Shri Tartam Sagar
श्रीसाथनो प्रबोध-राग धन्यासरी
संभारो साथ, अवसर आव्यो छे हाथजी।
आप नाख्या जेम पहेले फेरे, वली नाखजो एम निघातजी।।१
इन्द्रावती कहती है, हे सुन्दरसाथ जी ! स्मरण करो, हमें तीसरे ब्रह्माण्डमें पहुँचनेका सुअवसर प्राप्त हुआ है. हमने जिस प्रकार प्रथम बार (व्रजसे रासमें जाते समय) अपनी आत्माको धामधनी श्री कृष्णके चरणोंमें सर्मिपत किया था उसी प्रकार जागनीके इस ब्रह्माण्डसे परमधाममें जागृत होनेके लिए भी अपनी आत्माको निश्चित रूपसे सर्मिपत करो.
सुन्दरबाई आपण माटे, आव्यां छे आणी वारजी।
ए आपणने अलगां नव करे, कांई मोकल्यां छे प्राण आधारजी।। २
सुन्दरबाई अर्थात् सद्गुरु श्रीदेवचन्द्रजी महाराज हमारे लिए इस जागनीके ब्रह्माण्डमें आए हैं. वे हमें स्वयंसे अलग नहीं करेंगे क्योंकि धामधनीने उन्हें परमधामसे भेजा है.
सुपनातरमां खिण न मूके, तो साख्यात अलगां केम थाएजी ।
कृपा वालाजीनी केही कहुं, जो जुए जीव रुदया मांहेजी ।। ३
स्वप्नवत् लीला-व्रज और रासके ब्रह्माण्डमें (परमधाम तथा धामधनीका पूरा परिचय प्राप्त न होनेपर उसे स्वप्नवत् कहा है) भी प्रियतम धनी श्रीकृष्णने ब्रह्मात्माओंको क्षणमात्रके लिए भी अलग नहीं किया, तो इस जागनीके ब्रह्माण्डमें साक्षात् सद्गुरुके रूपमें पधारे हुए हमारे धनी श्री श्यामाश्याम हमसे अलग कैसे होंगे ? इसलिए उनकी कृपाका वर्णन किस प्रकार करूँ ? यदि जीव हृदयपूर्वक विचार कर देखे तो उसे अनुभव होगा कि प्रियतमकी दयाका वर्णन नहीं हो सकता है.
एवडी वात वालो करे रे आपणसुं, पण नथी कांई साथने सारजी ।
भरम उडाडी जो आपण जोइए, तो बेठा छे आपणमां आधारजी ।।४
प्रियतम धनी ऐसी महत्त्वपूर्ण बात हमसे कहते हैं, परन्तु सुन्दरसाथको इसका कुछ भी ज्ञाान नहीं है. यदि हम अपने भ्रमको दूर कर देखें तो निश्चित कर पाएँगे कि प्रियतम धनी हमारे अन्दर ही विराजमान हैं.
सुपनातरमां मनोरथ कीधां, तो तिहां पण वालोजी साथजी।
सुन्दरबाई लई आवेस धणीनो, नव मूके आपणो हाथजी।।५
स्वप्नवत् ब्रह्माण्ड-व्रज तथा रासमें हम लोगोंने जो इच्छाएँ व्यक्त की थीं वहाँ भी प्रियतम श्रीकृष्ण हमारे साथ रहे. इस तीसरे ब्रह्माण्डमें सुन्दरबाई श्री धणीका आवेश लेकर सद्गुरुके रूपमें आईं हैं. अब वे हमारा हाथ नहीं छोड.ेंगी.
तिलमात्र दुख नव दिए रे आपणने, जो जोइए वचन विचारीजी।
दुख आपणने तो ज थाय छे, जो संसार कीजे छे भारीजी।।६
धामधनीने हमें थोड.ा-सा भी दुःख नहीं दिया. हम उनके वचनों पर विचार करें तो हमें ऐसा अनुभव होगा कि हम तो सांसारिक सुखोंको ही महत्त्व देकर उन्हींमें मग्न रहते हैं इसलिए हमें दुःखका अनुभव होता है.
अंतरध्यान समे दुख दीधां, ए आसंका मन मांहेजी।
एणे समे संसार भारी नव कीधो, साथे दुख दीठां एम कांएजी।।
रासलीलाके समय जब श्रीकृष्ण अन्तर्धान हुए तो हम ब्रह्मात्माओंको दुःखका अनुभव हुआ. अब मनमें यह आशंका उठती है कि उस समय हमने संसारकी ममता एवं आसक्तिको महत्त्व नहीं दिया था फिर भी हमें इस प्रकारका दुःख क्यों देखना पड.ा ?
दुख तां केमे न दिए रे वालोजी, ए तां विचारीने जोइएजी।
सांभरे वचन तो ज रे सखियो, जो माया मूकतां घणुं रोईएजी।।८
इन्द्रावती कहती है, प्रियतम धनी किसी भी प्रकारका दुःख नहीं देते हैं. इस वास्तविकताको तारतम ज्ञाान द्वारा विचार करके देखो. हे सखियो ! मायाको छोड.ते हुए हमें बड.ा दुःख लगता है. अतः परमधामके वचनोंका स्मरण करानेके लिए ही रासके समय श्रीकृष्ण अन्तर्धान हुए हैं.
वचन संभारवाने काजे मारे वाले, दुख दीधां अति घणांजी।
आपण मनोरथ एहज कीधां, वाले राख्यां मन आपणांजी।।९
मूल वचन (मायावी दुःख देखनेकी इच्छा) का स्मरण करानेके लिए ही हमारे प्रियतम धनीने हमें अन्तर्धानके समय दुःख दिया है. कारण यह है कि हमलोगोंने परमधाममें यही (दुःखरूपी खेल देखनेकी) इच्छा की थी. इसलिए प्रियतम धनीने हमारी मनोकामनाएँ पूरी की.
आपण मायानी होंस ज कीधी, अने माया तो दुख निधानजी।
ते संभारवाने काजे रे सखियो, वालो पाम्यां ते अंतरधानजी।।१०
हे सुन्दरसाथजी ! हमने माया देखनेकी इच्छा व्यक्त की थी. निश्चय ही यह माया तो दुःखरूप ही है. इन वचनोंका स्मरण करानेके लिए प्रियतम श्रीकृष्णजी अन्तर्धान हुए थे.
