूकरम।।२२
यह विरह जिस प्रकार उत्पन्न हुआ है यह हमारे धर्मके अनुकूल नहीं है. विरहिणी आत्माको कभी भी इस प्रकार अनुक्रम पूर्वक (क्रमशः) विरह उत्पन्न नहीं होता.
विरहा नहीं ब्रह्मांड में, बिना सोहागिन नार।
सोहागिन अंग पीउ की, वतन पार के पार।।२३
वास्तवमें सुहागिनी आत्माओंके अतिरिक्त इस संसारमें अन्य किसीको भी विरह नहीं हो सकता क्योंकि सुहागिनी आत्माएँ ही परब्रह्म परमात्माकी अङ्गनाएँ हैं. उनका घर क्षर, अक्षरसे भी परे अक्षरातीत परमधाम है.
अब नेक कहूं अंकूर की, जाए कहिए सोहागिन।
सो विरहिन ब्रह्मांड में, हुती ना एते दिन।।२४
अब मैं थोड.ी-सी बात परमधामका मूल अंकुर धारण करनेवाली आत्माओंके विषयमें कहूँ, जो परब्रह्म परमात्माकी सुहागिनी कहलातीं हैं. ये विरहिणी आत्माएँ इस ब्रह्माण्डमें आज तक नहीं आई थीं.
सोई सोहागिन आइयां, पिया की विरहिन।
अंतरगत पिया पकडी, ना तो रहे ना तन।।२५
परब्रह्म परमात्माकी वही सुहागिनी आत्माएँ उनका विरह लेकर इस जागनीके ब्रह्माण्डमें आइंर् हैं. उनके हृदयमें विराजकर प्रियतम परमात्माने उन्हें पूर्ण सहारा दिया है अन्यथा उनका शरीर ही नहीं रह पाता.
ए सुध पिया मुझे दई, अन्दर कियो प्रकास।
तो ए जाहेर होत है, गयो तिमर सब नास।।२६
सद्गुरु धनीने तारतम ज्ञाानके प्रकाशसे मेरे हृदयको आलोकित कर मुझे इस प्रकारकी सुधि दी. इसलिए यह अखण्ड सुख प्रकट हो रहा है और अज्ञाानरूपी अन्धकारका नाश हो गया है.
प्यारी पिया सोहागनी, सो जुबां कही न जाए।
पर हुआ जो मुझे हुकम, सो कैसे कर ढंपाए।।२7
सुहागिनी आत्माएँ परब्रह्मको कितनी प्यारी हैं, उसका वर्णन इस जिह्वासे नहीं हो सकता, किन्तु मेरे धनीने मुझे ब्रह्मात्माओंको जागृत करनेका जो आदेश दिया है अब वह कैसे ढका रह सकता है ?
अनेक करहीं बंदगी, अनेक विरहा लेत।
पर ए सुख तिन सुपने नहीं, जो हमको जगाए के देत।।२८
इस जगतमें बहुत-से साधक उपासनाएँ करते हैं और बहुत-से विरह भी करते हैं. परन्तु ब्रह्मानन्दका यह अलौकिक सुख उन्हें स्वप्नमें भी अप्राप्य है, जिसे हमारे सद्गुरु हम ब्रह्मसृष्टियोंको जागृत कर दे रहे हैं.
छलथें मोहे छुडाए के, कछू दियो विरहा संग।
सो भी विरहा छुडाइया, देकर अपनों अंग।।२९
इस छलरूपी संसारके मोहसे छुड.ाकर मेरे सद्गुरु धनीने मुझे विरहका थोड.ा-सा अनुभव करवाया. फिर विरहके पश्चात् अपना आवेश देकर तथा मेरे हृदय मन्दिरमें स्वयं विराजमान होकर इस विरहसे भी मुक्त कर दिया.
अंग बुध आवेस देए के, कहे तूं प्यारी मुझ।
देने सुख सबन को, हुकम करत हों तुझ।।३०
उन्होंने अपना आवेश (अङ्ग), तथा जागृत बुद्धि (तारतमज्ञाान) देकर मुझे यह कहा कि तुम मेरी प्यारी अङ्गना हो. सब ब्रह्मात्माओंको सुख पहुँचानेके लिए मैं तुझे आदेश देता हूँ.
