धाम वर्णन
अब आओ रे इसक भानुं हांम , देखूं अपना वतन निज धाम .
करूँ चरण तले विसराम , विलसूं पिया जी सूं प्रेम काम .
अब बानी अद्वैत मैं गाऊं ,निज स्वरुप की नींद उडाऊं .
सब सैयों को भेली जगाऊं , पीछे अक्षर को भी उठाओं .
जब प्रकृति होई ,ना रहे अद्वैत बिना कोई .
एक अद्वैत मंडल जो इत ,धनी अंगना के अंग नित .
अब एही रट लगाऊं , एह प्रेम सब को पिलाऊं .
अब ऐसी छाक छाकाऊं , अंग असलू इसक बडाऊँ .
धनि धाम देखन की खांत ,सो तो चुभ रही मेरे चित .
किन विध वन मोहोल मंदर ,देखूं धनी की लीला अन्दर .
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