Wednesday, December 26, 2012
Monday, December 24, 2012
Aatma
Atma is never born nor it everdies that is to say.Atma is unborn Etrnal constant Ancient it is not killed but it is the body which is slain . To be born,to exist ,to grow ,to decay to perish -this six kinds of modifications belongs to the body reducing itself into primary elements of which it was composed of .Vide Ref Gita chap.2nd stanza 28
Tuesday, December 18, 2012
Monday, December 17, 2012
Taratam sagar
મારા વહાલા સહું સુંદરસાથજીને સાદર પ્રેમ પ્રણામ સાથે જણાવવાનું કે સતગુરુ શ્રી નિજાનંદ સ્વામી દ્વારા સ્થાપિત તથા તેમના પટુશિષ્ય મહામતિ પ્રાણનાથજીથી પ્રચારમાં આવેલું શ્રી નિજાનંદ સંપ્રદાય -શ્રી કૃષ્ણ પ્રણામી ધર્મનું પૂજનીય તથા આદરણીય ગ્રંથ શ્રી તરતામસાગરનું વાંચન કરજો જેનાથી તમોને પાતાળથી લઈને પરમધામ સુધીનું જ્ઞાન મળી જશે, જે ગ્રંથના ચૌદ ભાગ આ રીતે છે .1રાસ ,2,પ્રકાશ 3,શટઋતું,4-કળશ,5,સનંધ ,6-કીર્તન, 7-ખુલાસા ,8-ખીલવત ,9-પરિકરમાં ,10-સાગર,11-સિનગર ,12-સિંધી , 13-મારફતસાગર તથા કયામાંતનામાં આ રીતે 14 ભાગ મળીને એક સ્વરૂપ ઉભો થયા છે
એટલે આ ગ્રંથને સ્વરૂપસાહેબ કહેવામાં આવે છે
રાસનું પ્રકાસ થયો તે પ્રકાશનું પ્રકાસ ,તે ઉપર વળી કલસ ધરું તેમાં કરુણ તે અતિ અજવાસ ..
বাং ভাষীবান্ধুজান্যা শুভকামনা করছি .
એટલે આ ગ્રંથને સ્વરૂપસાહેબ કહેવામાં આવે છે
રાસનું પ્રકાસ થયો તે પ્રકાશનું પ્રકાસ ,તે ઉપર વળી કલસ ધરું તેમાં કરુણ તે અતિ અજવાસ ..
বাং ভাষীবান্ধুজান্যা শুভকামনা করছি .
Sunday, December 16, 2012
ऐसी स्त्री के संग रहती है लक्ष्मी
इसी बात को सामने रख सोचें तो भारतीय धर्म परंपराओं में स्त्री को भी लक्ष्मी रुप मानने के पीछे सुख देने वाली उसकी वह शक्ति है, जो वह मां, बेटी और अन्य सभी रिश्तों के द्वारा सृजन, पालन, सेवा के रूप में परिवार, समाज या जगत को देती है। जिनसे कुटुंब खुशहाल और सुखी होता है। धार्मिक मान्यता भी यही है कि देवता खासतौर पर धन और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी उसी स्थान पर वास करती है। जहां दरिद्रता और आलस्य न हो। यही कारण है कि जो स्त्री घर की व्यवस्थाओं और माहौल को अपने व्यवहार, आचरण और विचारों से पवित्र रखती है, उसे लक्ष्मी और उस घर में लक्ष्मी का वास माना जाता है।
शास्त्रों में भी बताया गया है कि लक्ष्मी ऐसी स्त्रियों पर हमेशा प्रसन्न रहती है। किंतु इसके लिए उसका व्यवहार और आचरण कैसा होना चाहिए? जानते हैं -
- सच बोलने वाली स्त्री। जिस स्त्री के बोल, व्यवहार और विचारों में सच समाया होता है, उससे लक्ष्मी बहुत खुश रहती है।
- पतिव्रता स्त्री यानि पति के लिए हर तरह से समर्पित और सेवा का भाव रखने वाली।
- जिस स्त्री का तन, मन और व्यवहार साफ हो।
- धार्मिक यानि देवता, शिक्षित और ब्राह्मणों को सम्मान देने वाली स्त्री।
- घर आए अतिथि की सेवा-सत्कार करने वाली स्त्री।
- सहनशील स्त्री यानि जो स्त्री पति या परिवार के सदस्यों की बड़ी से बड़ी गलती या दोष को भी माफ कर दे। दूसरे अर्थों में क्षमा का भाव रखने वाली स्त्री।
नारद भक्ति हैं, भगवान ने उनकी बातें सुन मन-ही-मन कह दिया तथास्तु। नारद
स्वयं त्रिकालदर्षी भी हैं और भगवान के टाइमकीपर भी। भगवान की व्रजलीलाएं
पूर्व हो रही हैं, सो वे भगवान को यह याद दिलाने आए हैं कि अब मथुरा,
हस्तिनापुर, कुरूक्षेत्र और द्वारिका की लीलाओं का समय आ रहा है। एक अच्छे
सहायक का यह कर्तव्य भी है कि स्वामी के सावधान रहने पर भी उन्हें समय-समय
पर सारे कामों की याद दिलाता रहे। नारद यही करते हैं। आप जल्द से जल्द
बलराम और कृष्ण को यहां ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं। उनको मार डालने
में क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुष यज्ञ के
दर्शन और यदुवंशियों की राजधानी मथुरा की शोभा देखने के लिए यहां जाएं।
केशी-व्योमासुर वध-केशी दैत्य के द्वारा हत्या की योजना बनाई। कैशी अश्व के
रूप में वृंदावन पहुंचा, लेकिन कृष्ण ने उसको पहचान लिया। उसके गले में
अपना लोह सदृश हाथ डालकर उसके प्राण ही खेंच लिए। केशी के वध का समाचार कंस
ने जब सुना, तो व्योमासुर को वृन्दावन भेजा। वृन्दावन में व्योमासुर का भी
प्राणान्त कर दिया। कंस ने जिस केशी नामक दैत्य को भेजा था, वह बड़े भारी
घोड़े के रूप में मन के समान वेग से दौड़ता हुआ व्रज में आया। भगवान्
श्रीकृष्ण ने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहने वाला गोकुल भयभीत
हो रहा है।
उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिए और जैसे गरुड़ सांप को पकड़कर झटक देते हैं, उसी प्रकाश क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गए। इसके बाद वह क्रोध से तिलमिलाकर और मुंह फाड़कर बड़े वेग से भगवान् की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान् मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बांया हाथ उसके मुंह में इस प्रकार डाल दिया जैसे सर्प बिना किसी आशंका के अपने बिल में घुस जाता है।थोड़ी ही देर में उसका शरीर निष्चेश्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसके प्राण पखेरू उड़ गए। देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी और समस्त जीवों के सच्चे हितैशी हैं। कंस के यहां से लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के पास आए और एकांत में उनसे कहने लगे-यह बड़े आनन्द की बात है कि आपने खेल ही खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुश्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को भी मरते देखूंगा। उसके बाद शंखासुर, काल-यवन, मुर और नरकासुर का वध देखूंगा। आप स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्र के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदि का शुल्क देकर वीर-कन्याओं से विवाह करेंगे और जगदीश्वर!
आप द्वारका में रहते हुए नृग को पाप से छुड़ायेंगे। आप जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को जाम्बवान् से ले आएंगे और अपने धाम से ब्राह्मण के मरे हुए पुत्रों को ला देंगे। इसके पश्चात आप पौण्ड्रक मिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल को और वहां से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्र को नष्ट करेंगे। प्रभो! द्वारका में निवास करते समय आप और भी बहुत से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गाएंगे। मैं वह सब देखूंगा।
इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए कालरूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आंखों से देखूंगा। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिए मनुष्य का सा श्रीविग्रह प्रकट किया है। और आप यदु, वृश्णि तथा सात्वतवंषियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूं। भगवान् के दर्शनों के आहाद से नारदजी का रोम रोम खिल उठा। तदन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गए। इधर भगवान् श्रीकृष्णा कोषी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्न चित्त ग्वालबालों के साथ पूर्ववत् पशुपालन के काम में लग गए।
जब व्यामासुर खेलने लगा कृष्ण के साथ?
एक समय वे सब ग्वालबाल पहाड़ की चोटियों पर गाय आदि पशुओं को चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपाने का लुका-लुकी का खेल खेल रहे थे। उसी समय ग्वाल का वेष धारण करके व्योमासुर वहां आया। वह मायावियों के आचार्य मयासुर का पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेल में बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत से बालकों को चुराकर छिपा आता। वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़ की गुफा में ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालों में केवल चार-पांच बालक ही बच रहे। भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गए। जिस समय वह ग्वालबालों को लिए जा रहा था, उसी समय उन्होंने जैसे सिंह भेडिय़े को दबोच ले, उसी प्रकार उसे धर दबाया। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़ के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपने को छुड़ा लूं। परन्तु भगवान् ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजे में फांस लिया था कि वह अपने को छुड़ा न सका। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दानों हाथों से जकड़ कर उसे भूमि पर गिरा दिया और पषु की भांति गला घोंटकर मार डाला। देवता लोग विमानों पर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे। अब भगवान् श्रीकृष्ण ने गुफा के द्वार पर लगे हुए संकटपूर्ण स्थान से निकाल लिया।
यहां भगवान की बाल लीलाओं पर विराम लग रहा है। व्रज की आनंद लीला समापन की ओर है। अब भगवान मथुरा जाएंगे। कंस का बुलावा आ रहा है, अक्रूरजी कृश्ण की छवि मन में बसाए, नंद को कंस का निमंत्रण देने आ रहे हैं।
अक्रूर आगमन-अक्रूरजी भगवान को लेने आए हैं। रास्तें में सोचते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण तो पतितपावन हैं। वे मुझे अवश्य अपना लेंगे। यदि मुझे पापी को नहीं अपनाएंगे, तो फिर उनको पतितपावन कौन कहेगा। हे नाथ! मैं पतित हूं और आप पतितपावन हैं मुझे अपना लीजिएगा। विचार करना ही है तो पवित्र विचार करो। बुरे विचार मन को विकृत कर देते हैं। अक्रूरजी भगवान को लेने के लिए निकले हैं।
आदिनारायण का चिन्तन उनके मन में हो रहा है। उन्होंने मार्ग में श्रीकृष्ण के चरणचिह्न देखे। कमल ध्वजा और अंकुशयुक्त चरण तो मेरे श्रीकृष्ण के ही हो सकते हैं। ऐसा अक्रूरजी ने सोचा। इसी मार्ग से कन्हैया अवश्य गया होगा। इसी मार्ग से वह खुले पांव ही गायों का चराता फिरता होगा। ऐसा चिन्तन करते-करते अक्रुरजी ने सोचा कि यदि मेरे प्रभु खुले पांव पैदल घूमते हैं तो मैं तो उनका सेवक हूं। मैं रथ में कैसे बैठ सकता हूं। मैं सेवा करने योग्य नहीं हूं अधर्मी हूं, पापी हूं। मैं तो श्रीकृष्ण की शरण में जा रहा हूं। मुझे रथ पर सवार होने का क्या अधिकार? ऐसा सोचकर अक्रुरजी पैदल चलने लगे।
गोकुल पहुंचकर वहां की रज उन्होंने सारे शरीर पर लपेट ली। वृजरज की बड़ी महिमा है, क्योंकि वह प्रभु के चरणों से पवित्र हुई है। अक्रुरजी वन्दना भक्ति के आचार्य हैं। अक्रुरजी भगवान के पास पहुंचे। प्रणाम किया, अक्रुरजी के मस्तक पर अपना वरदहस्त रखते हुए श्रीकृष्ण ने उनको खड़ा किया।
अक्रुरजी ने सोचा कि जब कन्हैया उन्हें चाचा कहकर पुकारेगा तभी वे खड़े होंगे। लेकिन अक्रुरजी सोचते हैं कि मुझ पापी को भला वे काका क्यों कहेंगे। भगवान ने अक्रुरजी का मनोभाव जान लिया। अक्रुरजी चाहते थे कि कृष्ण काका कहकर पुकारें। श्रीकृष्ण ने उनके मस्तक पर हाथ धरते हुए कहा कि काका अब उठिए भी। उनको उठाकर आलिंगन किया। जीव जब षरण में आता है तो भगवान् उसको अपनी बांहों में भर लेते हैं। आज अक्रुरजी को वही अनुभुति हो रही हैं जो कभी निषात को हुई थी, तब श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगाया था। जो कभी प्रहलाद को हुई थी जब नरसिंह अवतार ने प्रहलाद को हृदय से लगाया था।अक्रुरजी अपना भाव भुल बैठे। अक्रुरजी बोले-नन्दजी! मैं तो आप सबको राजा कंस की ओर से आमन्त्रण देने आया हूं। मथुरा में धनुष यज्ञ किया जा रहा है। आपको दर्शनार्थ बुलाया गया है। आप चहे गाड़ी से आएं किन्तु बलराम और श्रीकृष्ण के लिए सुवर्ण रथ लेकर आया हूं। कंस ने सुवर्ण रथ भेजा है। गांव के बालकों ने जब ये बात जानी तो वे भी साथ चलने को तैयार हो गए। नन्दबाबा ने सभी बच्चों को साथ चलने की अनुमति दे दी।क्रमश:
उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिए और जैसे गरुड़ सांप को पकड़कर झटक देते हैं, उसी प्रकाश क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गए। इसके बाद वह क्रोध से तिलमिलाकर और मुंह फाड़कर बड़े वेग से भगवान् की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान् मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बांया हाथ उसके मुंह में इस प्रकार डाल दिया जैसे सर्प बिना किसी आशंका के अपने बिल में घुस जाता है।थोड़ी ही देर में उसका शरीर निष्चेश्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसके प्राण पखेरू उड़ गए। देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी और समस्त जीवों के सच्चे हितैशी हैं। कंस के यहां से लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के पास आए और एकांत में उनसे कहने लगे-यह बड़े आनन्द की बात है कि आपने खेल ही खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुश्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को भी मरते देखूंगा। उसके बाद शंखासुर, काल-यवन, मुर और नरकासुर का वध देखूंगा। आप स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्र के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदि का शुल्क देकर वीर-कन्याओं से विवाह करेंगे और जगदीश्वर!