दुख पावत हैं सोहागनी, सो हम सह्यो न जाए।
हम भी होसी जाहेर, पर तूं सोहागनियां जगाए।।३१
सुहागिनी आत्माएँ दुःख पा रहीं हैं उनका वह दुःख मुझसे सहा नहीं जाता. मैं स्वयं भी तुम्हारे अन्तरमें प्रकट हो जाऊँगा, परन्तु तुम ब्रह्मात्माओंको जागृत करना.
सिर ले आप खडी रहो, कहे तूं सब सैयन।
प्रकास होसी तुझ से, द्रढ कर देखो मन।।३२
मेरे आदेशको शिरोधार्य कर सब ब्रह्मसृष्टियोंको जाग्रत करनेके लिए तुम खड.े हो जाओ. तुमसे ही तारतम ज्ञाानका प्रकाश पूरे ब्रह्माण्डमें फैलेगा, इस बातको अपने मनमें दृढ.ता पूर्वक धारण करो.
तोसों ना कछू अन्तर, तूं है सोहागिन नार।
सत सबद के माएने, तूं खोलसी पार द्वार।।३३
इसलिए मैंने तुमसे कोई अन्तर नहीं रखा है. तुम तो सुहागिनी अङ्गना हो. धर्मग्रन्थोंके सत्य वचनोंका गूढ.ार्थ खोलकर तुम ही सबको अखण्ड परमधामकी पहचान करा सकोगे.
जो कदी जाहेर ना हुई, सो तुझे होसी सुध।
अब थें आद अनाद लों, जाहेर होसी निज बुध।।३४
जो रहस्यमय ज्ञाान आज तक प्रकट नहीं हुआ है, उसकी भी सुधि तुम्हें होगी. अबसे अक्षरब्रह्मकी जागृत बुद्धि और तारतम ज्ञाानके द्वारा आदि अनादि (क्षर ब्रह्माण्डसे लेकर अक्षर अक्षरातीत तक) का ज्ञाान तुमसे प्रकट होगा.
ए बातें सब सूझसी, काहूं अटके नहीं निरधार।
हुकम कारन कारज, पार के पारै पार।।३५
इन सभी रहस्योंकी सूझ तुम्हें होगी. निश्चय ही तुम्हें कहीं अटकना (रुकना) नहीं पड.ेगा. परब्रह्म परमात्माके आदेशसे ही संसारकी सृष्टिका कारण (प्रेम सम्वाद) और कार्य (सृष्टि रचना) दोनों बने हैं. बेहदसे परे अक्षर और उससे परे अक्षरातीत परमधामका ज्ञाान तुम्हें ही सुलभ हुआ है.
चौदे तबक एक होएसी, सब हुकम के परताप।
ए सोभा होसी तुझे सोहागनी, जिन जुदी जाने आप।।३६
परब्रह्मकी आज्ञााके प्रतापसे चौदहलोकोंके प्राणी एकरूप हो जाएँगे अर्थात् सबको अखण्ड मुक्ति मिलेगी. हे सुहागिनी (इन्द्रावती) ! इसकी सम्पूर्ण शोभा तुझे मिलेगी. तुम स्वयंको मुझसे भिन्न मत समझना.
जो कोई सबद संसार में, अरथ ना लिए किन कब।
सो सब खातर सोहागनी, तूं अरथ करसी अब।।३7
संसारमें जितने भी धर्मग्रन्थ हैं उनका गूढ.ार्थ आज तक किसीने ग्रहण नहीं किया. सब ब्रह्मात्माओंके लिए तुम उनका रहस्य स्पष्ट करोगे.
तूं देख दिल विचार के, उड जासी सब असत।
सारों के सुख कारने, तूं जाहेर हुई महामत।।३८
तुम अपने दिलमें विचार कर देखो, अब तुम्हारे द्वारा दुनियाँका समस्त अज्ञाान (असत् भाव) नष्ट हो जाएगा. सबको अलौकिक सुख देनेके लिए ही तुम महामतिके रूपमें प्रकट हुई हो.