नहीं तो अधखिण ए रे आपणो, नव सहे विछोहजी।
ए तां विचारीने जोइए रे सखियो, तो तारतम भाजे संदेहजी।।११
अन्यथा प्रियतम श्रीकृष्ण आधे क्षणके लिए भी हमारा वियोग सहन नहीं कर सकते. इन वचनों पर विचार करके देखोगी तो हे सखियो ! तारतम ज्ञाान सभी सन्देह मिटा देता है.
एणे समे तारतमनी समझण, ते में केम कहेवायजी।
अनेक विधनुं तारतम इहां, तेणे घर लीला प्रगट थायजी।।१२
अब इस समय तारतम ज्ञाानकी समझ हमें प्राप्त हो चुकी है. मैं किस प्रकार इसके गुणगान करूँ ? इस जागनीके ब्रह्माण्डमें तो तारतम ज्ञाानके अखण्ड प्रकाश द्वारा विभिन्न लीलाएँ (परमधाम, व्रज, रास और जागनी) स्पष्ट होतीं हैं.
ओलखवाने धणी आपणो, कहुं तारतम विचारजी ।
साथ सकल तमे ग्रहजो चितसुं, नहीं राखुं संदेह लगारजी।।१३
अपने धामधनी और मूल घर परमधामका परिचय देनेके लिए तारतम ज्ञाानका विवेचन कर रही हूँ. हे सुन्दरसाथजी ! तुम सब एकाग्र चित्त होकर इसे ग्रहण करो. आपके मनमें तनिक भी शंका रहने नहीं दूँगी.
पहेले फेरे तां ए निध ना हुती, अजवालुं तारतमजी।
तो आ फेरो थयो आपणने, साथ जुओ विचारी मनजी।।१४
प्रथम बार व्रज तथा रासलीलाके समय यह तारतम ज्ञाानरूपी निधि हमारे पास नहीं थी. तारतम ज्ञाानका प्रकाश भी नहीं था. इसलिए हमें इस ब्रह्माण्डमें आना पड.ा. हे सुन्दरसाथजी ! इस बात पर विचार करके देखो.
उत्कंठा नव रहे केहनी, जो कीजे तारतमनो विचारजी।
तारतमतणुं अजवालुं लईने, आव्या आपणमां आधारजी।।१५
यदि तारतम ज्ञाान पर विचार करके देखें तो किसीके भी मनमें किसी भी प्रकारकी उत्कण्ठा शेष नहीं रहेगी. ऐसे ज्ञाानका प्रकाश लेकर हमारे बीच धामधनी सद्गुरुके रूपमें पधारे हैं.
एणे अजवाले जो न ओलख्या, तो आपणमां अति मणांजी।
चरणे लागी कहे इन्द्रावती, वालो नव मूके गुण आपणांजी।।१६
इस तारतमके प्रकाशमें भी यदि हम सद्गुरु धनीकी पहचान न कर सके तो मानना चाहिए कि हममें अत्यधिक कमी है. इन्द्रावती चरणोंमें प्रणाम कर कहती है, प्रियतम धनी तो हमें कृतार्थ करनेका अपना स्वभाव नहीं छोडें.गे.
प्रकरण २
सकल साथ, रखे कोई वचन विसारोजी।
धणी मल्या आपणने मायामां, अवसर आज तमारोजी।।१
इन्द्रावती कहती है, हे सुन्दरसाथजी ! सद्गुरुके वचनोंको भूलना नहीं. इस मायावी संसारमें धामधनी हमें सद्गुरुके रूपमें प्राप्त हुए हैं. तुम्हेंे यह सुयोग्य अवसर प्राप्त हुआ है.
सुन्दरबाई अंतरगत कहावे, प्रकास वचन अति भारीजी।
साथ सकल तमे मली सांभलो, जो जो तारतम विचारीजी।।२
सद्गुरु श्रीदेवचन्द्रजी (सुन्दरबाई) मेरे हृदयमें विराजमान होकर (मेरे द्वारा) कहलवाते हैं कि प्रकाश ग्रन्थ (प्रकाश वचन) की बातें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और र्मािमक हैं. हे सुन्दरसाथजी ! तुम सब मिलकर सुनो और तारतम ज्ञाान पर विचार करो.
साथजी एणे पगले चालजो, पगलां ते एह प्रमाणजी।
प्रगट तमने पहेले कह्युं, वली कहुं छुं निरवाणजी।।३
हे सुन्दरसाथजी ! इस प्रेम मार्गका अनुसरण करो (जिस प्रकार व्रजभूमिसे निकलकर रासमण्डलमें जाते समय सांसारिक ममताका त्याग किया था). वास्तवमें यही मार्ग हमारा योग्य मार्ग है. इससे पूर्व (रास ग्रन्थमें) भी मैंने ये बातें स्पष्ट शब्दोंमें कही थी अब पुनः इसीको निश्चयपूर्वक कहती हूँ.
हवे रखे माया मन धरो, तमे जोई ते अनेक जुगतजी।
कै कै पेरे कह्युं में तमने, तमे हजी न पाम्यां त्रपतजी।।४
अब मायाके प्रति रुचि मत रखो. तुम सबने इसे युक्तिपूर्वक देखा है. इसके (छल-कपट, और कुटिलताके) विषयमें मैंने तुम्हें कई बार कहा है तथापि तुम अभी तक इससे तृप्त नहीं हुए हो.
जिहां लगे तमे रहो रे मायामां, रखे खिण मूको रासजी।
पचवीस पख लेजो आपणां, तमने नहीं लोपे मायानो पासजी।।५
जब तक तुम इस मायावी संसारमें रहो तब तक रास ग्रन्थके वचनोंको नहीं छोड.ना. साथ ही परमधामके पच्चीस पक्षको भी अपने हृदयमें रखना. जिससे तुम पर मायाका प्रभाव नहीं पडे.गा.