आप द्वारका में रहते हुए नृग को पाप से छुड़ायेंगे। आप जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को जाम्बवान् से ले आएंगे और अपने धाम से ब्राह्मण के मरे हुए पुत्रों को ला देंगे। इसके पश्चात आप पौण्ड्रक मिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल को और वहां से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्र को नष्ट करेंगे। प्रभो! द्वारका में निवास करते समय आप और भी बहुत से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गाएंगे। मैं वह सब देखूंगा।
इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए कालरूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आंखों से देखूंगा। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिए मनुष्य का सा श्रीविग्रह प्रकट किया है। और आप यदु, वृश्णि तथा सात्वतवंषियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूं। भगवान् के दर्शनों के आहाद से नारदजी का रोम रोम खिल उठा। तदन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गए। इधर भगवान् श्रीकृष्णा कोषी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्न चित्त ग्वालबालों के साथ पूर्ववत् पशुपालन के काम में लग गए।
जब व्यामासुर खेलने लगा कृष्ण के साथ?
एक समय वे सब ग्वालबाल पहाड़ की चोटियों पर गाय आदि पशुओं को चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपाने का लुका-लुकी का खेल खेल रहे थे। उसी समय ग्वाल का वेष धारण करके व्योमासुर वहां आया। वह मायावियों के आचार्य मयासुर का पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेल में बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत से बालकों को चुराकर छिपा आता। वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़ की गुफा में ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालों में केवल चार-पांच बालक ही बच रहे। भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गए। जिस समय वह ग्वालबालों को लिए जा रहा था, उसी समय उन्होंने जैसे सिंह भेडिय़े को दबोच ले, उसी प्रकार उसे धर दबाया। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़ के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपने को छुड़ा लूं। परन्तु भगवान् ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजे में फांस लिया था कि वह अपने को छुड़ा न सका। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दानों हाथों से जकड़ कर उसे भूमि पर गिरा दिया और पषु की भांति गला घोंटकर मार डाला। देवता लोग विमानों पर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे। अब भगवान् श्रीकृष्ण ने गुफा के द्वार पर लगे हुए संकटपूर्ण स्थान से निकाल लिया।
यहां भगवान की बाल लीलाओं पर विराम लग रहा है। व्रज की आनंद लीला समापन की ओर है। अब भगवान मथुरा जाएंगे। कंस का बुलावा आ रहा है, अक्रूरजी कृश्ण की छवि मन में बसाए, नंद को कंस का निमंत्रण देने आ रहे हैं।
अक्रूर आगमन-अक्रूरजी भगवान को लेने आए हैं। रास्तें में सोचते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण तो पतितपावन हैं। वे मुझे अवश्य अपना लेंगे। यदि मुझे पापी को नहीं अपनाएंगे, तो फिर उनको पतितपावन कौन कहेगा। हे नाथ! मैं पतित हूं और आप पतितपावन हैं मुझे अपना लीजिएगा। विचार करना ही है तो पवित्र विचार करो। बुरे विचार मन को विकृत कर देते हैं। अक्रूरजी भगवान को लेने के लिए निकले हैं।
आदिनारायण का चिन्तन उनके मन में हो रहा है। उन्होंने मार्ग में श्रीकृष्ण के चरणचिह्न देखे। कमल ध्वजा और अंकुशयुक्त चरण तो मेरे श्रीकृष्ण के ही हो सकते हैं। ऐसा अक्रूरजी ने सोचा। इसी मार्ग से कन्हैया अवश्य गया होगा। इसी मार्ग से वह खुले पांव ही गायों का चराता फिरता होगा। ऐसा चिन्तन करते-करते अक्रुरजी ने सोचा कि यदि मेरे प्रभु खुले पांव पैदल घूमते हैं तो मैं तो उनका सेवक हूं। मैं रथ में कैसे बैठ सकता हूं। मैं सेवा करने योग्य नहीं हूं अधर्मी हूं, पापी हूं। मैं तो श्रीकृष्ण की शरण में जा रहा हूं। मुझे रथ पर सवार होने का क्या अधिकार? ऐसा सोचकर अक्रुरजी पैदल चलने लगे।
गोकुल पहुंचकर वहां की रज उन्होंने सारे शरीर पर लपेट ली। वृजरज की बड़ी महिमा है, क्योंकि वह प्रभु के चरणों से पवित्र हुई है। अक्रुरजी वन्दना भक्ति के आचार्य हैं। अक्रुरजी भगवान के पास पहुंचे। प्रणाम किया, अक्रुरजी के मस्तक पर अपना वरदहस्त रखते हुए श्रीकृष्ण ने उनको खड़ा किया।
अक्रुरजी ने सोचा कि जब कन्हैया उन्हें चाचा कहकर पुकारेगा तभी वे खड़े होंगे। लेकिन अक्रुरजी सोचते हैं कि मुझ पापी को भला वे काका क्यों कहेंगे। भगवान ने अक्रुरजी का मनोभाव जान लिया। अक्रुरजी चाहते थे कि कृष्ण काका कहकर पुकारें। श्रीकृष्ण ने उनके मस्तक पर हाथ धरते हुए कहा कि काका अब उठिए भी। उनको उठाकर आलिंगन किया। जीव जब षरण में आता है तो भगवान् उसको अपनी बांहों में भर लेते हैं। आज अक्रुरजी को वही अनुभुति हो रही हैं जो कभी निषात को हुई थी, तब श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगाया था। जो कभी प्रहलाद को हुई थी जब नरसिंह अवतार ने प्रहलाद को हृदय से लगाया था।अक्रुरजी अपना भाव भुल बैठे। अक्रुरजी बोले-नन्दजी! मैं तो आप सबको राजा कंस की ओर से आमन्त्रण देने आया हूं। मथुरा में धनुष यज्ञ किया जा रहा है। आपको दर्शनार्थ बुलाया गया है। आप चहे गाड़ी से आएं किन्तु बलराम और श्रीकृष्ण के लिए सुवर्ण रथ लेकर आया हूं। कंस ने सुवर्ण रथ भेजा है। गांव के बालकों ने जब ये बात जानी तो वे भी साथ चलने को तैयार हो गए। नन्दबाबा ने सभी बच्चों को साथ चलने की अनुमति दे दी।क्रमश:
बेटियों के ससुराल में खाना
बेटियों के ससुराल में खाना क्यों नहीं खाते!
इसलिए इस मान्यता को लोगों ने अंधविश्वास मान लिया है। दरअसल ये मान्यता कोई अंधविश्वास नहीं है। हर परंपरा के पीछे हमारे पूर्वजों की कोई गहरी सोच जरूर रही है। बेटी शादी में कई रस्में होती है। जिनके बिना शादी होती ही नहीं है। उन्हीं रस्मों में से एक है कन्यादान। कन्यादान शादी का मुख्य अंग माना गया है। शास्त्रों के अनुसार दान करना पुण्य कर्म है और इससे ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है। दान के महत्व को ध्यान में रखते हुए इस संबंध में कई नियम बनाए गए हैं ताकि दान करने वाले को अधिक से अधिक धर्म लाभ प्राप्त हो सके। ऐसा ही एक नियम है दिए हुए दान का उपयोग नहीं करना। जिस तरह ब्राह्मण को दिया हुआ दान वापस नहीं लिया जाता या दान की हुई गाय का दूध नहीं पीया जाता है। उसी तरह शादी में संकल्प कर कन्या का दान वर को किया जाता है। इसलिए एक बार कन्या को दान करने के बाद उसके ससुराल में भोजन करना या उसके घर का पानी भी नहीं पीये जाने का रिवाज बनाया गया था।
अमावस्या को
अमावस्या को लड़कियों को खुले बाल करके नहीं घुमना चाहिए क्योंकि
इन शक्तियों के प्रभाव में आने के बाद लड़कियों का मानसिक स्तर व्यवस्थित नहीं रह पाता और उनके पागल होने का खतरा बढ़ जाता है। विज्ञान के अनुसार अमावस और हमारे शरीर का गहरा संबंध है। अमावस का संबंध चंद्रमा से है। हमारे शरीर में 70 प्रतिशत पानी है जिसे चंद्रमा सीधे-सीधे प्रभावित करता है। ज्योतिष में चंद्र को मन का देवता माना गया है। अमावस के दिन चंद्र दिखाई नहीं ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। लड़कियां मन से बहुत ही भावुक होती है।
जब चंद्र नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर के पानी में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है। इन्हीं कारणों से अमावस्या के दिन लड़कियों को खुले बाल रखकर घुमने से मना किया जाता है। चंद्रमा हमारे शरीर के जल को किस प्रकार प्रभावित करता है इस बात का प्रमाण है समुद्र का ज्वारभाटा। पूर्णिमा और अमावस के दिन ही समुद्र में सबसे अधिक हलचल दिखाई देती है क्योंकि चंद्रमा जल को शत-प्रतिशत प्रभावित करता है।
Monday, December 10, 2012
Rab di khwahish
Muhabbat di masti vich, mere masroor bande.
Mai tainu ki banaya, tu ki bangiya?
Apani badai vich, even hi tan giya?
Phullan tu najuk ,main tera dil banaya.
Daradan da unde vich, ehasas paya
Aj pkar laye tu, ulate hi chaale .
Tere amal ho gaye, amavas tun kale.
Tere matthe tilak, seene vich sadhe.
Tu kai dil tode, aur kai ghar ujade.
Tu masjid te chadke, madirnu dhaya.
Aur mandir nu dhake, Gurudwara banaya.
Ki samjhya rama tera apana, aur allah paraya.
Inna jhameliyan vich, tu mainu rulaya.
Tu kinnu bhent, phullan di deke rijhana e?
Tu kadah de chadhave, bhave chadha na tu.
Mandirande ghante, bhave baja na baja tu.
Aur masjid vich jake, sajdae niva na tu.
Khuda di khalkat vich, thikana hai mera .
Tu khalkat da hoja, main ban javan tera.
Aur apani kartut, phullan de piche chhipana e?
Par e insaf da ghar hai, koi thana nahin .
Itthe bade badiyan da, koi thikana nahin.
Tu kisi girde nu, uthaya daskhan?