पेहेले सुख सोहागनी, पीछे सुख संसार।
एक रस सब होएसी, घर घर सुख अपार।।३९
सबसे पहले ब्रह्मात्माओंको सुख प्राप्त होगा फिर सारे संसारमें यह वितरित होगा. जब पूरी दुनियाँ एकरस हो जाएगी, तब घर-घरमें अपार सुख होगा.
ए खेल किया जिन खातर, सो तूं कहियो सोहागिन।
पेहेले खेल देखाए के, पीछे मूल वतन।।४०
यह खेल जिन ब्रह्मात्माओंके लिए बनाया है, उन्हें तुम कहना कि पहले उन्हें मायाके खेल दिखाकर फिर मूल घर परमधाममें जागृत किया जाएगा.
अंतर सैयों से जिन करो, जो सैयां हैं इन घर।
पीछे चौदे तबक में, जाहेर होसी आखर।।४१
परमधामकी ब्रह्मात्माओंके साथ किसी भी प्रकारका अन्तर मत करना. पश्चात् अन्तिम समयमें तो यह ज्ञाान समस्त संसारमें फैल जाएगा.
तें कहे बचन मुखथें, होसी तिनथें प्रकास।
असत उडसी तूल ज्यों, जासी तिमर सब नास।।४२
तुम्हारे मुखसे निःसृत तारतम ज्ञाानके वचनोंके द्वारा संसारमें ज्ञाानका प्रकाश फैल जाएगा. जिससे असत्य वस्तु (अज्ञाान) रूईके रेशेकी भाँति उड. जाएगी और अज्ञाानरूप अन्धकार भी मिट जाएगा.
तूं लीजे नीके मायने, तेरे मुख के बोल।
जो साख देवे तुझे आतमा, तो लीजे सिर कौल।।४३
तुम स्वयं भी अपने मुखसे निःसृत वचनोंके गूढ. आशयको भली-भाँति आत्मसात् करना. जब तुम्हारी आत्मा इन वचनोंकी साक्षी दे, तभी इन वचनोंको शिरोधार्य कर अपनी (परस्पर जगानेकी) प्रतिज्ञााका अनुपालन करना.
खसम खडा है अंतर, जेती सोहागिन।
तूं पूछ देख दिल अपना, कर कारज द्रढ मन।।४४
जितनी भी ब्रह्मात्माएँ हैं उन सबके हृदयमें धामधनी विराजमान हैं. इसलिए तू अपनी अन्तरात्मासे पूछकर देख और अपने मनको दृढ.कर जागनीका कार्य कर.
आप खसम अजूं गोप हैं, आगे होत प्रकास।
उदया सूर छिपे नहीं, गयो तमर सब नास।।४५
आत्मा (आप) और परमात्मा (खसम) अभी तक प्रत्यक्ष नहीं हुए हैं. भविष्यमें तारतम ज्ञाानके द्वारा उनका प्रत्यक्ष अनुभव हो जाएगा. तारतम ज्ञाानरूपी सूर्य उदय हो चुका है, अब यह छिपेगा नहीं इसीसे सारा अन्धकार (अज्ञाान) दूर हो जाएगा.
प्रकरण ९
कलश हिंदी
एह बात मैं तो कहूं, जो केहेने की होए।
पर ए खसमें रीझ के, दया करी अति मोहे।।१
परब्रह्म परमात्माके मिलनकी बात यदि इन सीमित शब्दों द्वारा कहने योग्य होती तो मैं अवश्य कहता परन्तु सद्गुरु प्रसन्न होकर दया पूर्वक यह सब कहलवा रहे हैं.
सुनियो बानी सोहागनी, दीदार दिया पिया जब।
अंदर परदा उड गया, हुआ उजाला सब।।२
हे सुहागिनी ब्रह्मात्माओ ! यह बात ध्यान पूर्वक सुनो. जब मुझे धनीने दर्शन दिए तबसे मेरे हृदयसे अज्ञाानका पर्दा हट गया और हृदयमें ज्ञाानका प्रकाश छा गया.