अनेक विध में घणुंए कह्युं, हवे रखे खिण विहिला थाओजी।
रासतणी रामतडी जो जो, जे भरियां आपण पाओजी।।६
मैंने इस विषयमें आपको अनेक प्रकारसे समझाया है. अब एक क्षणके लिए भी धनीसे अलग न हों. अखण्ड रासकी आनन्दमयी रामतें देखो और विचार करो कि उस समय हमने कैसे प्रेमपूर्ण कदम रखे थे.
रास रामतडी रखे खिण मूको, जे आपण कीधी परमाणजी।
तमे घणुंए नव मूको माया, पण हुं नहीं मूकुं निरवाणजी।।
रासकी रामत (प्रेमानन्द लीला) को एक क्षणके लिए भी मत छोड.ो. जिनको निश्चित ही हमलोगोंने किया था. हे सुन्दरसाथजी ! यद्यपि तुम मायाको नहीं छोड.ोगे फिर भी मैं तुम्हें किसी भी प्रकारसे नहीं छोडूँगीं (समझाती रहूँगी).
कहे इन्द्रावती वचन वालानां, जे सुणियां आपण सारजी।
हवे लाख वातो जो करे रे माया, तो हुं नहीं मूकुं चरण निरधारजी।।८
इन्द्रावती कहती है, हमलोगांेने सद्गुरुके श्रेष्ठ वचन-तारतम ज्ञाानको सुना है. अब माया चाहे लाख बातें करके मुझे ठगनेका प्रयत्न करे फिर भी मैं निश्चय ही धनीके चरण नहीं छोडूँगी.
प्रकरण ३
prakash gujrati
यों हम ना करें तो और कौन करे, धनी हमारे कारन दूजा देह धरे ।
आतम मेरी निजधामकी सत, सो क्यों ना कर उजाला अत ।।२३
यदि हम ऐसा (इस तारतम ज्ञाानको फैलानेका) कार्य नहीं करेंगे तो अन्य कौन करेगा ? सद्गुरु धनीने हमारे लिए ही दूसरी बार शरीर धारण किया है. यदि मेरी आत्मा सचमुच परमधामकी है तो वह इस संसारमें परमधामके ज्ञाानका प्रकाश क्यों नहीं फैलाएगी ?
श्री सुन्दरबाईके चरन प्रताप, प्रगट कियो मैं अपनों आप ।
मोंसों गुनवंती बाइएं किए गुन, साथें भी किए अति घन ।।२४
सद्गुरु श्री देवचन्द्रजी (सुन्दरबाई) के चरणोंके प्रतापसे मैंने स्वयंको प्रकट किया है. मुझ पर श्रीगोवर्धन ठाकुर (गुणवन्तीबाई) ने बडे. उपकार किए हैं और सुन्दरसाथने भी मुझ पर बड.ा अनुग्रह किया है.
जोत करूं धनीकी दया, ए अंदर आएके कहया।
उडाए दियो सबको अंधेर, काढयो सबको उलटो फेर ।।२५
अब मैं धनीकी दयाको प्रकाशित करती हूँ. उन्होंने मेरे हृदयमें बैठकर ये वचन कहे हैं. उन्होंने इन वचनोंके द्वारा सबके अज्ञाानरूपी अन्धकारको दूर किया और संसारके समस्त जीवोंके जन्म-मरणके उलटे चक्रको समाप्त कर दिया.
प्रकरण २१
श्री प्रकास ग्रन्थ(हिन्दुस्थानी)
फेर फेर ना आवे ए अवसर, जिन हाम ले जागो घर ।
थोडेमें कह्या अति घना, जान्या धन क्यों खोइए अपना ।।७०
ऐसा अवसर बार-बार नहीं आएगा. इसलिए अपनी समस्त मायावी इच्छाओंका त्याग करते हुए परमधाममें जागृत हो जाओ. थोडे.-से ही शब्दोंमें मैंने बहुत कुछ कह दिया है. अपनेसे परिचित सद्गुरुरूपी धनको क्यों खो रहे हो ?
हम आगे ना समझे भए ढीठ, तो दई श्रीदेवचन्दजीएं पीठ ।
ना तो क्यों छोडे साथको एह, जो कछू किया होए सनेह ।।७१
पहले भी हम ढीठ बनकर बैठे रहे, तभी तो श्रीदेवचन्द्रजी हमें पीठ देकर चले गए. यदि हमने कुछ भी स्नेह दिखाया होता, तो वे हम सुन्दरसाथको छोड.कर क्यों चले जाते ?
अब फेर आए दूजा देह धर, दया आपन ऊपर अति कर ।
अब ए चेतन कर दिया अवसर, ज्यों हंसते बैठे जागिए घर ।। ७२
अब वे पुनः दूसरा शरीर धारण कर हमारे बीच पधारे हैं. उन्होंने हम पर अपार दया की है. तारतम ज्ञाान द्वारा हमें सचेत कर उन्होंने जागृतिके लिए पुनः यह अवसर दिया है, जिससे हम सब सुन्दरसाथ हँसते हुए परमधाममें उठ बैठें.
सब मनोरथ हुए पूरन, जो ए बानी बिचारो अंतसकरन ।
ए तो इन्द्रावती कहे फेर फेर, जो धाम धनी कृपा करी तुम पर ।।७३
यदि इस वाणी पर अन्तःकरणसे विचार कर देखोगे तो ज्ञाात होगा कि सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो गइंर् हैं. यह तो इन्द्रावती तुम्हें बार-बार कह रही है क्योंकि धामधनीने तुम पर अपार कृपा की है.
प्रकरण २९
लीला दोऊं पेहेले करी, दूजे फेरे भी दोए।
बिना तारतम ए माएने, न जाने कोए।।१२६
जिस प्रकार प्रथम अवतरणमें व्रज और रासकी दो लीलाएँ हुईं, उसी प्रकार दूसरी बार इस जागनीके ब्रह्माण्डमें भी दो प्रकारकी लीलाएँ (जागनी व्रज-श्रीसुन्दरबाई और जागनी रास-श्रीइन्द्रावतीके द्वारा) सम्पन्न हुई, किन्तु तारतम ज्ञाान पाए बिना इन अर्थोंको कोई नहीं समझ सकता.