Aur kisi ronde nu, uthaya daskhan?
Kisi dukhi dil da, phat nahin sita .
Meri mala pheri, tu kakh nahin kita.
Sunday, December 2, 2012
Guru is gread
N[T
N[BF> AFC[Z ELTZ4GF ELTZ AFC[Z EL GFC[\×
U]Z
5Z;FN[ V\TZ 5[bIF4;M ;MEF JZGL G HFI[××
;ANF
SC[ 5ZU8 5ZJFG4;ANF ;TU]Z ;M\ SZFJ[ 5[C[RFG×
;TU]Z
;M> HM V,B ,BFJ[4 V,B ,B[ lAG VFU GHFJ[×
;F:+
,[ R,[ ;TU]Z ;M>4AFGL ;S, SM ˆS VZY CM>×
;A
:IFGM SL ˆS DT 5F>45Z VHFG N[B[ Z[ H]NF>××
;F:+M\
D[\ ;A[ ;]W 5F.I[45Z ;TU]Z lAGF ÉIM\ ,BF.I[×
;A
;F:+ ;AN ;LWF SC[45Z D[Z lTGS[ VF0[ ZC[××
;M
lTGSF lD8[ ;TU]Z S[ ;\U4TA 5FZ A|ï 5ZSF;[ VB\0×
;TU]Z
HL S[ RZG 5;FI[4;ANM\ A0L DT ;DhFI[ ××
IFD[\
A0L DT SM ,LH[ ;FZ4;TU]Z IFCL N[BFJ[ 5FZ×
.TCL\
J[S\9 .TCL\ ;]G4.TCL\ 5ZU8 5}ZG 5FZ A|ï××
lS @q)4 #q #4$4%4&4(4
;TU]Z
;FWM JFSM SlCI[ 4HM VUD SL N[J[ UD ×
CN
A[CN ;A[ ;DhFJ[4 EFG[ DGSM EZD ××
;:+
5]ZFG E[; 5\Y BMHM4 .G 5[0M D\[ 5F.IT GFCL\×
;TU]Z
gIFZF ZCT ;S, Y[\4 SM> ˆS S],L D[\ SFCL\××
;TU]Z
;M> HM VF5 RLgCFJ[4DFIF WGL VÁZ 3Z×
;A
RLgC 5Z[ VFBZ S[4 ßIM\ E}l,I[ GCL\ VJ;Z×
ˆ
5[C[RFG[ ;]B p5H[4;GD\W WGL V\S]Z×
DCFDT
SC[ U]Z ;M> SLH[4 HM IM\ AZ;FJ[ G}Z××
lS $4!@4%q*4!$q!!4!@4
;TU]Z
;\U[ D I[ 3Z 5FIF4lNIF 5FZA|ï lNBF>×
DCFDlT SC[ D IF lJW lAU0IF T]D lHG lAU0M EF>××
;TU]Z
;M> HM JTG ATFJ[4DMC DFIF VÁZ VF5×
5FZ
5]Z; HM 5ZBFJ[4DCFDT TF;M\ SLH[ lD,F5××
DCFDT
;M U]Z 5F.IF4HM SZ;L ;FO ;AG×
N[;L
;]B G[C[R,4ˆ[;L SAC] G SZL lSG ××
IFD[
;TU]Z lD,[ TM ;\;[ EFG[45{0F N[BFJ[ 5FZ×
TA
;S, ;AN SM VZY p5H[4 ;A UD 50[ ;\;FZ××
lS
!(q*4@_q&4@!q!_4@@q*4
ˆ
WMB[ U]Z ;ZJ7G EFG[4lHG 5FIF ;A lJJ[S××
AFC[Z
pHF,F SZS[ 4VFBZ N[BFJ[ ˆS××
DCFDT
;M U]Z SLlHI[ 4HM ATFJ[ D}, V\S]Z×
VFTD
VZY ,UFJCL4TA l5IF JTG CH}}Z×××
5FZA|ï
ÉIM\ 5F.I[4TTlBG SLH[ p5FI[×
S>
-}}\-[ DFC AFC[[Z4lAG ;TU]Z G ,BFI[××
VA
;\U SLH[ lTG U]Z SL4BMHS[ 5]Z; 5}}ZG××
;[JF
SLH[ ;A V\U ;M\4DG SZ SZD JRG××
IFD[\
V\TZ AF;F Aï| SF4;M ;TU]Z lNIF ATFI[×
lJG ;Dh[ IF A|ï
SM 4VÁZ G SM> p5FI[ ××
lS @(q !*4!(4#$q !&4!*4#$q@#4
U]ZUD
8F,L A\W G K}8[4HM SLH[ VG[S p5FI[×
H[6L
EMD[ Z[ VF5 A\WF6F4T[ EMD G VM,BL HFI[ ××
VF5 G
VM,B[ A\W G ;]h[4 SZD T6L H[ HF,L×
BM,TF
BM,TF H[ U]ZUD 5FdIM4T[ TM GFB[ A\W AF,L××
S[D
VMWlZIF VFU[ HLJ4H[6[ CTF SZDGF HF,×
U]ZUD
ßIFZ[ H[C[G[ VFJL4T[ K]8IF TTSF,××
lS !@&q%)4&_4&!4
U]ZUD
8F,L ˆ UF\9 G K]8[4S[D[ G YFI GZD×
DF\C[,L
SFD; S[D[ G HFI[4HM SLH[ VG[S ;ZD××
VF\S0L
SM> G H]I[ Z[ pS[,L4JRG T6F H[ lJJ[S×
U]ZUD
8F,L BAZ G 50[4I[ VZY EFZ[ K[ lJ;[S××
CJ[
UM5 JRG SC[JF;[ U]ZUD4T[ S[D 5ZU8 CMI×
lJ:G]
;\U|FD SZL G[ ,[;[4 ;FW C;[ H[ SMI××
!@&q*#4!!*4!@*4
E},[
;A H]N[ 50[4DFˆG[ ;AM\ SF ˆS ×
ˆ
;TU]Z CFNL lJGF 4ÉIM\ SZ 5FJ[ lJJ[S××
lGJ[ZF
BLZ GLZ SF4DCFDT SZ[ SÁG VÁZ ×
DFIF
A|ï RLgCFI S[4 ;TU]Z ATFJ[ 9ÁZ ××
ˆ
;\;[ ;A ;DhFI S[4SM> V\U SZ[ pHF;
;M
U]Z D[ZF D{\ ;[JM\ TFI4 ;]W lRT CMI
NF;××
5FZ
A|ï ÉIM\\ 5F.ˆ 4TTlBG SLH[ p5FI×
S{
-\\}-[ DFC[\ AFC[Z4lJGF ;TU]Z G ,BFI××
VA ;\U
SLH[ lTG U]Z SL4BMHS[ 5]Z; 5}ZG
;[JF
SLH[ ;A V\U ;M\4 DG SZ SZD JRG××
lS &&q!$4@*q@@4@(q!$4#$ !&4!*4
Tuesday, November 27, 2012
क्यों ना खाएं किसी का झूठा
खाना या भोजन हमारे जीवन की सबसे आवश्यक जरुरतों में से एक है। खाना ही हमारे शरीर को जीने की शक्ति प्रदान करता है। हम सभी दिन में कम से कम दो बार भोजन या नाश्ता जरूर करते हैं। अधिकांश लोग ऑफिस में या कॉलेज में अपने मित्रों के साथ भोजन करते हैं। एक साथ बैठकर भोजन करने को बहुत अच्छा माना गया है क्योंकि इससे प्रेम बढ़ता है।वहीं इस संबंध में आपने हमेशा अपने बढ़े- बूजुर्गो को यह कहते भी सुना होगा कि हमें किसी का झूठा नहीं खाना चाहिए।
दरअसल इसका कारण यह है कि हर व्यक्ति का भोजन करने का तरीका अलग
होता है। कुछ लोग भोजन करने से पहले हाथ नहीं धोते हैं जिसके कारण उनका
झूठा खाने वाले को भी संक्रमण हो सकता है। यदि कोई बीमार हो या उसे किसी
तरह का संक्रमण हो तो उसका झूठा खाने से आप भी उस संक्रमण से प्रभावित हो
सकते हैं। साथ ही ऐसी भी मान्यता है कि आप जिस व्यक्ति का झूठा खाते हैं
उसके विचार नकारात्मक हैं तो वे विचार आपकी सोच को भी प्रभावित करते हैं।
इनसान सबसे पुराना है, Human being is oldest than all religions
इनसान
सबसे पुराना है, जितने सारे धर्म हैं वो बाद में बने हैं | धर्म मनुष्य के
लिए है, वे उसकी आत्मिक उन्नति के लिए बनाये गये हैं, इनसान मज़हब के लिए
नहीं | आज के दौर में दुनियावी साज़-सामानों, तड़क-भड़क, वैज्ञानिक
उपलब्धियों, बुद्धि की चतुराइयों, सदाचार के नियमों, और धार्मिक सिद्धांतों
के होते हुए भी इनसान फिर भी खुश नज़र नहीं आता है | एक अनबुझी प्यास,
अतृप्त इच्छाएं, आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में मानसिक तनाव से हमेशा ग्रस्त
रहता है | लाखों लोग अपने आपसे और इस दुनिया की अंधी दौड़ से संतुष्ट नहीं
हैं, उनके लिए जीवन एक पतझड़ के सामान नीरस, वीरान और बेजान है | लोग अपने
को इनसान पहले कहने की बजाय हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख आदि कहलाने में
ज्यादा चाव रखते हैं | वास्तव में सच्चा धर्म सबके लिए समान है और
सर्वव्यापी है | प्रत्येक धर्म का स्वरुप दूसरों धर्मों के स्वरुप से अलग
लगता है | लेकिन हरेक धर्म की शरियत (कर्मकांड) को छोड़कर उसके हकीकत के
पहलू में जाएँ तो पायेंगें की एक ही रास्ता और एक ही नियम सब धर्मों की
नींव में काम करता है | यह सारे संसार के लिए एक ही है | इनसान होने के
नाते हम सब एक ही मानव बिरादरी के हैं और हमारा रूहानी आधार भी एक ही है |
परवरदिगार ने इनसान पैदा किया | इनसान ने अपने को मन के प्रभाव
में आकर अपने आपको बाँटना शुरू किया | वे हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान, ईसाई,
बौद्ध आदि बाद में बने | आज से पांच सौ साल पहले सिक्ख नहीं थे, चौदह सौ
साल पहले मुसलमान नहीं थे | दो हज़ार साल पहले ईसाईयों का नामो-निशान भी
नहीं था और पांच हज़ार साल पहले बौद्धों का कहीं पता नहीं था | इस तरह आर्य
हिन्दुओं से पहले भी कई कौमें आई और चली गईं | ज़ाहिर है कि सभी मनुष्य,
क्या पूर्व के, क्या पश्चिम के, सब एक ही हैं और एक ही रहे हैं | कोई ऊँची
या नीची जाति का नहीं | सबके अन्दर आत्मा है जो मालिक का अंश है | कबीर
साहिब कहते हैं:
कहु कबीर इहु राम की अंसु ॥
जस कागद पर मिटै न मंसु ॥४॥२॥५॥ (SGGS 871)
सच्चा धर्म क्या है ? यह सवाल इनसान के अन्दर शुरू से उठता आ रहा है | इन
विषय पर कितने मज़मून, ग्रन्थ और पोथियाँ लिखी गयी हैं | कोई कुछ कहता है
कोई कुछ | अँधा अँधे को रोशनी दिखता है | लेकिन एक प्रश्न का तो एक ही
उत्तर हो सकता है | इस पर विचार करने से पहले हमें देखना चाहिये कि धर्म या
मज़हब का उद्देश्य क्या है ? इसका उत्तर संतों के हिसाब से एक ही है, "परम
सुख या मालिक की प्राप्ति" |
प्रभु से प्रेम करते हुए हमें उसकी
रचना से भी प्रेम करना है | सब संतों के जीवन में एक ही सिद्धांत काम करता
हुआ नज़र आता है, वो आस्तिक और नास्तिक सब जीवों से एक सा ही प्यार करते
हैं | वे जानते हैं कि सब एक ही मूल से ही पैदा हें हैं, इसलिए सब एक ही
शरीर के अंग हैं | यदि एक अंग को दुःख होता है तो दुसरे अंग अपने आप बैचैन
हो जाते हैं |
शेख फरीद साहिब फरमाते हैं की अगर तुझे प्रियतम से
मिलने की तड़प है तो किसी का दिल न दुखा | दीनता, माफी और मीठे वचन एक
जादूई शक्ति हैं जिससे तुम उस मालिक का दिल जीत लोगे | अगर बुद्धिमान हो
तो सामान्य और सीधे रहो | अगर कुछ बांटने की ज़रुरत नहीं है तो भी दूसरों
को कुछ दो | ऐसा भक्त मिलना बड़ा मुश्किल है | कभी भी कडवे बोल कर किसी का
दिल न दुखाओ क्योंकि हर दिल में वो दिलवर रहता है |
निवणु सु अखरु खवणु गुणु जिहबा मणीआ मंतु ॥
ए त्रै भैणे वेस करि तां वसि आवी कंतु ॥१२७॥
मति होदी होइ इआणा ॥
ताण होदे होइ निताणा ॥
अणहोदे आपु वंडाए ॥
को ऐसा भगतु सदाए ॥१२८॥
इकु फिका न गालाइ सभना मै सचा धणी ॥
हिआउ न कैही ठाहि माणक सभ अमोलवे ॥१२९॥
सभना मन माणिक ठाहणु मूलि मचांगवा ॥
जे तउ पिरीआ दी सिक हिआउ न ठाहे कही दा ॥१३०॥ (SGGS 1384)
गुरु गोविन्द सिंह फरमाते हैं कि वह परवरदिगार सबके अन्दर बसता है, हरएक
हृदय उसके रहने का स्थान है | अगर कोई उसकी खलकत को दुःख देता है, तो मालिक
उस पर नाराज़ होता है:
खलक खालक की जान कै, खलक दुखावही नाहिं |
खलक दुःखहि नन्द लाल जी, खालक कोपहि ताहिं || (रहतनामे, प्र. ५९)
सब निर्मल आत्माओं और मालिक के आशिकों का एक ही धर्म है, 'वह है मालिक की
इबादत और उसकी खलकत से प्यार |' इनसान तब ही इनसान कहलाने का हक़दार है जब
उसमे इंसानियत के गुण हों, जब इनसान इनसान को भाई समझे, उसका दुःख-दर्द
बंटायें, दिल में हमदर्दी रखे, मालिक और उसकी कुदरत से अटूट प्रेम रखे |
इसके विपरीत अगर ईर्ष्या, ज़ुल्म, हरामखोरी, दुश्मनी, लालच, लोभ, पाखण्ड,
पक्षपात, हठ-धर्म, आदि हमारे अन्दर बसते हों तो हृदय का शीशा कैसे साफ़ हो
सकता है ? इनसे मनुष्य-जीवन की सारी खुशी और मिठास ख़त्म हो जाती है | ऐसी
मैल के होते हुए दिल के शीशे मैं परमात्मा की झलक कहाँ ?