पिया जो पार के पार हैं, तिन खुद खोले द्वार।
पार दरवाजे तब देखे, जब खोल देखाया पार।।३
जो अक्षरसे भी परे अक्षरातीत परमात्मा हैं उन्होंने ही स्वयं आकर परमधामके द्वार खोल दिए. पारके द्वार मुझे तब प्रत्यक्ष हुए जब उन्होंने इस प्रकार खोलकर दिखाए.
कर पकर बैठाए के, आवेस दियो मोहे अंग।
ता दिन थें पसरी दया, पल पल चढते रंग।।४
मेरे सद्गुरु धनीने मेरा हाथ पकड. कर मुझे अपने पास बैठाया और अपना आवेश प्रदान किया. उस दिनसे उनकी अनुकम्पा दिन प्रतिदिन बढ.ने लगी और पल-पल प्रेमका रङ्ग चढ.ता गया.
हुई पेहेचान पीउसों, तब कह्यो महामति नाम।
अब मैं हुई जाहेर, देख्या वतन श्री धाम।।५
जब मेरी पहचान सद्गुरु धनीसे हुई तब उन्होंने मुझे महामतिकी संज्ञाा प्रदान की. अब मैं अपने धनीकी अङ्गनाके रूपमें प्रकट हो गई और मुझे अखण्ड परमधामका साक्षात्कार भी हो गया.
बात कही सब वतन की, सो निरखे मैं निसान।
प्रकास पूरन द्रढ हुआ, उड गया उनमान।।६
मेरे सद्गुरुने मुझे परमधामकी सारी बातें बताईं. मैंने वहाँके एक-एक चिह्न (निशान) को देखा. तारतम ज्ञाानका पूर्ण प्रकाश हृदयमें उतर आनेसे ब्रह्म विषयक सभी कल्पनाएँ उड. गइंर्.
आपा मैं पेहेचानिया, सनमंध हुआ सत।
ए मेहेर कही न जावहीं, सब सुध परी उतपत।।7
तब मैंने स्वयंको पहचाना और परब्रह्म परमात्माके साथका मेरा सम्बन्ध भी सत्य सिद्ध हुआ. सद्गुरुकी इस कृपाका वर्णन किया नहीं जा सकता. उनकी कृपासे ही मुझे सृष्टिकी उत्पत्तिकी सभी सुधि हुई है.
मुझे जगाई जुगतसों, सुख दियो अंग आप।
कंठ लगाई कंठसों, या विध कियो मिलाप।।८
मेरे धनीने अपना आवेश देकर मुझे युक्तिपूर्वक जागृत किया और अखण्ड सुख दिया. मुझे गले लगाकर (मेरे हृदयमें आकर) वे मुझमें एकरूप हो गए.
खासी जान खेडी जिमी, जल सींचिया खसम।
बोया बीज वतन का, सो ऊग्या वाही रसम।।९
मेरे हृदयरूपी धरतीको उर्वरा जानकर उन्होंने उस पर ज्ञाानरूपी हल चलाया और उसमें प्रेमका जल सींचकर परमधामका तारतम ज्ञाानरूपी बीज बो दिया, जो अपनी गरिमाके अनुरूप उगने लगा.
बीज आतम संग निज बुध के, सो ले उठिया अंकूर।
या जुबां इन अंकूर को, क्यों कर कहूं सो नूर।।१०
वह तारतम ज्ञाानरूपी बीज मेरा आत्म-बल और अक्षरब्रह्मकी बुद्धिका संग पाकर परमधामके मूल सम्बन्धके रूपमें अंकुरित हुआ. अब मैं अपनी इस नश्वर जिह्वासे उस अंकुर (सम्बन्ध) एवं दिव्य प्रकाशका वर्णन कैसे करूँ ?
ना तो ए बात जो गुझ की, सो क्यों होवे जाहेर।
सोहागिन प्यारी मुझ को, सो कर ना सकूं अंतर।।११
अन्यथा ये सब रहस्यमयी (गुह्य) बातें कैसे प्रकट की जा सकतीं हैं ? किन्तु परब्रह्म परमात्माकी सुहागिनी आत्माएँ मुझे अति प्रिय हैं, इसलिए मैं उनसे किसी भी प्रकारका अन्तर नहीं रख सकता.