एक में उपज्या तारतम, दूजे मिने उजास।
सब विध जाहेर होएसी, जागनी प्रकास।।१२
प्रथम स्वरूप निजानन्द स्वामी श्री देवचन्द्रजीमें यह तारतम ज्ञाान उदय हुआ एवं दूसरे स्वरूप श्री प्राणनाथजीसे इसका प्रकाश फैल गया. इस प्रकार जागनी लीलाका यह प्रकाश सब प्रकारसे विस्तृत होगा.
प्रकरण ३१
श्री प्रकास ग्रन्थ(हिन्दुस्थानी)
खरी वस्त जे थासे सही, ते रहेसे वचन रासना ग्रही।
जेम कह्युं छे करसे तेम, ते लेसे फलतणो तारतम।।२१
जो सच्ची ब्रह्मात्मा होगी, वे रासके वचन अवश्य ग्रहण करेगी और धनीजीने जो कहा है उसी आदेशका पालन करेगी. ऐसी आत्माएँ तारतमका फल (पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्ण एवं परमधाम) प्राप्त करेगी.
प्रकरण ३४ श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
घर श्री धाम अने श्रीक्रस्न, ए फल सार तणो तारतम।
तारतमे अजवालुं अति थाए, आसंका नव रहे मन मांहे।।२३
हमारा घर अखण्ड परमधाम तथा हमारे धनी श्रीकृष्ण यही तारतमका सार फल है. इस तारतम ज्ञाान द्वारा अत्यन्त प्रकाश फैलता है. जिससे मनमें किसी भी प्रकारकी शंका नहीं रहती है.
प्रकरण ३३
श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
ब्रह्मांड मांहे आवियों एह, मन तणां भाजवा संदेह।
साथ माहें एक सुन्दरबाई, तेणे श्रीराजे दीधी बडाई।।१९
मनकी आकांक्षा पूर्ण करनेके लिए हम सब इस ब्रह्माण्डमें आ गए. ब्रह्मात्माओंमेंसे सुन्दरबाईको श्री राजजीने बड.प्पन (अग्रता) प्रदान किया.
आवेस अंग आपी आधार, दई तारतम उघाडयां बार।
घर थकी वचन लई आवियां, ते तां सुंदरबाईने कह्यां।।२०
अपने अङ्गस्वरूपा श्री सुन्दरबाईको श्रीराजजीने अपनी आवेश शक्ति दी. तारतम ज्ञाान देकर परमधामके अखण्ड सुखोंका द्वार खोल दिया. वे स्वयं अखण्ड परमधामसे तारतमके वचन लेकर आए और सुन्दरबाईको वे वचन कहे.
साथ वचन सांभलियां एह, वासनाए कीधां मूल सनेह।
ते मांहे एक इन्द्रावती, कहेवाणी सहुमां महामती।।२१
सद्गुरुके पाससे सुन्दरसाथने वे वचन सुने और वे उनसे मूल परमधामका जैसा ही प्रेम करने लगे. उन सुन्दरसाथमेंसे एक इन्द्रावतीकी आत्मा थी जो सबमें
महामति (उत्तम बुद्धियुक्त) कहलाई.
तारतम अंग थयो विस्तार, उदर आव्या बुध अवतार।
इछा दया ने आवेस, एणे अंग कीधो प्रवेस।।२२
इन्द्रावतीके अंगसे (मुझसे) तारतम ज्ञाानका विस्तार हो गया, तथा अक्षरकी जागृत बुद्धि उनके अन्तःकरणमें समा गई. इच्छा (धनीकी आज्ञाा), दया (श्यामाजीकी आत्मा) तथा श्री राजजीका आवेश ये सब मिलकर इन्द्रावतीके अङ्गमें समाहित हो गए.
प्रकरण ३७
श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
हमारा घर अखण्ड परमधाम तथा हमारे धनी श्रीकृष्ण यही तारतमका सार फल है. इस तारतम ज्ञाान द्वारा अत्यन्त प्रकाश फैलता है. जिससे मनमें किसी भी प्रकारकी शंका नहीं रहती है.
प्रकरण ३३
श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
ब्रह्मांड मांहे आवियों एह, मन तणां भाजवा संदेह।
साथ माहें एक सुन्दरबाई, तेणे श्रीराजे दीधी बडाई।।१९
मनकी आकांक्षा पूर्ण करनेके लिए हम सब इस ब्रह्माण्डमें आ गए. ब्रह्मात्माओंमेंसे सुन्दरबाईको श्री राजजीने बड.प्पन (अग्रता) प्रदान किया.
आवेस अंग आपी आधार, दई तारतम उघाडयां बार।
घर थकी वचन लई आवियां, ते तां सुंदरबाईने कह्यां।।२०
अपने अङ्गस्वरूपा श्री सुन्दरबाईको श्रीराजजीने अपनी आवेश शक्ति दी. तारतम ज्ञाान देकर परमधामके अखण्ड सुखोंका द्वार खोल दिया. वे स्वयं अखण्ड परमधामसे तारतमके वचन लेकर आए और सुन्दरबाईको वे वचन कहे.
साथ वचन सांभलियां एह, वासनाए कीधां मूल सनेह।
ते मांहे एक इन्द्रावती, कहेवाणी सहुमां महामती।।२१
सद्गुरुके पाससे सुन्दरसाथने वे वचन सुने और वे उनसे मूल परमधामका जैसा ही प्रेम करने लगे. उन सुन्दरसाथमेंसे एक इन्द्रावतीकी आत्मा थी जो सबमें
महामति (उत्तम बुद्धियुक्त) कहलाई.
तारतम अंग थयो विस्तार, उदर आव्या बुध अवतार।
इछा दया ने आवेस, एणे अंग कीधो प्रवेस।।२२
इन्द्रावतीके अंगसे (मुझसे) तारतम ज्ञाानका विस्तार हो गया, तथा अक्षरकी जागृत बुद्धि उनके अन्तःकरणमें समा गई. इच्छा (धनीकी आज्ञाा), दया (श्यामाजीकी आत्मा) तथा श्री राजजीका आवेश ये सब मिलकर इन्द्रावतीके अङ्गमें समाहित हो गए.