आत्मा
परमात्मा का अभिन्न अंश है | इसका दर्ज़ा सृष्टि में सबसे अव्वल और ऊँचा है
| 'परमात्मा और उसकी रचना के साथ प्यार' का गुण जितना बढता है, उतना ही
मनुष्य मालिक के नज़दीक कोटा जाता है | सब एक ही नूर से पैदा हुए हैं और
उसी परवरदिगार का नूर सबके अन्दर चमक रहा है | फिर इनमें कौन बुरा है और
कौन भला ?
अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥१॥ (SGGS 1349)
अंश और अंशी में कोई भेद नहीं हो सकता, सब उसी एक जौहर से पैदा हुए हैं |
बाहरी रंग-रंग की शक्लों, पोशाकों और सभ्यताओं के भेद या फिर फिरकों के
झगडे उनके आत्मिक तौर पर एक होने में फर्क नहीं डाल सकते हैं | खलकत के साथ
प्यार करना भी एक तरह से मालिक के साथ प्यार करना ही है |
यही
सच्चा मज़हब,सच्चा धर्म, दीं और ईमान है | शेख सादी ने इस बारे में कहा है
कि ऐ मालिक, तेरी बन्दगी तेरे बन्दों की खिदमत करने में है; तस्बीह (माला)
फेरने, सज्जदा (आसन) पर बैठे रहने या गुदड़ी पहन लेने में नहीं:
तरीक़त बजुज़ खिदमते-ख़लक नीस्त |
बी-तस्वीह ओ सज्जादा ओ दलक नीस्त || (बोस्तान, प्र. ४०)
हर घट में मेरा साईं है, कोई सेज उससे सूनी नहीं, लेकिन जिस घट के अन्दर वह प्रकट है, वह बलिहार जाने के योग्य है:
सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोई |
बलिहारी वा घट की , जा घट प्रकट होय ||
मौलाना रूम फरमाते हैं कि तू जिंदा दिलों की परिक्रमा कर, क्योंकि यह दिल
हज़ारों काबों से बेहतर है | काबा तो हज़रत इब्राहीम का पिता का बुतखाना
था, पर यह दिल खुदा के प्रकट होने का स्थान है |
कअबा बुंगाहे-खलीले-आज़र अस्त,
दिल गुज़रगाहे-ज़लीले-अकबर अस्त |
दिल बदस्त आवर कि हज्जे-अकबर अस्त,
अज हजारां कअबा यक दिल बिहतर अस्त | (मौलाना रूम )
सूफी फकीर मगरिबी कहते हैं कि धर्म के नाम पर इनसान को जिबह करने से या
किसी का दिल दुखाने से मालिक कभी प्रसन्न नहीं होता, चाहे कोई हज़ारों तरह
की पूजा, इबादत और तौबा करे, हज़ारों रोज़े रखे और हरएक रोज़े में
हज़ार-हज़ार नमाजें पड़े और हज़ारों रात उसकी याद में गुज़ार दे | यह सब
कुछ मालिक को मंज़ूर नहीं अगर वह एक दिल को भी सताता है:
हज़ार जुह्दो इबादत हज़ार इस्तिफ्गार,
हज़ार रोज़ा ओ हर रोज़ा रा नमाज़ हज़ार |
हज़ार ताअते-शब्-हा हज़ार बेदारी,
कबूल नीस्त अगर खातरे ब्याज़ारी | (मगरिबी )
हाफ़िज़ साहिब कहते हैं कि शराब पी, कुरान शरीफ जला दे, काबा में आग लगा दे, जो चाहे कर, पर किसी इनसान के दिल को मत दुखा:
मै खुर ओ मुसहफ़ बसोज़ ओ आतिश अंदर कअबा जन,
हर चिह ख्वाही कुन व्-लेकिन मर्दुम आजारी मकुन | (हाफ़िज़ साहिब )
शेख शादी कहते हैं कि जब तक तू खुदा के बन्दों को खुश नहीं करेगा, तू
मालिक की रज़ा की प्राप्ति से खाली रहेगा | अगर तू चाहता है कि मालिक तुझ
पर बख्शीश करे तो तू उसकी खलकत के साथ नेकी कर:
हासिल न-शवद रज़ाए-सुलतान, ता खातिरे-बन्दगा न जुई |
ख्वाही किह खुदाए बर तू बख्सद, बा खल्के-खुदाए बी-कुन निकुई | (शेख शादी, गुलिस्तान, प्र. ५८)
Sunday, November 11, 2012
क्यों और कब नहीं काटना चाहिए नाखून?
आज भी हम घर के बड़े और बुजुर्गों को यह कहते हुए सुनते हैं कि, शनिवार, मंगलवार और गुरुवार के दिन नाखून भूल कर भी नहीं काटना चाहिये। पर आखिर ऐसा क्यों?जब हम अंतरिक्ष विज्ञान और ज्योतिष की प्राचीन और प्रामाणिक पुस्तकों का अध्ययन करते तो इन प्रश्रों का बड़ा ही स्पष्ट वैज्ञानिक समाधान प्राप्त होता है। वह यह कि शनिवार, मंगलवार और गुरुवार के दिन ग्रह-नक्षत्रों की दशाएं तथा अंनत ब्रह्माण्ड में से आने वाली अनेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म किरणें मानवीय मस्तिष्क पर अत्यंत संवेदनशील प्रभाव डालती हैं। यह स्पष्ट है कि इंसानी शरीर में उंगलियों के अग्र भाग तथा सिर अत्यंत संवेदनशील होते हैं। कठोर नाखूनों और बालों से इनकी सुरक्षा होती है। इसीलिये ऐसे प्रतिकूल समय में इनका काटना शास्त्रों में वर्जित, निंदनीय और अधार्मिक कार्य माना गया है।
बदला लेना नहीं... माफ करना सीखिए
एक आदमी ने बहुत बड़े भोज का आयोजन किया परोसने के क्रम में जब पापड़ रखने की बारी आई तो आखिरी पंक्ति के एक व्यक्ति के पास पहुंचते पहुंचते पापड़ के टुकड़े हो गए उस व्यक्ति को लगा कि यह सब जानबूझ करउसका अपमान करने के लिए किया गया है । इसी बात पर उसने बदला लेने की ठान ली।
कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति ने भी एक बहुत बड़े भोज का आयोजन किया और उस आदमी को भी बुलाया जिसके यहां वह भोजन करने गया था। पापड़ परोसते समय उसने जानबूझकर पापड़ के टुकड़े कर उस आदमी की थाली में रख दिए लेकिन उस आदमी ने इस बात पर अपनी कोई प्रतिक्रि या नहीं दी। तब उसने उससे पूछा कि मैने तुम्हें टूआ हुआ पापड़ दिया है तुम्हें इस बात का बुरा नहीं लगा तब वह बोला बिल्कुल नहीं वैसे भी पापड़ को तो तोड़ कर ही खाया जाता है आपने उसे पहले से ही तोड़कर मेरा काम आसान कर दिया है। उस व्यक्ति की बात सुनकर उस आदमी को अपने किये पर बहुत पछतावा हुआ।
एक अच्छे सहायक
नारद भक्ति हैं, भगवान ने उनकी बातें सुन मन-ही-मन कह दिया तथास्तु। नारद
स्वयं त्रिकालदर्षी भी हैं और भगवान के टाइमकीपर भी। भगवान की व्रजलीलाएं
पूर्व हो रही हैं, सो वे भगवान को यह याद दिलाने आए हैं कि अब मथुरा,
हस्तिनापुर, कुरूक्षेत्र और द्वारिका की लीलाओं का समय आ रहा है। एक अच्छे
सहायक का यह कर्तव्य भी है कि स्वामी के सावधान रहने पर भी उन्हें समय-समय
पर सारे कामों की याद दिलाता रहे। नारद यही करते हैं। आप जल्द से जल्द
बलराम और कृष्ण को यहां ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं।
उनको मार डालने में क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुष यज्ञ के दर्शन और यदुवंशियों की राजधानी मथुरा की शोभा देखने के लिए यहां जाएं। केशी-व्योमासुर वध-केशी दैत्य के द्वारा हत्या की योजना बनाई। कैशी अश्व के रूप में वृंदावन पहुंचा, लेकिन कृष्ण ने उसको पहचान लिया। उसके गले में अपना लोह सदृश हाथ डालकर उसके प्राण ही खेंच लिए। केशी के वध का समाचार कंस ने जब सुना, तो व्योमासुर को वृन्दावन भेजा। वृन्दावन में व्योमासुर का भी प्राणान्त कर दिया। कंस ने जिस केशी नामक दैत्य को भेजा था, वह बड़े भारी घोड़े के रूप में मन के समान वेग से दौड़ता हुआ व्रज में आया। भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहने वाला गोकुल भयभीत हो रहा है।
उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिए और जैसे गरुड़ सांप को पकड़कर झटक देते हैं, उसी प्रकाश क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गए। इसके बाद वह क्रोध से तिलमिलाकर और मुंह फाड़कर बड़े वेग से भगवान् की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान् मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बांया हाथ उसके मुंह में इस प्रकार डाल दिया जैसे सर्प बिना किसी आशंका के अपने बिल में घुस जाता है।थोड़ी ही देर में उसका शरीर निष्चेश्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसके प्राण पखेरू उड़ गए। देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी और समस्त जीवों के सच्चे हितैशी हैं। कंस के यहां से लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के पास आए और एकांत में उनसे कहने लगे-यह बड़े आनन्द की बात है कि आपने खेल ही खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुश्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को भी मरते देखूंगा। उसके बाद शंखासुर, काल-यवन, मुर और नरकासुर का वध देखूंगा। आप स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्र के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदि का शुल्क देकर वीर-कन्याओं से विवाह करेंगे और जगदीश्वर!