नेक कहूं या नूर की, कछुक इसारत अब।
पीछे तो जाहेर होएसी, तब दुनी देखसी सब।।१२
इसलिए अब मैं इस तारतम ज्ञाानके प्रकाशका सङ्केत मात्र वर्णन करता हूँ. बादमें तो यह सब ओर फैल जाएगा तब सारी दुनियाँ इस प्रकाशको देखेगी.
ए जो विरहा वीतक मैं कही, पिया मिले जिन सूल।
अब फेर कहूं प्रकास थें, जासों पाइए माएने मूल।।१३
अभी तक मैंने इस प्रकार सद्गुरुके विरहपूर्वक खोजकी बात तथा उन्हें हुए श्रीकृष्णके साक्षात्कारका वृत्तान्त कहा. अब मैं पुनः सद्गुरु द्वारा प्रदत्त तारतम ज्ञाानके प्रकाशसे कहता हूँ, जिससे मूल अर्थ (परमधामका सम्बन्ध) स्पष्ट हो जाएँगे.
ए विरहा लछन मैं कहे, पर नाहीं विरहा ताए।
या विध विरह उदम की, जो कोई किया चाहे।।१४
मैंने इस प्रकार विरहके लक्षण बता दिए. उन्हें विरहिणीके सम्पूर्ण लक्षण मत समझ लेना. प्रिय मिलनकी चाहसे जो विरहमें निमग्न होना चाहते हैं उनके लिए करने योग्य प्रयत्नोंका ही यहाँ निदर्शन हुआ है.
विरहा सुनते पीउ का, आहि ना उड गई जिन।
ताए वतन सैयां यों कहें, नाहिन ए विरहिन।।१५
अपने प्रियतम धनीका वियोग सुनते ही जिस विरहिणीके प्राण न निकल जाएँ, उसके लिए परमधामकी आत्माएँ यही कहेंगी कि यह तो सच्ची विरहिणी नहीं है.
जो होवे आपे विरहनी, सो क्यों कहे विरहा सुध।
सुन विरहा जीव ना रहे, तो विरहिन कहां थे बुध।।१६
जो स्वयं विरहिणी (विरहसे व्याकुल) होती है, उसमें विरहका वर्णन करनेकी सुधि ही कहाँ रहती है ? अपने प्रियतमके विरहकी बात सुनते ही उसके प्राण निकल जाते हैं, तो फिर उसमें कुछ कहनेकी बुद्धि ही कहाँ रहेगी ?
पतंग कहे पतंग को, कहां रह्या तूं सोए।
मैं देख्या है दीपक, चल देखाऊं तोए।।१7
यदि कोई पतङ्गा दूसरे पतङ्गेसे जाकर यह कहने लगे, अरे ! तू कहाँ सो रहा था. मैं तो दीपक देखकर आया हूँ. चल, तुझे भी उसके दर्शन कराऊँ.
के तो ओ दीपक नहीं, या तूं पतंग नाहे।
पतंग कहिए तिनको, जो दीपक देख झंपाए।।१८
तब दूसरा पतङ्गा कहता है, तुमने जो देखा है या तो वह दीपक नहीं है या फिर तू पतङ्गा नहीं है. पतङ्गा तो उसे कहा जाता है जो दीपकको देखते ही तत्क्षण झपट पड.े और जल मरे.
पतंग और पतंग को, जो सुध दीपक दे।
तो होवे हांसी तिन पर, कहे नाहीं पतंग ए।।१९
जो पतङ्गा दीपक देखकर दूसरे पतङ्गेको उसकी सुधि देने लगे तो उस पर अवश्य हँसी होगी. सब यही कहेंगे कि यह तो पतङ्गा ही नहीं है.