प्रकरण ३७
श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
संभारो साथ, अवसर आव्यो छे हाथजी।
आप नाख्या जेम पहेले फेरे, वली नाखजो एम निघातजी।।१
इन्द्रावती कहती है, हे सुन्दरसाथ जी ! स्मरण करो, हमें तीसरे ब्रह्माण्डमें पहुँचनेका सुअवसर प्राप्त हुआ है. हमने जिस प्रकार प्रथम बार (व्रजसे रासमें जाते समय) अपनी आत्माको धामधनी श्री कृष्णके चरणोंमें सर्मिपत किया था उसी प्रकार जागनीके इस ब्रह्माण्डसे परमधाममें जागृत होनेके लिए भी अपनी आत्माको निश्चित रूपसे सर्मिपत करो.
सुन्दरबाई आपण माटे, आव्यां छे आणी वारजी।
ए आपणने अलगां नव करे, कांई मोकल्यां छे प्राण आधारजी।। २
सुन्दरबाई अर्थात् सद्गुरु श्रीदेवचन्द्रजी महाराज हमारे लिए इस जागनीके ब्रह्माण्डमें आए हैं. वे हमें स्वयंसे अलग नहीं करेंगे क्योंकि धामधनीने उन्हें परमधामसे भेजा है.
सुपनातरमां खिण न मूके, तो साख्यात अलगां केम थाएजी ।
कृपा वालाजीनी केही कहुं, जो जुए जीव रुदया मांहेजी ।। ३
स्वप्नवत् लीला-व्रज और रासके ब्रह्माण्डमें (परमधाम तथा धामधनीका पूरा परिचय प्राप्त न होनेपर उसे स्वप्नवत् कहा है) भी प्रियतम धनी श्रीकृष्णने ब्रह्मात्माओंको क्षणमात्रके लिए भी अलग नहीं किया, तो इस जागनीके ब्रह्माण्डमें साक्षात् सद्गुरुके रूपमें पधारे हुए हमारे धनी श्री श्यामाश्याम हमसे अलग कैसे होंगे ? इसलिए उनकी कृपाका वर्णन किस प्रकार करूँ ? यदि जीव हृदयपूर्वक विचार कर देखे तो उसे अनुभव होगा कि प्रियतमकी दयाका वर्णन नहीं हो सकता है.
एवडी वात वालो करे रे आपणसुं, पण नथी कांई साथने सारजी ।
भरम उडाडी जो आपण जोइए, तो बेठा छे आपणमां आधारजी ।।४
प्रियतम धनी ऐसी महत्त्वपूर्ण बात हमसे कहते हैं, परन्तु सुन्दरसाथको इसका कुछ भी ज्ञाान नहीं है. यदि हम अपने भ्रमको दूर कर देखें तो निश्चित कर पाएँगे कि प्रियतम धनी हमारे अन्दर ही विराजमान हैं.
सुपनातरमां मनोरथ कीधां, तो तिहां पण वालोजी साथजी।
सुन्दरबाई लई आवेस धणीनो, नव मूके आपणो हाथजी।।५
स्वप्नवत् ब्रह्माण्ड-व्रज तथा रासमें हम लोगोंने जो इच्छाएँ व्यक्त की थीं वहाँ भी प्रियतम श्रीकृष्ण हमारे साथ रहे. इस तीसरे ब्रह्माण्डमें सुन्दरबाई श्री धणीका आवेश लेकर सद्गुरुके रूपमें आईं हैं. अब वे हमारा हाथ नहीं छोड.ेंगी.
तिलमात्र दुख नव दिए रे आपणने, जो जोइए वचन विचारीजी।
दुख आपणने तो ज थाय छे, जो संसार कीजे छे भारीजी।।६
धामधनीने हमें थोड.ा-सा भी दुःख नहीं दिया. हम उनके वचनों पर विचार करें तो हमें ऐसा अनुभव होगा कि हम तो सांसारिक सुखोंको ही महत्त्व देकर उन्हींमें मग्न रहते हैं इसलिए हमें दुःखका अनुभव होता है.
अंतरध्यान समे दुख दीधां, ए आसंका मन मांहेजी।
एणे समे संसार भारी नव कीधो, साथे दुख दीठां एम कांएजी।।
रासलीलाके समय जब श्रीकृष्ण अन्तर्धान हुए तो हम ब्रह्मात्माओंको दुःखका अनुभव हुआ. अब मनमें यह आशंका उठती है कि उस समय हमने संसारकी ममता एवं आसक्तिको महत्त्व नहीं दिया था फिर भी हमें इस प्रकारका दुःख क्यों देखना पड.ा ?
दुख तां केमे न दिए रे वालोजी, ए तां विचारीने जोइएजी।
सांभरे वचन तो ज रे सखियो, जो माया मूकतां घणुं रोईएजी।।८
इन्द्रावती कहती है, प्रियतम धनी किसी भी प्रकारका दुःख नहीं देते हैं. इस वास्तविकताको तारतम ज्ञाान द्वारा विचार करके देखो. हे सखियो ! मायाको छोड.ते हुए हमें बड.ा दुःख लगता है. अतः परमधामके वचनोंका स्मरण करानेके लिए ही रासके समय श्रीकृष्ण अन्तर्धान हुए हैं.
वचन संभारवाने काजे मारे वाले, दुख दीधां अति घणांजी।
आपण मनोरथ एहज कीधां, वाले राख्यां मन आपणांजी।।९
मूल वचन (मायावी दुःख देखनेकी इच्छा) का स्मरण करानेके लिए ही हमारे प्रियतम धनीने हमें अन्तर्धानके समय दुःख दिया है. कारण यह है कि हमलोगोंने परमधाममें यही (दुःखरूपी खेल देखनेकी) इच्छा की थी. इसलिए प्रियतम धनीने हमारी मनोकामनाएँ पूरी की.
आपण मायानी होंस ज कीधी, अने माया तो दुख निधानजी।
ते संभारवाने काजे रे सखियो, वालो पाम्यां ते अंतरधानजी।।१०
हे सुन्दरसाथजी ! हमने माया देखनेकी इच्छा व्यक्त की थी. निश्चय ही यह माया तो दुःखरूप ही है. इन वचनोंका स्मरण करानेके लिए प्रियतम श्रीकृष्णजी अन्तर्धान हुए थे.