आप द्वारका में रहते हुए नृग को पाप से छुड़ायेंगे। आप जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को जाम्बवान् से ले आएंगे और अपने धाम से ब्राह्मण के मरे हुए पुत्रों को ला देंगे। इसके पश्चात आप पौण्ड्रक मिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल को और वहां से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्र को नष्ट करेंगे। प्रभो! द्वारका में निवास करते समय आप और भी बहुत से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गाएंगे। मैं वह सब देखूंगा।
इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए कालरूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आंखों से देखूंगा। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिए मनुष्य का सा श्रीविग्रह प्रकट किया है। और आप यदु, वृश्णि तथा सात्वतवंषियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूं। भगवान् के दर्शनों के आहाद से नारदजी का रोम रोम खिल उठा। तदन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गए। इधर भगवान् श्रीकृष्णा कोषी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्न चित्त ग्वालबालों के साथ पूर्ववत् पशुपालन के काम में लग गए।क्रमश
उनको मार डालने में क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुष यज्ञ के दर्शन और यदुवंशियों की राजधानी मथुरा की शोभा देखने के लिए यहां जाएं। केशी-व्योमासुर वध-केशी दैत्य के द्वारा हत्या की योजना बनाई। कैशी अश्व के रूप में वृंदावन पहुंचा, लेकिन कृष्ण ने उसको पहचान लिया। उसके गले में अपना लोह सदृश हाथ डालकर उसके प्राण ही खेंच लिए। केशी के वध का समाचार कंस ने जब सुना, तो व्योमासुर को वृन्दावन भेजा। वृन्दावन में व्योमासुर का भी प्राणान्त कर दिया। कंस ने जिस केशी नामक दैत्य को भेजा था, वह बड़े भारी घोड़े के रूप में मन के समान वेग से दौड़ता हुआ व्रज में आया। भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहने वाला गोकुल भयभीत हो रहा है।
उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिए और जैसे गरुड़ सांप को पकड़कर झटक देते हैं, उसी प्रकाश क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गए। इसके बाद वह क्रोध से तिलमिलाकर और मुंह फाड़कर बड़े वेग से भगवान् की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान् मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बांया हाथ उसके मुंह में इस प्रकार डाल दिया जैसे सर्प बिना किसी आशंका के अपने बिल में घुस जाता है।थोड़ी ही देर में उसका शरीर निष्चेश्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसके प्राण पखेरू उड़ गए। देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी और समस्त जीवों के सच्चे हितैशी हैं। कंस के यहां से लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के पास आए और एकांत में उनसे कहने लगे-यह बड़े आनन्द की बात है कि आपने खेल ही खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुश्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को भी मरते देखूंगा। उसके बाद शंखासुर, काल-यवन, मुर और नरकासुर का वध देखूंगा। आप स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्र के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदि का शुल्क देकर वीर-कन्याओं से विवाह करेंगे और जगदीश्वर!
आप द्वारका में रहते हुए नृग को पाप से छुड़ायेंगे। आप जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को जाम्बवान् से ले आएंगे और अपने धाम से ब्राह्मण के मरे हुए पुत्रों को ला देंगे। इसके पश्चात आप पौण्ड्रक मिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल को और वहां से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्र को नष्ट करेंगे। प्रभो! द्वारका में निवास करते समय आप और भी बहुत से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गाएंगे। मैं वह सब देखूंगा।
इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए कालरूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आंखों से देखूंगा। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिए मनुष्य का सा श्रीविग्रह प्रकट किया है। और आप यदु, वृश्णि तथा सात्वतवंषियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूं। भगवान् के दर्शनों के आहाद से नारदजी का रोम रोम खिल उठा। तदन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गए। इधर भगवान् श्रीकृष्णा कोषी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्न चित्त ग्वालबालों के साथ पूर्ववत् पशुपालन के काम में लग गए।क्रमश
कौन थे द्रोपदी के पुत्र जो पांडवों से हुए?
यह सुनकर द्रोपदी ने उसे खुशी से गले लगा लिया। अर्जुन के आ जाने से महल में रौनक आ गयी थी। उनके इन्द्रप्रस्थ लौट आने की खबर सुनकर कृष्ण और बलराम उनसे मिलने इंद्रप्रस्थ आए। उन्होंने सुभद्रा को बहुत सारे उपहार दिए। बलराम और दूसरे यदुवंशी कुछ दिन रूककर वहां से चले गए लेकिन कृष्ण वही रूक गए। समय आने पर सुभद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अभिमन्यु रखा गया। द्रोपदी ने भी एक-एक वर्ष के अंतराल से पांचों पांडव के एक-एक पुत्र को जन्म दिया। युधिष्ठिर के पुत्र का नाम प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से उत्पन्न पुत्र का नाम सुतसोम, अर्जुन के पुत्र का नाम श्रुतकर्मा, नकुल के पुत्र का नाम शतानीक, सहदेव के पुत्र का नाम श्रुतसेन रखा गया।
मौत का राज़?
अगर आध्यात्मिक रूप से देखा जाए तो मौत का अर्थ है शरीर से प्राण अर्थात आत्मा का निकल जाना। इसके बिना शरीर सिर्फ भौतिक वस्तु रह जाता है। इसे ही मौत कहते हैं। जबकि विज्ञान की दृष्टि से मृत्यु का अर्थ कुछ अलग है। उसके अनुसार शरीर में दो तरह की तरंगे होती हैं भौतिक तरंग और मानसिक तरंग। जब किसी कारणवश इन दोनों का संपर्क टूट जाता है तो व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। साधारणत: मौत तीन प्रकार से होती है- भौतिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक।
किसी दुर्घटना या बीमारी से मृत्यु का होना भौतिक कारण की श्रेणी में आता है। इस समय भौतिक तरंग अचानक मानसिक तरंगों का साथ छोड़ देती है और शरीर प्राण त्याग देता है। जब अचानक किसी ऐसी घटना-दुर्घटना के बारे में सुनकर, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, मौत होती है तो ऐसे समय में भी भौतिक तरंगें मानसिक तरंगों से अलग हो जाती है और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। यह मृत्यु का मानसिक कारण है।
मौत का तीसरा कारण आध्यात्मिक है। आध्यात्मिक साधना में मानसिक तरंग का प्रवाह जब आध्यात्मिक प्रवाह में समा जाता है तब व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है क्योंकि भौतिक शरीर अर्थात भौतिक तरंग से मानसिक तरंग का तारतम्य टूट जाता है। ऋषि मुनियों ने इसे महामृत्यु कहा है। धर्म ग्रंथों के अनुसार महामृत्यु के बाद नया जन्म नहीं होता और आत्मा जीवन-मरण के बंधन से मुक्त हो जाती है।
ब्रह्मचर्य तो जवानी में ही काम का है
यह सवाल अक्सर पूछा जाता है और जवानी में तो खासतौर पर कि ब्रह्मचर्य आखिर होता क्या है। शाब्दिक अर्थ तो यह है कि जिसकी चर्या ब्रह्म में स्थित हो वह ब्रम्हचारी है। बहुत गहराई में जाएं तो इसका विवाहित या अवाहित होने से उतना संबंध नहीं है जितना जुड़ाव कामशक्ति के उपयोग से है। हरेक के भीतर यह शक्ति जीवन ऊर्जा के रूप में स्थित है। जब कोई परमात्मा, आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म, सत्य, अहिंसा जैसे आध्यात्मिक तत्वों की शोध में निकलेगा तब उसे इस शक्ति की बहुत जरूरत पड़ेगी और इसे ही ब्रह्मचर्य माना गया है। जिन्हें प्रसन्नता प्राप्त करना हो उन्हें अपने भीतर के ब्रह्मचर्य को समझना और पकड़ना होगा।जानवर और इन्सान में यही फर्क है। ऐसा शरीर तो दोनों के पास रहता है जो पंच तत्वों से बना है। इसी कारण शरीर को जड़ कहा है, लेकिन आत्मा चेतन है। वह विचार और भाव सम्पन्न है।
जानवरों में आत्मा भी है। फर्क यह है कि मनुष्य के भीतर जड़ और चेतन के इस संयोग का उपयोग करने की संभावना अधिक है और यही उसकी विशिष्टता, योग्यता का कारण बनती है। यदि इसका दुरुपयोग हो तो मनुष्य भी जानवर से गया बीता होगा और सद्उपयोग हो तो जानवर भी इन्सान से बेहतर हो जाता है। हम ब्रह्मचर्य के प्रति जागरुक रहें इसके लिए नियमित प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास सहायक होगा। जड़ शरीर को साज-संभाल करने में जितना समय हम खर्च करते हैं उससे आधा भी यदि चेतन, जीवन ऊर्जा के लिए निकालें, थोड़ा अपने ही भीतर जाएं।
कभी खुद के लिए भी निकालें समय
हम भागदौड़ में इतने रम गए हैं कि दुनिया तो ठीक सबसे ज्यादा खुद को ही
भूला बैठे हैं। आज हमारे पास खुद के लिए ही समय नहीं है। इससे सबसे बड़ी
समस्या यह खड़ी हो गई है कि हमारा खान-पान भी बिगड़ गया है, जो सीधे हमारी
प्राणशक्ति को प्रभावित करता है। हम कब, कहां, क्या और कैसे खा रहे हैं
इसका ध्यान नहीं रहता है।
आज आदमी इतना अधिक बाहर टिक गया है कि मनुष्यता की भीतर भी एक यात्रा हो सकती है वह भूल ही गया है। आप कितने ही सक्रिय, व्यस्त और परिश्रमी हों अपने भीतर मुड़ना न भूलें। चौबीस घण्टे में कुछ समय खुद के साथ जरूर रहें। दिनभर, रातभर हम सबके साथ रह लेते हैं। अपना काम, उपयोग की सामग्रियां, रिश्ते, घटनाएं इन सबके साथ हमारा वक्त गुजरता है पर खुद के साथ होने में चूक जाते हैं। भीतर उतरने में जितनी बांधाएं हैं उनमें से एक बाधा है हमारा भोजन। हमारे व्यक्तित्व की पहली परत है देह और इसका निर्माण भोजन से होता है। आइए हनुमानजी महाराज से सीखें भोजन का महत्व और सही उपयोग। लंका जलाने जैसा विशाल कार्य करने के पूर्व वे सीताजी के सामने एक निवेदन रखते हैं।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
सुंदर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बहुत भूख लगी है। यहां हनुमानजी इशारा कर रहे हैं कितने ही व्यस्त रहें समय पर संतुलित और शुद्ध (शाकाहारी) भोजन अवश्य कर लें। भोजन को काम चलाऊ गतिविधि मानना अपने ही शरीर पर खुद के ही द्वारा एक खतरनाक आक्रमण है। एक ऐसा युद्ध जिसमें आप स्वयं ही शस्त्र हैं और स्वयं ही आहत हैं। आप जितना शुद्ध भोजन ले रहे होंगे उतनी ही आपकी अंतरयात्रा सरल हो रही होगी। इस अल्पाहार के ठीक बाद हनुमानजी को रावण से मिलना था। रावण यानी दुगरुणों का गुच्छा। यदि आप भरे पेट हैं तो दुगरुण खाने की अरूचि की संभावना बनी रहेगी। शुद्ध भोजन भीतर की पारदर्शिता और बाहर की सक्रियता को बढ़ाता है और इसी कारण हनुमानजी लंका जलाने यानी दुगरुण को नष्ट करने जैसा कार्य कर सके। इसलिए आहार बाहरी शरीर को सुंदर और भीतरी शरीर को शांत बनाएगा।
आज आदमी इतना अधिक बाहर टिक गया है कि मनुष्यता की भीतर भी एक यात्रा हो सकती है वह भूल ही गया है। आप कितने ही सक्रिय, व्यस्त और परिश्रमी हों अपने भीतर मुड़ना न भूलें। चौबीस घण्टे में कुछ समय खुद के साथ जरूर रहें। दिनभर, रातभर हम सबके साथ रह लेते हैं। अपना काम, उपयोग की सामग्रियां, रिश्ते, घटनाएं इन सबके साथ हमारा वक्त गुजरता है पर खुद के साथ होने में चूक जाते हैं। भीतर उतरने में जितनी बांधाएं हैं उनमें से एक बाधा है हमारा भोजन। हमारे व्यक्तित्व की पहली परत है देह और इसका निर्माण भोजन से होता है। आइए हनुमानजी महाराज से सीखें भोजन का महत्व और सही उपयोग। लंका जलाने जैसा विशाल कार्य करने के पूर्व वे सीताजी के सामने एक निवेदन रखते हैं।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
सुंदर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बहुत भूख लगी है। यहां हनुमानजी इशारा कर रहे हैं कितने ही व्यस्त रहें समय पर संतुलित और शुद्ध (शाकाहारी) भोजन अवश्य कर लें। भोजन को काम चलाऊ गतिविधि मानना अपने ही शरीर पर खुद के ही द्वारा एक खतरनाक आक्रमण है। एक ऐसा युद्ध जिसमें आप स्वयं ही शस्त्र हैं और स्वयं ही आहत हैं। आप जितना शुद्ध भोजन ले रहे होंगे उतनी ही आपकी अंतरयात्रा सरल हो रही होगी। इस अल्पाहार के ठीक बाद हनुमानजी को रावण से मिलना था। रावण यानी दुगरुणों का गुच्छा। यदि आप भरे पेट हैं तो दुगरुण खाने की अरूचि की संभावना बनी रहेगी। शुद्ध भोजन भीतर की पारदर्शिता और बाहर की सक्रियता को बढ़ाता है और इसी कारण हनुमानजी लंका जलाने यानी दुगरुण को नष्ट करने जैसा कार्य कर सके। इसलिए आहार बाहरी शरीर को सुंदर और भीतरी शरीर को शांत बनाएगा।
क्यों पवित्र माना जाता है गो-मूत्र?