दीपक देख पीछा फिरे, साबित राखे अंग।
आए देवे सुध और को, सो क्यों कहिए पतंग।।२०
जो दीपककी ज्योतिको देखकर भी अपनी देहको यथावत् रखता हुआ लौट आए एवं दूसरोंसे उस दीपककी चर्चा करने लगे तो उसे पतङ्गा कैसे कहा जाए ?
जब मैं हुती विरह में, तब क्यों मुख बोल्यो जाए।
पर ए बचन तो तब कहे, जब लई पिया उठाए।।२१
जब तक मुझे धनीका विरह था तब तक मुखसे कोई भी शब्द कैसे निकल सकते ? किन्तु ये वचन तो मैंने तब कहे, जब मेरे सद्गुरु धनीने अपना आवेश देकर मुझे विरहसे उबार लिया.
ज्यों ए विरहा उपज्या, ए नहीं हमारा धरम।
विरहिन कबहूं ना करे, यों विरहा अनूकरम।।२२
यह विरह जिस प्रकार उत्पन्न हुआ है यह हमारे धर्मके अनुकूल नहीं है. विरहिणी आत्माको कभी भी इस प्रकार अनुक्रम पूर्वक (क्रमशः) विरह उत्पन्न नहीं होता.
विरहा नहीं ब्रह्मांड में, बिना सोहागिन नार।
सोहागिन अंग पीउ की, वतन पार के पार।।२३
वास्तवमें सुहागिनी आत्माओंके अतिरिक्त इस संसारमें अन्य किसीको भी विरह नहीं हो सकता क्योंकि सुहागिनी आत्माएँ ही परब्रह्म परमात्माकी अङ्गनाएँ हैं. उनका घर क्षर, अक्षरसे भी परे अक्षरातीत परमधाम है.
अब नेक कहूं अंकूर की, जाए कहिए सोहागिन।
सो विरहिन ब्रह्मांड में, हुती ना एते दिन।।२४
अब मैं थोड.ी-सी बात परमधामका मूल अंकुर धारण करनेवाली आत्माओंके विषयमें कहूँ, जो परब्रह्म परमात्माकी सुहागिनी कहलातीं हैं. ये विरहिणी आत्माएँ इस ब्रह्माण्डमें आज तक नहीं आई थीं.
सोई सोहागिन आइयां, पिया की विरहिन।
अंतरगत पिया पकडी, ना तो रहे ना तन।।२५
परब्रह्म परमात्माकी वही सुहागिनी आत्माएँ उनका विरह लेकर इस जागनीके ब्रह्माण्डमें आइंर् हैं. उनके हृदयमें विराजकर प्रियतम परमात्माने उन्हें पूर्ण सहारा दिया है अन्यथा उनका शरीर ही नहीं रह पाता.
ए सुध पिया मुझे दई, अन्दर कियो प्रकास।
तो ए जाहेर होत है, गयो तिमर सब नास।।२६
सद्गुरु धनीने तारतम ज्ञाानके प्रकाशसे मेरे हृदयको आलोकित कर मुझे इस प्रकारकी सुधि दी. इसलिए यह अखण्ड सुख प्रकट हो रहा है और अज्ञाानरूपी अन्धकारका नाश हो गया है.
प्यारी पिया सोहागनी, सो जुबां कही न जाए।
पर हुआ जो मुझे हुकम, सो कैसे कर ढंपाए।।२7
सुहागिनी आत्माएँ परब्रह्मको कितनी प्यारी हैं, उसका वर्णन इस जिह्वासे नहीं हो सकता, किन्तु मेरे धनीने मुझे ब्रह्मात्माओंको जागृत करनेका जो आदेश दिया है अब वह कैसे ढका रह सकता है ?
अनेक करहीं बंदगी, अनेक विरहा लेत।
पर ए सुख तिन सुपने नहीं, जो हमको जगाए के देत।।२८
इस जगतमें बहुत-से साधक उपासनाएँ करते हैं और बहुत-से विरह भी करते हैं. परन्तु ब्रह्मानन्दका यह अलौकिक सुख उन्हें स्वप्नमें भी अप्राप्य है, जिसे हमारे सद्गुरु हम ब्रह्मसृष्टियोंको जागृत कर दे रहे हैं.