नहीं तो अधखिण ए रे आपणो, नव सहे विछोहजी।
ए तां विचारीने जोइए रे सखियो, तो तारतम भाजे संदेहजी।।११
अन्यथा प्रियतम श्रीकृष्ण आधे क्षणके लिए भी हमारा वियोग सहन नहीं कर सकते. इन वचनों पर विचार करके देखोगी तो हे सखियो ! तारतम ज्ञाान सभी सन्देह मिटा देता है.
एणे समे तारतमनी समझण, ते में केम कहेवायजी।
अनेक विधनुं तारतम इहां, तेणे घर लीला प्रगट थायजी।।१२
अब इस समय तारतम ज्ञाानकी समझ हमें प्राप्त हो चुकी है. मैं किस प्रकार इसके गुणगान करूँ ? इस जागनीके ब्रह्माण्डमें तो तारतम ज्ञाानके अखण्ड प्रकाश द्वारा विभिन्न लीलाएँ (परमधाम, व्रज, रास और जागनी) स्पष्ट होतीं हैं.
ओलखवाने धणी आपणो, कहुं तारतम विचारजी ।
साथ सकल तमे ग्रहजो चितसुं, नहीं राखुं संदेह लगारजी।।१३
अपने धामधनी और मूल घर परमधामका परिचय देनेके लिए तारतम ज्ञाानका विवेचन कर रही हूँ. हे सुन्दरसाथजी ! तुम सब एकाग्र चित्त होकर इसे ग्रहण करो. आपके मनमें तनिक भी शंका रहने नहीं दूँगी.
पहेले फेरे तां ए निध ना हुती, अजवालुं तारतमजी।
तो आ फेरो थयो आपणने, साथ जुओ विचारी मनजी।।१४
प्रथम बार व्रज तथा रासलीलाके समय यह तारतम ज्ञाानरूपी निधि हमारे पास नहीं थी. तारतम ज्ञाानका प्रकाश भी नहीं था. इसलिए हमें इस ब्रह्माण्डमें आना पड.ा. हे सुन्दरसाथजी ! इस बात पर विचार करके देखो.
उत्कंठा नव रहे केहनी, जो कीजे तारतमनो विचारजी।
तारतमतणुं अजवालुं लईने, आव्या आपणमां आधारजी।।१५
यदि तारतम ज्ञाान पर विचार करके देखें तो किसीके भी मनमें किसी भी प्रकारकी उत्कण्ठा शेष नहीं रहेगी. ऐसे ज्ञाानका प्रकाश लेकर हमारे बीच धामधनी सद्गुरुके रूपमें पधारे हैं.
एणे अजवाले जो न ओलख्या, तो आपणमां अति मणांजी।
चरणे लागी कहे इन्द्रावती, वालो नव मूके गुण आपणांजी।।१६
इस तारतमके प्रकाशमें भी यदि हम सद्गुरु धनीकी पहचान न कर सके तो मानना चाहिए कि हममें अत्यधिक कमी है. इन्द्रावती चरणोंमें प्रणाम कर कहती है, प्रियतम धनी तो हमें कृतार्थ करनेका अपना स्वभाव नहीं छोडें.गे.
प्रकरण २
सकल साथ, रखे कोई वचन विसारोजी।
धणी मल्या आपणने मायामां, अवसर आज तमारोजी।।१
इन्द्रावती कहती है, हे सुन्दरसाथजी ! सद्गुरुके वचनोंको भूलना नहीं. इस मायावी संसारमें धामधनी हमें सद्गुरुके रूपमें प्राप्त हुए हैं. तुम्हेंे यह सुयोग्य अवसर प्राप्त हुआ है.
सुन्दरबाई अंतरगत कहावे, प्रकास वचन अति भारीजी।
साथ सकल तमे मली सांभलो, जो जो तारतम विचारीजी।।२
सद्गुरु श्रीदेवचन्द्रजी (सुन्दरबाई) मेरे हृदयमें विराजमान होकर (मेरे द्वारा) कहलवाते हैं कि प्रकाश ग्रन्थ (प्रकाश वचन) की बातें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और र्मािमक हैं. हे सुन्दरसाथजी ! तुम सब मिलकर सुनो और तारतम ज्ञाान पर विचार करो.
साथजी एणे पगले चालजो, पगलां ते एह प्रमाणजी।
प्रगट तमने पहेले कह्युं, वली कहुं छुं निरवाणजी।।३
हे सुन्दरसाथजी ! इस प्रेम मार्गका अनुसरण करो (जिस प्रकार व्रजभूमिसे निकलकर रासमण्डलमें जाते समय सांसारिक ममताका त्याग किया था). वास्तवमें यही मार्ग हमारा योग्य मार्ग है. इससे पूर्व (रास ग्रन्थमें) भी मैंने ये बातें स्पष्ट शब्दोंमें कही थी अब पुनः इसीको निश्चयपूर्वक कहती हूँ.
हवे रखे माया मन धरो, तमे जोई ते अनेक जुगतजी।
कै कै पेरे कह्युं में तमने, तमे हजी न पाम्यां त्रपतजी।।४
अब मायाके प्रति रुचि मत रखो. तुम सबने इसे युक्तिपूर्वक देखा है. इसके (छल-कपट, और कुटिलताके) विषयमें मैंने तुम्हें कई बार कहा है तथापि तुम अभी तक इससे तृप्त नहीं हुए हो.
जिहां लगे तमे रहो रे मायामां, रखे खिण मूको रासजी।
पचवीस पख लेजो आपणां, तमने नहीं लोपे मायानो पासजी।।५
जब तक तुम इस मायावी संसारमें रहो तब तक रास ग्रन्थके वचनोंको नहीं छोड.ना. साथ ही परमधामके पच्चीस पक्षको भी अपने हृदयमें रखना. जिससे तुम पर मायाका प्रभाव नहीं पडे.गा.