गाय के पूरे शरीर को ही पवित्र माना गया है लेकिन गाय का मूत्र सर्वाधिक पवित्र माना जाता है।
ऐसा क्यों होता है?
जिस चीज को अपवित्र कहा जाता हो वही मूत्र जब गाय का होता है तो उसे पवित्र मान लिया जाता है। क्या इसके पीछे भी कोई कारण है?
गोमूत्र में पारद और गन्धक के तात्विक गुण अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। गोमूत्र का सेवन करने पर प्लीहा और यकृत के रोग नष्ट हो जाते हैं।
गोमूत्र कैंसर जैसे भयानक रोगों को भी ठीक करने में सहायक है। दरअसल गाय का लीवर चार भागों में बंटा होता है। इसके अन्तिम हिस्से में एक प्रकार एसिड होता है जो कैंसर जैसे भयानक रोग को जड़ से मिटाने की क्षमता रखता है।
इसके बैक्टिरिया अन्य कई जटिल रोगों में भी फायदेमंद होते हैं। गो-मूत्र अपने आस-पास के वातावरण को भी शुद्ध रखता है।
Saturday, November 10, 2012
आकाश में इन्द्रधनुष क्यों दिखाई देता है?
बरसात के मौसम में जब कभी आकाश में काले-काले बादल छाए होते हैं तो मन बड़ा
प्रफुल्लित होता है। उस पर भी यदि हल्की-फुल्की बारिश के छींटें पड़ जाएं
जो ऐसा लगता है मानो प्रकृति आज हम पर दिल खोलकर प्यार बरसा रही है।
ऐसे सुंदर मौसम में आकाश में इन्द्रधनुष उभर आना प्रकृति-प्रेमियों के लिए सोने में सुहागा वाली कहावत सच होने जैसा है।
पर आकाश में इन्द्रधनुष क्यों दिखाई देता है?
क्या इसकी कोई धार्मिक मान्यता भी है?
हिन्दू धर्म ग्रंथों में इन्द्र को वर्षा का देवता माना जाता है। आकाश में इन्द्रधनुष प्रकट होने का अर्थ यह है कि वर्षा के देवता इन्द्र अपने धनुष सहित नभ मण्डल में वर्षा करने के लिए उपस्थित हैं।
सूर्य की किरणों में सात रंग होते हैं। बादल जल वाष्प होते हैं मतलब उनमें वर्षा करने के लिए जल भरा होता है।
जैसे ही सूर्य की किरणें बादलों की सतह से टकराती हैं तो वे परावर्तित होती हैं और इन्द्रधनुष यानि सप्तरंगी के रूप में दिखाई देती हैं। बादलों से टकराकर जब सप्तरंगी इन्द्रधनुष बनता है तो लोग आसानी से ये अनुमान लगा लेते हैं कि अभी बादल छाये हुए हैं और बारिश होगी।
इन्द्रधनुष के निकलते ही मोर नाचने लगते हैं और हर तरफ खुशी का माहौल
ऐसे सुंदर मौसम में आकाश में इन्द्रधनुष उभर आना प्रकृति-प्रेमियों के लिए सोने में सुहागा वाली कहावत सच होने जैसा है।
पर आकाश में इन्द्रधनुष क्यों दिखाई देता है?
क्या इसकी कोई धार्मिक मान्यता भी है?
हिन्दू धर्म ग्रंथों में इन्द्र को वर्षा का देवता माना जाता है। आकाश में इन्द्रधनुष प्रकट होने का अर्थ यह है कि वर्षा के देवता इन्द्र अपने धनुष सहित नभ मण्डल में वर्षा करने के लिए उपस्थित हैं।
सूर्य की किरणों में सात रंग होते हैं। बादल जल वाष्प होते हैं मतलब उनमें वर्षा करने के लिए जल भरा होता है।
जैसे ही सूर्य की किरणें बादलों की सतह से टकराती हैं तो वे परावर्तित होती हैं और इन्द्रधनुष यानि सप्तरंगी के रूप में दिखाई देती हैं। बादलों से टकराकर जब सप्तरंगी इन्द्रधनुष बनता है तो लोग आसानी से ये अनुमान लगा लेते हैं कि अभी बादल छाये हुए हैं और बारिश होगी।
इन्द्रधनुष के निकलते ही मोर नाचने लगते हैं और हर तरफ खुशी का माहौल
क्यों जरूरी है जीवन में मौन?
मौन एक तरह का व्रत है साधना है। मौन-व्रत का सीधा सा मतलब होता है- अपनी जुबान को लगाम देना अर्थात अपने मन को नियंत्रित करते हुए चुप रहना।
मौन का एक अर्थ यह भी होता है अपनी भाषा शैली को ऐसा बनाएं जो दूसरों को उचित लगे।
पर क्या मौन इतना ही जरूरी है?
क्या मौन के बिना जीवन नहीं चल सकता?
मौन की आदत डालने से व्यक्ति कम बोलता है और जब वह कम बोलता है तो निश्चित रूप से सोच समझकर ही बोलता है। इस तरह से वह अपनी जुबान को अपने वश में कर सकता है।
यह बात तो प्रामाणित भी हो चुकी है कि सप्ताह में कम से कम एक दिन मौन रखने से कई आश्चर्यजनक परिणाम मिले हैं। फिर भी यदि मौन पूरे दिन नहीं रख सकते तो आधे दिन का जरूर रखना चाहिए।
बोलने से व्यक्ति के शरीर की शक्ति खत्म होती है। जो जितना ज्यादा बोलता है उसका एनर्जी लेबल, जिसे आन्तरिक शक्ति भी कहते हैं, का नाश होता है। यह आन्तरिक शक्ति शरीर में बची रहे इसलिए भी मौन व्रत जरूरी है।
Thursday, November 8, 2012
नारद भक्ति सूत्र
प्रेम की पराकाष्ठा
जीवन
की हर इच्छा के पीछे एक ही मांग है। आप यदि परख कर देखो कि वह एक मांग
क्या है, तो निश्चित रूप से मालूम पड़ता है कि वह है ढाई अक्षर प्रेम का।
सब-कुछ हो जीवन में, पर प्रेम न हो, तब जीवन जीवन नहीं रह जाता। प्रेम हो,
और कुछ हो या न हो, फिर भी तृप्ति रहती है जीवन में, मस्ती रहती है,
आनन्द रहता है, है कि नहीं।
जीवन की मांग है प्रेम –
और जीवन में परेशानियां, समस्यायें, बन्धन, दु:ख, दर्द यह सब होता भी
प्रेम से ही है। व्यक्ति से प्रेम हो जाए, वही फिर मोह का कारण बन जाता
है। वस्तु से प्रेम हो जाए तो लोभ हो जाता है, उसी को लोभ कहते हैं। अपनी
स्थिति से प्रेम हो जाए, उसको मद कहते हैं, अहंकार कहते हैं। और ममता,
अपनेपन से प्रेम यदि मात्रा से अधिक हो जाए, तो उसे ईर्ष्या कहते हैं।
प्रेम अभीष्ट है, फिर भी उसके साथ जुड़ा हुआ यह सब अनिष्ट – किसी को पसन्द नहीं है। हम इससे बचना चाहते हैं क्योंकि अनिष्टों से ही दु:ख होता है।
फिर
जीवन की तलाश क्या है। हमें एक ऐसा प्रेम मिले जिससे कोई विकार, जिससे
कोई दु:ख, कोई बन्धन महसूस नहीं हो। जीवन भर प्रेम की खोज चलती है। बचपन
में इसे खि लौनों में खोजते हैं, खेल में खोजते हैं, फिर उसी प्रेम को
दोस्तों में खोजते हैं, साथी-संगियों में खोजते हैं। फिर आगे चलकर,
वृद्धावस्था में, बच्चों में खोजते हैं। तब भी हाथ कुछ नहीं आता, खाली ही
रह जाता है।
यदि
सचमुच में प्रेम का अनुभव, शुद्ध प्रेम का अनुभव एक बार भी हो जाए, तो
व्यक्ति का जीवन परिवर्तन की दिशा पर चल पड़ता है। एक बार भी एक झलक मिल
जाए भक्ति की, फिर व्यक्ति के जीवन में समष्टि उतर आती है, तृप्ति झलकती
है, कदम-कदम पर आनन्द की लहर उठती है।
यदि
हम प्रेम को जानते ही नहीं होते, तब प्रेम के बारे में चर्चा करना, विचार
करना, कुछ कहना, सब बेकार है। यदि कोई व्यक्ति अन्धा है, तो उसको रोशनी
के बारे में बताना मुश्किल है, या कोई बहरा है, उसको संगीत के बारे में
समझाना करीब-करीब असम्भव है। इसी तरह यदि हम प्रेम को जानते ही नहीं होते,
तब उसके बारे में कहना, बताना, चर्चा करना, विचार करना, सब बेकार है।
हम
प्रेम को जानते हैं, या ऐसा कहें, प्रेम को हम महसूस करते हैं जीवन में,
मगर उसकी गहराई में नहीं उतरे। हमारे जीवन में प्रेम एक कूएं जैसा बनकर रह
गया है। एक छोटा कंकड़, पत्थर भी यदि उसमें डालो तो एकदम नीचे की मिट्टी
ऊपर आने लगती है। परन्तु मन यदि सागर जैसा हो, प्रेम यदि इतना वि शाल हो,
तब चाहे पहाड़ भी गिर जाए उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। जीवन में प्रेम
उदय हो और उसकी वि शालता हमारे अनुभव में आ जाए, जब समझना जीवन सफल हो गया।
जरा सोचो न, मान लो आपको सब कुछ मिल जाए जीवन में, मगर प्रेम नहीं, आप
जीना पसन्द करेंगे क्या। प्रेम अनुभव में पूर्ण रूप से आ जाए, तब उसके
बारे में व्याख्या करने की कोई जरूरत नहीं। गहराई में यदि एक बार भी तुम
भक्ति की श्वास ले लोगे, फिर भक्ति क्या है, बताने की जरूरत नहीं। किंतु
एक धुंधला सा अनुभव तो है, थोड़ा पता तो है, मगर पूरा समझ में नहीं आ रहा।
तब नारद महर्षि कहते हैं:-
अब
हम भक्ति की चर्चा करते हैं। कब, जब हम जानते हैं प्रेम क्या है। जब हम
जीवन में, किसी न किसी अंश पर, प्रेम और भक्ति को, शान्ति और तृप्ति को,
अनुभव कर चुके हैं। खुद के जीवन में मुड़कर देख चुके हैं, अनुभव कर चुके
हैं कि हर परिस्थिति, वस्तु, व्यक्ति परिवर्तनशील है। दुनिया में सब कुछ
बदल रहा है मगर कुछ ऐसा है जो बदलता नहीं है। वह क्या है यह नहीं पता है।
हम
अपने बारे में भी देख चुके हैं, अपना सब कुछ बदल रहा है। विचार बदलते हैं,
शरीर तो बदल चुका, वातावरण में बहुत परिवर्तन आया है। दिन-दिन नए वातावरण
से, परिस्थितियों से गुजरते हुए हम निकल रहे हैं। फिर वह क्या है जो
अपरिवर्तनशील है, जो बदला नहीं है, इस खोज की एक आकांक्षा मन में उठे। भई,
जब सुनने की चाह हो तब बोलने से फायदा होता है, प्यास हो तब पानी पीने में