छलथें मोहे छुडाए के, कछू दियो विरहा संग।
सो भी विरहा छुडाइया, देकर अपनों अंग।।२९
इस छलरूपी संसारके मोहसे छुड.ाकर मेरे सद्गुरु धनीने मुझे विरहका थोड.ा-सा अनुभव करवाया. फिर विरहके पश्चात् अपना आवेश देकर तथा मेरे हृदय मन्दिरमें स्वयं विराजमान होकर इस विरहसे भी मुक्त कर दिया.
अंग बुध आवेस देए के, कहे तूं प्यारी मुझ।
देने सुख सबन को, हुकम करत हों तुझ।।३०
उन्होंने अपना आवेश (अङ्ग), तथा जागृत बुद्धि (तारतमज्ञाान) देकर मुझे यह कहा कि तुम मेरी प्यारी अङ्गना हो. सब ब्रह्मात्माओंको सुख पहुँचानेके लिए मैं तुझे आदेश देता हूँ.
दुख पावत हैं सोहागनी, सो हम सह्यो न जाए।
हम भी होसी जाहेर, पर तूं सोहागनियां जगाए।।३१
सुहागिनी आत्माएँ दुःख पा रहीं हैं उनका वह दुःख मुझसे सहा नहीं जाता. मैं स्वयं भी तुम्हारे अन्तरमें प्रकट हो जाऊँगा, परन्तु तुम ब्रह्मात्माओंको जागृत करना.
सिर ले आप खडी रहो, कहे तूं सब सैयन।
प्रकास होसी तुझ से, द्रढ कर देखो मन।।३२
मेरे आदेशको शिरोधार्य कर सब ब्रह्मसृष्टियोंको जाग्रत करनेके लिए तुम खड.े हो जाओ. तुमसे ही तारतम ज्ञाानका प्रकाश पूरे ब्रह्माण्डमें फैलेगा, इस बातको अपने मनमें दृढ.ता पूर्वक धारण करो.
तोसों ना कछू अन्तर, तूं है सोहागिन नार।
सत सबद के माएने, तूं खोलसी पार द्वार।।३३
इसलिए मैंने तुमसे कोई अन्तर नहीं रखा है. तुम तो सुहागिनी अङ्गना हो. धर्मग्रन्थोंके सत्य वचनोंका गूढ.ार्थ खोलकर तुम ही सबको अखण्ड परमधामकी पहचान करा सकोगे.
जो कदी जाहेर ना हुई, सो तुझे होसी सुध।
अब थें आद अनाद लों, जाहेर होसी निज बुध।।३४
जो रहस्यमय ज्ञाान आज तक प्रकट नहीं हुआ है, उसकी भी सुधि तुम्हें होगी. अबसे अक्षरब्रह्मकी जागृत बुद्धि और तारतम ज्ञाानके द्वारा आदि अनादि (क्षर ब्रह्माण्डसे लेकर अक्षर अक्षरातीत तक) का ज्ञाान तुमसे प्रकट होगा.
ए बातें सब सूझसी, काहूं अटके नहीं निरधार।
हुकम कारन कारज, पार के पारै पार।।३५
इन सभी रहस्योंकी सूझ तुम्हें होगी. निश्चय ही तुम्हें कहीं अटकना (रुकना) नहीं पड.ेगा. परब्रह्म परमात्माके आदेशसे ही संसारकी सृष्टिका कारण (प्रेम सम्वाद) और कार्य (सृष्टि रचना) दोनों बने हैं. बेहदसे परे अक्षर और उससे परे अक्षरातीत परमधामका ज्ञाान तुम्हें ही सुलभ हुआ है.
चौदे तबक एक होएसी, सब हुकम के परताप।
ए सोभा होसी तुझे सोहागनी, जिन जुदी जाने आप।।३६
परब्रह्मकी आज्ञााके प्रतापसे चौदहलोकोंके प्राणी एकरूप हो जाएँगे अर्थात् सबको अखण्ड मुक्ति मिलेगी. हे सुहागिनी (इन्द्रावती) ! इसकी सम्पूर्ण शोभा तुझे मिलेगी. तुम स्वयंको मुझसे भिन्न मत समझना.