अनेक विध में घणुंए कह्युं, हवे रखे खिण विहिला थाओजी।
रासतणी रामतडी जो जो, जे भरियां आपण पाओजी।।६
मैंने इस विषयमें आपको अनेक प्रकारसे समझाया है. अब एक क्षणके लिए भी धनीसे अलग न हों. अखण्ड रासकी आनन्दमयी रामतें देखो और विचार करो कि उस समय हमने कैसे प्रेमपूर्ण कदम रखे थे.
रास रामतडी रखे खिण मूको, जे आपण कीधी परमाणजी।
तमे घणुंए नव मूको माया, पण हुं नहीं मूकुं निरवाणजी।।
रासकी रामत (प्रेमानन्द लीला) को एक क्षणके लिए भी मत छोड.ो. जिनको निश्चित ही हमलोगोंने किया था. हे सुन्दरसाथजी ! यद्यपि तुम मायाको नहीं छोड.ोगे फिर भी मैं तुम्हें किसी भी प्रकारसे नहीं छोडूँगीं (समझाती रहूँगी).
कहे इन्द्रावती वचन वालानां, जे सुणियां आपण सारजी।
हवे लाख वातो जो करे रे माया, तो हुं नहीं मूकुं चरण निरधारजी।।८
इन्द्रावती कहती है, हमलोगांेने सद्गुरुके श्रेष्ठ वचन-तारतम ज्ञाानको सुना है. अब माया चाहे लाख बातें करके मुझे ठगनेका प्रयत्न करे फिर भी मैं निश्चय ही धनीके चरण नहीं छोडूँगी.
प्रकरण ३
prakash gujrati
यों हम ना करें तो और कौन करे, धनी हमारे कारन दूजा देह धरे ।
आतम मेरी निजधामकी सत, सो क्यों ना कर उजाला अत ।।२३
यदि हम ऐसा (इस तारतम ज्ञाानको फैलानेका) कार्य नहीं करेंगे तो अन्य कौन करेगा ? सद्गुरु धनीने हमारे लिए ही दूसरी बार शरीर धारण किया है. यदि मेरी आत्मा सचमुच परमधामकी है तो वह इस संसारमें परमधामके ज्ञाानका प्रकाश क्यों नहीं फैलाएगी ?
श्री सुन्दरबाईके चरन प्रताप, प्रगट कियो मैं अपनों आप ।
मोंसों गुनवंती बाइएं किए गुन, साथें भी किए अति घन ।।२४
सद्गुरु श्री देवचन्द्रजी (सुन्दरबाई) के चरणोंके प्रतापसे मैंने स्वयंको प्रकट किया है. मुझ पर श्रीगोवर्धन ठाकुर (गुणवन्तीबाई) ने बडे. उपकार किए हैं और सुन्दरसाथने भी मुझ पर बड.ा अनुग्रह किया है.
जोत करूं धनीकी दया, ए अंदर आएके कहया।
उडाए दियो सबको अंधेर, काढयो सबको उलटो फेर ।।२५
अब मैं धनीकी दयाको प्रकाशित करती हूँ. उन्होंने मेरे हृदयमें बैठकर ये वचन कहे हैं. उन्होंने इन वचनोंके द्वारा सबके अज्ञाानरूपी अन्धकारको दूर किया और संसारके समस्त जीवोंके जन्म-मरणके उलटे चक्रको समाप्त कर दिया.
प्रकरण २१
श्री प्रकास ग्रन्थ(हिन्दुस्थानी)
फेर फेर ना आवे ए अवसर, जिन हाम ले जागो घर ।
थोडेमें कह्या अति घना, जान्या धन क्यों खोइए अपना ।।७०
ऐसा अवसर बार-बार नहीं आएगा. इसलिए अपनी समस्त मायावी इच्छाओंका त्याग करते हुए परमधाममें जागृत हो जाओ. थोडे.-से ही शब्दोंमें मैंने बहुत कुछ कह दिया है. अपनेसे परिचित सद्गुरुरूपी धनको क्यों खो रहे हो ?
हम आगे ना समझे भए ढीठ, तो दई श्रीदेवचन्दजीएं पीठ ।
ना तो क्यों छोडे साथको एह, जो कछू किया होए सनेह ।।७१
पहले भी हम ढीठ बनकर बैठे रहे, तभी तो श्रीदेवचन्द्रजी हमें पीठ देकर चले गए. यदि हमने कुछ भी स्नेह दिखाया होता, तो वे हम सुन्दरसाथको छोड.कर क्यों चले जाते ?
अब फेर आए दूजा देह धर, दया आपन ऊपर अति कर ।
अब ए चेतन कर दिया अवसर, ज्यों हंसते बैठे जागिए घर ।। ७२
अब वे पुनः दूसरा शरीर धारण कर हमारे बीच पधारे हैं. उन्होंने हम पर अपार दया की है. तारतम ज्ञाान द्वारा हमें सचेत कर उन्होंने जागृतिके लिए पुनः यह अवसर दिया है, जिससे हम सब सुन्दरसाथ हँसते हुए परमधाममें उठ बैठें.
सब मनोरथ हुए पूरन, जो ए बानी बिचारो अंतसकरन ।
ए तो इन्द्रावती कहे फेर फेर, जो धाम धनी कृपा करी तुम पर ।।७३
यदि इस वाणी पर अन्तःकरणसे विचार कर देखोगे तो ज्ञाात होगा कि सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो गइंर् हैं. यह तो इन्द्रावती तुम्हें बार-बार कह रही है क्योंकि धामधनीने तुम पर अपार कृपा की है.
प्रकरण २९
लीला दोऊं पेहेले करी, दूजे फेरे भी दोए।
बिना तारतम ए माएने, न जाने कोए।।१२६
जिस प्रकार प्रथम अवतरणमें व्रज और रासकी दो लीलाएँ हुईं, उसी प्रकार दूसरी बार इस जागनीके ब्रह्माण्डमें भी दो प्रकारकी लीलाएँ (जागनी व्रज-श्रीसुन्दरबाई और जागनी रास-श्रीइन्द्रावतीके द्वारा) सम्पन्न हुई, किन्तु तारतम ज्ञाान पाए बिना इन अर्थोंको कोई नहीं समझ सकता.