मजा आता है, तब वह अच्छा लगता है।
ऐसी प्यास हमारे भीतर जग जाए, तब नारद कहते हैं, ‘अच्छा
अब मैं बताता हूं भक्ति क्या है। अब मैं उसकी व्याख्या करता हूं। अब
तुम ऐसे प्रेम की तलाश में हो जिसका रूप क्या है, लक्षण क्या है, यह मैं
तुम्हें बताता हूं।‘
नारद
माने वह ऋषि जो तुम्हें अपने केन्द्र से जोड़ देते हैं, अपने आप से जोड़
देते हैं। नारद महर्षि का नाम तो विख्यात है, सब ने सुना है। जहां जाएं
वहां कलह कर देते हैं नारद मुनि। कलह भी वही व्यक्ति कर सकता है जो प्रेमी
हो, जिसके भीतर एक मस्ती हो। जो व्यक्ति परेशान है वह कलह नहीं पैदा कर
सकता, वह झगड़ा करता है। झगड़ा और कलह में भेद है। जिनकी दृष्टि में समस्त
जीवन एक खेल हो गया है वह व्यक्ति तुम्हे भक्ति के बारे में बताते हैं – भक्ति क्या है –
असल
में भक्ति व्याख्या की चीज नहीं है। व्याख्या दिमाग की चीज होती है,
भक्ति एक समझ दिल की होती है, प्रेम दिल का होता है, व्याख्या दिमाग की
होती है। व्यक्ति का जीवन पूर्ण तभी होता है जब दिल और दिमाग का सम्मिलन
हो। इसीलिए कहते हैं कि सिर्फ भाव में बह जाओगे तब भी जीवन पूर्ण नहीं
होगा। और दिमाग के सिद्धान्तों में, विचारों में उलझे रहोगे तब भी जीवन
पूर्ण नहीं होगा। दिमाग से दिल को समझो, दिल से दिमाग को परखो।
अब हम भक्ति के बारे में व्याख्या करते हैं। जिसकी व्याख्या करना करीब-करीब असम्भव है –
वह सिर्फ नारद के लिए सम्भव है। बहुत से ऋषि हुए हैं इस देश में, उनमें
से एक नारद और एक शाण्डिल्य के सिवाय किसी और ने भक्ति के बारे में
व्याख्या नहीं की है। उसमें नारद ही भक्ति के प्रतीक हैं क्योंकि वे
जानते हैं केन्द्र को भी और वे जानते हैं वृत्त को भी।
अब हम किसी से पूछें, ‘ऋषिकेश कहां हैं।‘ तो काई हरिद्वार जानने वाला होगा वह कहेगा ‘देखो हरिद्वार जानते हो न, ऋषिकेश हरिद्वार से पचीस किलोमीटर की दूरी पर है, उत्तरभारत में, यू पी में है।‘
कुछ समझाने के लिए भी एक निदेशन की जरूरत है, जिसे अग्रेंजी में रेफरेन्स
पाइन्ट कहते हैं। जैसे दिल्ली कहां है। हरियाणा और यू पी के बीच में।
वह
भक्ति क्या है। परमप्रेम, अतिप्रेम, प्रेम की पराकाष्ठा है। जब प्रेम
क्या है नहीं जानते हैं, तब भक्ति कैसे समझ सकते हैं। तो कहते हैं प्रेम
तो तुम जानते हो। माता का प्रेम तुमने जाना, पिता का प्रेम जाना, भाई का,
बहन का प्रेम तुमने जाना, पति-पत्नी का प्रेम तुमने जाना। बच्चों के
प्रति प्यार तुम्हारे अनुभव में आ गया। वस्तु के प्रति लगाव, व्यक्ति
के प्रति लगाव, परिस्थिति के प्रति लगाव, जिससे मोहित होकर हम दु:खी हो
जाते हैं – उस प्रेम को जानने पर, कहते हैं, इस प्रेम की ही पराकाष्ठा है भक्ति।
एक प्रेम को वात्सल्य, दूसरे को स्नेह, तीसरे को प्रेम कहते हैं –
प्रीति, गौरव। इस तरह से अलग-अलग नाम से हम प्रेम को जानते हैं। और इन सब
तरह के प्रेम से परे जो एक प्रेम है, उसी को भक्ति कहते हैं। और इन सब
प्रेम को अपने में समेटकर पूर्ण रूप से जो निकली है जीवनी ऊर्जा, जीवनी
शक्ति, वही प्रेम है।
अक्सर
क्या होता है, प्रेम तो होता है हमें, किन्तु वह प्रेम बहुत शीघ्र ही
विकृत हो जाता है। उसकी मौत हो जाती है। प्रेम जहां ईर्ष्या बनी तो प्रेम
की मौत हो गई वहां पर। ईर्ष्या में बदल गया वह प्रेम। जहां प्रेम लोभ हुआ
तो वहां प्रेम खत्म हो गया, वह प्रेम ही द्वेष बन गया। प्रेम हमारे जीवन
में हमेशा मरणशील रहा है, इसीलिए ही समस्या है।
आप किसी से भी पूछो –
आप अपने लिए जी रहे हो क्या - - - - - सब एक दूसरे के लिए जी रहे हैं।
फिर भी कोई नहीं जी रहा है। इतना कोलाहल, इतनी परेशानी, इतनी बेचैनी जीवन
में क्यों। प्रेम की मौत हो गई। मगर परमप्रेम का स्वरूप क्या है, तब
कहते हैं नारद - -
भक्ति एक ऐसा प्रेम है जिसकी कभी मृत्यु नहीं, जो कभी मरता नहीं है, दिन-प्रतिदिन उसकी वृद्धि होती है।
जो कभी मरती नहीं, उस भक्ति को जानने से क्या होगा।
भक्ति
पाकर क्या करोगे तुम जीवन में। इससे क्या होता है। तब कहते है सिद्धो
भवति। कोई कमी नहीं रह जाएगी तुम्हारे जीवने में। भक्तों के जीवन में कोई
कमी नहीं होती। किसी भी चीज की कमी नहीं होती, किसी भी गुण की कमी नहीं
होती। ‘’सिद्धो भवति, अमृतो भवति’’
जो अमृतत्व को जान लिया, उसके जीवन में अमृतत्व फलप गया। जब हम क्रोधित
होते हैं, तब हम एकदम क्रोध में हो जाते हैं और जब खुश होते हैं तब वह खुशी
हमारे में छा जाती है। हम कहते हैं न खुशी से भर गए। इसी तरह अमृतत्व को
जानते ही, भक्ति को जानने ही लगता है ‘’मैं तो शरीर नहीं हूं, मैं तो कुछ और ही हूं।‘’ मैं वही हूं। मेरी कभी मृत्यु हुई ही नहीं, और न ही होगी।‘’
जब मन सिमटकर अपने आप में डूब गया तब जो रहा वह गगन जैसी वि शाल हमरी
सत्ता। कभी गगन की मृत्यु देखी है, सुनी है। मृत्यु शब्द ही मिट्टी के
साथ जुड़ा हुआ है। मिट्टी परिवर्तनशील है, आकाश नहीं। मन पानी के साथ जुड़ा
हुआ है, जैसे पानी बहता है वैसे मन भी बहता है। आज के विज्ञान से यह बात
सिद्ध हुई है कि शरीर में 98 प्रति शत आकाश तत्व है, जो बचा हुआ दो प्रति
शत है उसमें साठ प्रति शत पानी है, जल तत्व है। मृण्मय शरीर मौत के अधीन
है, मगर चेतना अमर है।
प्रेम
चमड़ा है या चेतना। क्या है प्रेम। यदि प्रेम सिर्फ मिट्टी होता तो वह
अमृतत्व में नहीं ले जा सकता, भक्ति तक नहीं पहुंचा सकता। परम प्रेम जो है
वह अमृतस्वरूप है, वही तुम्हारा स्वरूप है। सिद्धो भवति, अमृतो भवति,
तृप्तो भवति – तृप्त हो जाओ।
नारद अगले सूत्र में कहते हैं –
अच्छा, इसका प्राप्त करने के बाद क्या क्या नहीं करते ......... दोनों
तरफ देखना पड़ता है न लक्षण। एक तो आपने क्या पाया और आपने क्या खोया।
पाया तो यह कि हमारे भीतर जो तत्व है वह न भीतर है, न बाहर है, सब जगह है
या दोनों जगह है, और वह अमृतत्व है। और जिसके पाने से जीवन में कोई कमी
नहीं रह जाती, यह भक्ति है और तृप्ति है। तृप्ति झलकती है जीवन में, तो यह
भक्ति पाने का लक्षण हुआ।
भक्ति
पाने से क्या-क्या नहीं करते। मुझे यह चाहिए, वह चाहिए....... और चाह
जिससे मिट जाती है - देखो, जीवन में सौभाग्यशाली उन्हीं को कहते हैं
जिनके मन में चाह उठने से पहले ही पूरी हो जाये। भाग्यशाली हम उसी को कह
सकते हैं जिनके भीतर चाह की कोई आवश्यकता ही न पड़े। माने भूख लगे भी
नहीं, तब तक खाना सामने मौजूद हो, प्यास लगे ही नहीं मगर पानी हो, अमृत हो
सामने पीने के लिए। माने चाहे उठने की सम्भावना ही नहीं रहे –
तो कह सकते हैं भाग्यशाली हैं। और दूसरे नम्बर का भाग्यशाली, उससे जरा
कम, चाहे उठे, उठते ही पूर्ण हो जाए, माने प्यास लग रही हो आपको, तुरन्त
कोई पानी लेकर आए। माने चाह उठी और उसके पूर्ण होने में कोई देर न लगे। वे
दूसरे नम्बर के भाग्यशाली हैं। तीसरे नम्बर के भाग्यशाली वे होते हैं
जिनके भीतर चाह तो उठती है मगर पूरा होने में बहुत समय और परिश्रम लग जाता
है। बरसों उसमें लगे रहते हैं, बहुत परिश्रम करते हैं, फिर जब वह चाह पूरी
भी होती है तब भी कुछ अच्छा नहीं लगता। उसका आनन्द भी नहीं ले पाते, उसकी
खुशी भी नहीं अनुभव कर पाते। ये उससे भी कम भाग्यशाली हैं।
दुर्भाग्यशाली उनको कहते हैं जिनके भीतर चाह ही चाह उठती है परन्तु वह
पूरी नहीं होती।
भक्ति
को पाने से जीवने में कुछ इच्छा नहीं रह जाती। क्यों। जो आवश्यक
वस्तुएं हैं, अपने आप, जरूरत से अधिक, समय से पूर्व प्राप्त होने लग जाती
हैं।
न
किन्चिद वान्छति न शोचति। जब चाह ही नहीं, फिर दु:खी होने की बात ही नहीं
रही। वे बैठकर दु:खी नहीं होते। दु:ख माने क्या। भूतकाल को पकड़ना। भूत
पकड़ लिया है न। सचमुच में यह बात सच है, भूत सवार हो गया। बीती हुई बातों
को दिमाग में ले-लेकर हम दु:खी हो जाते हैं। चित्त की दशा यदि देखोगे न,
हर क्षण में, हम क्षण में हम बीती हुई बातों पर अफसोस करते रहते हैं और
भविष्य में होने वाली बातों को लेकर भयभीत होते रहते हैं। एक कल्पना से
हम भयभीत होते हैं और स्मृति से हम दु:खी होते हैं। कल्पना और स्मृति के
बीच में कहीं हम रहते हैं। भक्ति उस वर्तमान क्षण की बात है। कहते हैं, न
किन्चिद वान्छति भविष्यकाल के बारे में ये चाहिए, वो चाहिए.... ये नहीं। न
शोचति। भूतकाल को लेकर अफसोस नहीं करते। हम हर बात पर अफसोस करने लगते