जो कोई सबद संसार में, अरथ ना लिए किन कब।
सो सब खातर सोहागनी, तूं अरथ करसी अब।।३7
संसारमें जितने भी धर्मग्रन्थ हैं उनका गूढ.ार्थ आज तक किसीने ग्रहण नहीं किया. सब ब्रह्मात्माओंके लिए तुम उनका रहस्य स्पष्ट करोगे.
तूं देख दिल विचार के, उड जासी सब असत।
सारों के सुख कारने, तूं जाहेर हुई महामत।।३८
तुम अपने दिलमें विचार कर देखो, अब तुम्हारे द्वारा दुनियाँका समस्त अज्ञाान (असत् भाव) नष्ट हो जाएगा. सबको अलौकिक सुख देनेके लिए ही तुम महामतिके रूपमें प्रकट हुई हो.
पेहेले सुख सोहागनी, पीछे सुख संसार।
एक रस सब होएसी, घर घर सुख अपार।।३९
सबसे पहले ब्रह्मात्माओंको सुख प्राप्त होगा फिर सारे संसारमें यह वितरित होगा. जब पूरी दुनियाँ एकरस हो जाएगी, तब घर-घरमें अपार सुख होगा.
ए खेल किया जिन खातर, सो तूं कहियो सोहागिन।
पेहेले खेल देखाए के, पीछे मूल वतन।।४०
यह खेल जिन ब्रह्मात्माओंके लिए बनाया है, उन्हें तुम कहना कि पहले उन्हें मायाके खेल दिखाकर फिर मूल घर परमधाममें जागृत किया जाएगा.
अंतर सैयों से जिन करो, जो सैयां हैं इन घर।
पीछे चौदे तबक में, जाहेर होसी आखर।।४१
परमधामकी ब्रह्मात्माओंके साथ किसी भी प्रकारका अन्तर मत करना. पश्चात् अन्तिम समयमें तो यह ज्ञाान समस्त संसारमें फैल जाएगा.
तें कहे बचन मुखथें, होसी तिनथें प्रकास।
असत उडसी तूल ज्यों, जासी तिमर सब नास।।४२
तुम्हारे मुखसे निःसृत तारतम ज्ञाानके वचनोंके द्वारा संसारमें ज्ञाानका प्रकाश फैल जाएगा. जिससे असत्य वस्तु (अज्ञाान) रूईके रेशेकी भाँति उड. जाएगी और अज्ञाानरूप अन्धकार भी मिट जाएगा.
तूं लीजे नीके मायने, तेरे मुख के बोल।
जो साख देवे तुझे आतमा, तो लीजे सिर कौल।।४३
तुम स्वयं भी अपने मुखसे निःसृत वचनोंके गूढ. आशयको भली-भाँति आत्मसात् करना. जब तुम्हारी आत्मा इन वचनोंकी साक्षी दे, तभी इन वचनोंको शिरोधार्य कर अपनी (परस्पर जगानेकी) प्रतिज्ञााका अनुपालन करना.
खसम खडा है अंतर, जेती सोहागिन।
तूं पूछ देख दिल अपना, कर कारज द्रढ मन।।४४
जितनी भी ब्रह्मात्माएँ हैं उन सबके हृदयमें धामधनी विराजमान हैं. इसलिए तू अपनी अन्तरात्मासे पूछकर देख और अपने मनको दृढ.कर जागनीका कार्य कर.
आप खसम अजूं गोप हैं, आगे होत प्रकास।
उदया सूर छिपे नहीं, गयो तमर सब नास।।४५
आत्मा (आप) और परमात्मा (खसम) अभी तक प्रत्यक्ष नहीं हुए हैं. भविष्यमें तारतम ज्ञाानके द्वारा उनका प्रत्यक्ष अनुभव हो जाएगा. तारतम ज्ञाानरूपी सूर्य उदय हो चुका है, अब यह छिपेगा नहीं इसीसे सारा अन्धकार (अज्ञाान) दूर हो जाएगा.
प्रकरण ९
कलश हिंदी