एक में उपज्या तारतम, दूजे मिने उजास।
सब विध जाहेर होएसी, जागनी प्रकास।।१२
प्रथम स्वरूप निजानन्द स्वामी श्री देवचन्द्रजीमें यह तारतम ज्ञाान उदय हुआ एवं दूसरे स्वरूप श्री प्राणनाथजीसे इसका प्रकाश फैल गया. इस प्रकार जागनी लीलाका यह प्रकाश सब प्रकारसे विस्तृत होगा.
प्रकरण ३१
श्री प्रकास ग्रन्थ(हिन्दुस्थानी)
खरी वस्त जे थासे सही, ते रहेसे वचन रासना ग्रही।
जेम कह्युं छे करसे तेम, ते लेसे फलतणो तारतम।।२१
जो सच्ची ब्रह्मात्मा होगी, वे रासके वचन अवश्य ग्रहण करेगी और धनीजीने जो कहा है उसी आदेशका पालन करेगी. ऐसी आत्माएँ तारतमका फल (पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्ण एवं परमधाम) प्राप्त करेगी.
प्रकरण ३४ श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
घर श्री धाम अने श्रीक्रस्न, ए फल सार तणो तारतम।
तारतमे अजवालुं अति थाए, आसंका नव रहे मन मांहे।।२३
हमारा घर अखण्ड परमधाम तथा हमारे धनी श्रीकृष्ण यही तारतमका सार फल है. इस तारतम ज्ञाान द्वारा अत्यन्त प्रकाश फैलता है. जिससे मनमें किसी भी प्रकारकी शंका नहीं रहती है.
प्रकरण ३३
श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
ब्रह्मांड मांहे आवियों एह, मन तणां भाजवा संदेह।
साथ माहें एक सुन्दरबाई, तेणे श्रीराजे दीधी बडाई।।१९
मनकी आकांक्षा पूर्ण करनेके लिए हम सब इस ब्रह्माण्डमें आ गए. ब्रह्मात्माओंमेंसे सुन्दरबाईको श्री राजजीने बड.प्पन (अग्रता) प्रदान किया.
आवेस अंग आपी आधार, दई तारतम उघाडयां बार।
घर थकी वचन लई आवियां, ते तां सुंदरबाईने कह्यां।।२०
अपने अङ्गस्वरूपा श्री सुन्दरबाईको श्रीराजजीने अपनी आवेश शक्ति दी. तारतम ज्ञाान देकर परमधामके अखण्ड सुखोंका द्वार खोल दिया. वे स्वयं अखण्ड परमधामसे तारतमके वचन लेकर आए और सुन्दरबाईको वे वचन कहे.
साथ वचन सांभलियां एह, वासनाए कीधां मूल सनेह।
ते मांहे एक इन्द्रावती, कहेवाणी सहुमां महामती।।२१
सद्गुरुके पाससे सुन्दरसाथने वे वचन सुने और वे उनसे मूल परमधामका जैसा ही प्रेम करने लगे. उन सुन्दरसाथमेंसे एक इन्द्रावतीकी आत्मा थी जो सबमें
महामति (उत्तम बुद्धियुक्त) कहलाई.
तारतम अंग थयो विस्तार, उदर आव्या बुध अवतार।
इछा दया ने आवेस, एणे अंग कीधो प्रवेस।।२२
इन्द्रावतीके अंगसे (मुझसे) तारतम ज्ञाानका विस्तार हो गया, तथा अक्षरकी जागृत बुद्धि उनके अन्तःकरणमें समा गई. इच्छा (धनीकी आज्ञाा), दया (श्यामाजीकी आत्मा) तथा श्री राजजीका आवेश ये सब मिलकर इन्द्रावतीके अङ्गमें समाहित हो गए.
प्रकरण ३७
श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
हमारा घर अखण्ड परमधाम तथा हमारे धनी श्रीकृष्ण यही तारतमका सार फल है. इस तारतम ज्ञाान द्वारा अत्यन्त प्रकाश फैलता है. जिससे मनमें किसी भी प्रकारकी शंका नहीं रहती है.
प्रकरण ३३
श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
ब्रह्मांड मांहे आवियों एह, मन तणां भाजवा संदेह।
साथ माहें एक सुन्दरबाई, तेणे श्रीराजे दीधी बडाई।।१९
मनकी आकांक्षा पूर्ण करनेके लिए हम सब इस ब्रह्माण्डमें आ गए. ब्रह्मात्माओंमेंसे सुन्दरबाईको श्री राजजीने बड.प्पन (अग्रता) प्रदान किया.
आवेस अंग आपी आधार, दई तारतम उघाडयां बार।
घर थकी वचन लई आवियां, ते तां सुंदरबाईने कह्यां।।२०
अपने अङ्गस्वरूपा श्री सुन्दरबाईको श्रीराजजीने अपनी आवेश शक्ति दी. तारतम ज्ञाान देकर परमधामके अखण्ड सुखोंका द्वार खोल दिया. वे स्वयं अखण्ड परमधामसे तारतमके वचन लेकर आए और सुन्दरबाईको वे वचन कहे.
साथ वचन सांभलियां एह, वासनाए कीधां मूल सनेह।
ते मांहे एक इन्द्रावती, कहेवाणी सहुमां महामती।।२१
सद्गुरुके पाससे सुन्दरसाथने वे वचन सुने और वे उनसे मूल परमधामका जैसा ही प्रेम करने लगे. उन सुन्दरसाथमेंसे एक इन्द्रावतीकी आत्मा थी जो सबमें
महामति (उत्तम बुद्धियुक्त) कहलाई.
तारतम अंग थयो विस्तार, उदर आव्या बुध अवतार।
इछा दया ने आवेस, एणे अंग कीधो प्रवेस।।२२
इन्द्रावतीके अंगसे (मुझसे) तारतम ज्ञाानका विस्तार हो गया, तथा अक्षरकी जागृत बुद्धि उनके अन्तःकरणमें समा गई. इच्छा (धनीकी आज्ञाा), दया (श्यामाजीकी आत्मा) तथा श्री राजजीका आवेश ये सब मिलकर इन्द्रावतीके अङ्गमें समाहित हो गए.
प्रकरण ३७
श्री प्रकास ग्रन्थ (गुजराती)
No comments:
Post a Comment