हैं, नाराज होते रहते हैं पुरानी बातों को लेकर, वर्तमान क्षण को भी खराब
करते हैं, भविष्यकाल का तो कहना ही क्या। न किन्चिद वान्छति न शोचति, न
द्वेष्टि – जब हम लगातार चाह करते रहते हैं और अफसोस करते हैं तो इसका तीसरा भाई है द्वेष –
वह इनके पीछे-पीछे आ जाता है, तीसरा भागीदार। हम खुद के मन की वृत्तियों
को देखकर खुद से नफरत करने लगते हैं या दूसरों से नफरत करने लगते हैं,
द्वेष। मगर भक्ति के पाने से क्या होता है। न द्वेष्टि –
द्वेष मिट जाता है जीवन में, तुम कर ही नहीं सकोगे द्वेष। मन में एक
हल्का सा द्वेष का धुआ भी उठे तो एकदम असह्य हो जाता है, क्षण भर भी उसको
सहन नहीं कर पायेंगे। जब क्षण भर किसी चीज को सहन नहीं कर पाते हैं तब हम
उसका त्याग कर देते हैं। यह हो जाता है, अपने आप। न खुद से नफरत, न किसी
और से नफरत। वह नफरत का बीज ही नष्ट हो जाता है।
जिसको
पाकर कभी चाह में, या अफसोस में, या द्वेष में मग्न हो जाना, माने रम
जाना। यहां बताया, रमते माने जिसमें रमण कर लें। यह और सूक्ष्म है। प्रेम
में भी रमण अधिक करने लगते हैं, तब भी हम होश खो देते हैं, प्रेम को खो
देते हैं। देखो, अकसर जो लोग खुश रहते हैं न, वही लोग दूसरों को परेशानी
में डाल देते हैं। वे खुशी में होश खो देते हैं और बेहोश आदमी से गलती ही
होगी। वह कुछ भी करेगा उसमें कोई भूल होगी ही। यह अकसर होता है। पार्टियों
में जो लोग बहुत खुश रहते हैं उनको इतनी समझ नहीं कि वे क्या बोल रहे हैं,
क्या कर रहे हैं, कुछ बोल पड़ते हैं, कर बैठते हैं जिससे दूसरों के दिल
में चोट लग जाती है। इसलिए रमण भी नहीं करते। और उत्साहित भी नहीं होते।
यह शब्द जरा चौकाने वाला है। क्या। भक्ति माने जिसमें उत्साह नहीं है,
वह भक्ति है। भक्त उत्साहित नहीं होगा। उत्साह तो जीवन का लक्षण है,
निरूत्साह नहीं है। इसको हम लोगों न गलत समझा है। खात तौर से इस देश में
जब किसी भी धर्म की बात होती है, या ध्यान, सत्संग, भजन कीर्तन होता है,
लोग बहुत गम्भीर बैठे रहते हैं, क्यों। उत्साहित नहीं होना चाहिए, खुशी
व्यक्त नहीं करते। गम्भीरता, निरूत्साह –
यही है क्या भक्ति का लक्षण। नहीं। यहां जो बताया है न, न उत्साही भवति
माने एक उत्साह या उत्सुकता में ज्वरित। उत्साह में क्या है, अकसर एक
ज्वर है, फलाकांक्षा है। दो तरह का उत्साह है – एक उत्साह जिसमें हम फलाकांक्षी रहते हैं, माने – ‘क्या होगा, क्या होगा, कैसे होगा, यह हो जाएगा कि नहीं’ –
इस तरह का ज्वर होता है भीतर। दूसरी तरह का उत्साह है जिसमें आनन्द या
जीवन ऊर्जा को अभिव्यक्त करते हैं। यहां जो नोत्साही भवति बताया है नारद
ऋषि ने, उस तरह के उत्साह को उन्होंने नकारा जिस उत्साह में ज्वर है,
फलाकांक्षा है।
फिर अगले सूत्र में कहते हैं:-
यत् ज्ञात्वा मत्तो भवति, स्तब्धो भवति, आत्मारामों भवति।।
यत् ज्ञात्वा जिसको जानने से मत्तो भवति उन्मत अवस्था हो। स्तब्धो भवति – स्तब्धता छा जाएगी, स्तब्ध – ठहराव, जीवन में एक ठहराव आ जाता है, मन में एक ठहराव आता है, व्यक्तित्व में ठहराव आ जाए – यह भक्ति का लक्षण है। चंचलता मिट जाए, स्थिरता की प्राप्ति हो। मत्तो भवति – intoxicated
जिसको कहते है न, नशे में, भक्ति का नशा ऐसा है जिसके बराबर और कोई नशा
नहीं। प्रेम का नशा सबसे बुरा है। यह ऐसा नशा है जो तुम्हें सारी दुनिया
को भुला देता है। यत् ज्ञात्वा। जिसको जानने से – यहां एक फर्क है। जिसको पाना और उसको जानना –
दो अलग चीज है। पा लेना आसान है मगर जानना कठिन है, सो जाना आसान है मगर
नींद के बारे में जानना बहुत कठिन है। प्रेम करना आसान है मगर प्रेम को
समझना अति कठिन है। मगर एक बार समझ जाएं, समझने का जो साधन है, उस साधन में
ही ऐस डूब जाएं, जिससे तुम समझते हो, समझने लगे हो, वही शान्त हो जाएगा।
वही पिघल जाएगा। तभी मस्त हो सकते हो, उन्मत्त हो सकते हो। उन्मत्त
माने क्या है। जहां बुद्धि पिघल गई। बुद्धि का पि घलना इतना आसान नहीं है।
जब भी आदमी बुद्धि से परेशान होता है तभी पीकर उसको पिघलाने की कोशिश करता
है। वह होता तो नहीं है, थोड़े समय के लिए हो जाओं उन्मत्त, नशे में,
मगर वह एक स्थाई स्थिति तो नहीं है। मगर भक्ति में एक स्थाई स्थिति का
उद्गम होता है। मत्तो भवति, मत्त:, एक नशा। उस नशे के साथ-साथ ठहराव।
अक्सर जो व्यक्ति नशे में होता है उसमें कोई ठहराव नहीं होता, अस्थिर
रहता है। स्थिरता भी रहे और उन्मत्तता भी हो, यह एक विशेष अवस्था है। यह
भक्ति से ही सम्भव है। और कोई चारा ही नहीं। मत्तो भवति स्तब्धो भवति,
आत्मारामों भवति। फिर वह अपनी आत्मा में रमण करता है। आत्मा में रमण
करना, आत्मारामों भवति। शब्द तो बहुत सुना है, आत्माराम, आत्मा में रमण
करो, अपनी आत्मा में ठहर जाओ, आत्मा तुम हो, निश्चय करो –
यह आत्मा है क्या। कई लोग कहते हैं मेरी आत्मा ऐसे निकल कर बाहर आ गई,
मैंने देख लिया। यह देखने वाला कौन होता है, आत्मा को देखने वाला। यह
आत्मा की आत्मा है। तुमने अपनी आत्मा को देख लिया, उड़ता हुआ ऊपर छत पर।
‘’ मेरी आत्मा निकल गई ऐसे, ज्योति रूप में, मैं वहां देखता रहा....... आत्मदर्शन.....’’
यह क्या है। उसका कोई रंग है, लाल है, पीला है। यह बहुत बड़ी भूल है।
जिससे तुम जानते हो, वहीं आत्मा है। जिसमें जानने की शक्ति है, वही आत्मा
है। आकाश कहीं और दूर नहीं है –
हम समझते हैं आकाश वहां ऊपर है। आकाश ऊपर है तो यहां क्या है। तुम कहां
हो। जहां तुम हो, वहीं आकाश है। तुम आकाश में ही तो टिके हो। यह पृथ्वी
भी आकाश में ही तो है। आकाश के बाहर कुछ है क्या। शरीर के भीतर आत्मा
नहीं है, आत्मा के भीतर शरीर है। हमारा स्थूल शरीर जितना है, उससे दस
गुणा अधिक सूक्ष्म शरीर है और उससे भी हजार गुणा अधिक है कारण शरीर। कहते
है न पांच कोष हैं – एक शरीर, फिर प्राणमय कोष, फिर मनोमय कोष। तुम अपने अनुभव से देखो न – शरीर और प्राणमय, शरीर की जो प्राण शक्ति है, ऊर्जा है, यह शरीर, सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से भी बड़ा है। मनोमय कोष –
विचार का जो हमारा शरीर है, वह इससे भी बड़ा, भावनात्मक शरीर उससे भी बड़ा
है। और आनन्दमय कोष जिसको हम कहते हैं, वह अनन्त है, व्याप्त है, सब
जगह व्याप्त। हम जब भी खुश रहते हैं, आनन्द में रहते हैं, उस वक्त शरीर
का कोई भान नहीं रहता।
मत्तो भवति उस उन्मत्त अवस्था को, स्तब्धो भवति ठहराव, आत्मारामोभवति –
जिसमें हम अपनी ही आत्मा में रमण करते हैं। कोई पराया लगे ही नहीं, तब वह
आत्माराम अवस्था है। जैसे यह हाथ इस शरीर से ही जुड़ा हुआ है। इस शरीर
का ही अंग है। जैस शरीर के ऊपर कपड़े। इसी तरह सब एक है। जितना सूक्ष्म
में जाते जाओगे, तुम पाओगे कि यह सब एक ही है। स्थूल में पृथक्-पृथक्
मालूम पड़ता है, सूक्ष्म में जाते-जाते लगता है एक ही है। जैस जो हवा इस
शरीर में गई, वही हवा दूसरों के शरीर के भीतर भी गई। हवा को तो हम बॉंट
नहीं सकते न। यह मेरा है, यह तेरा –
यह नहीं कह सकते। तो सूक्ष्म में जाते-जाते हम पाते हैं कि एक ही है।
आत्मारामो भवति। यदि ऐसी बात हो, तो फिर क्या करें। फिर मुझे वही चाहिए।
मुझे मस्त होना है, मुझे आनन्दित अनुभव करना है। अभी ही होना है मुझे – यह इच्छा उठे, यह कामना उठे भीतर। तब नारद कहते हैं:-
सा न कामयमाना, निरोधरूपत्वात्।।
यह इच्छा करने वाली बात नहीं है। बैठकर यह न करो – मुझे भक्ति दो, मुझे भक्ति दो.......... भक्ति की मांग ऐसी है जैसे मुझे सांस दो, मुझे सांस दो। जिस सांस से तुम बोल रहे हो ‘सांस दो’, वहीं तो है। सांस लेकर ही तो तुम कह रहे हो कि मुझे सांस दो। सा न कामयमाना –
कामना की परिधि से परे है प्रेम। प्रेम की चाह मत करो। निरोध रूपत्वात्
चाहत के निरोध होते ही प्रेम का उदय होता है। मुझे कुछ नहीं चाहिए या मेरे
पास सब कुछ है। इन दोनों अवस्था में हम निरोधित हो जाते हैं। मन निरोध में
आ जाता है। निरोध माने क्या। ‘’मैं कुछ नहीं हूं, मुझे कुछ नहीं चाहिए,’’ या ‘’मैं सब कुछ हूं, मेरे पास सब कुछ है’’। सा न कामयमाना –
कामना उसी वस्तु की होती है जो अपनी नहीं है। अपना हो जाने पर कामना नहीं
होती। बाजार में जाते हो कोई अच्छा चित्र देखते हो, - तो कहते हो, ‘’यह मुझे चाहिए –
मगर घर में जो इतने चित्र लगे हुए हैं दीवालों पर, उनपर नजर नहीं जाती। जो
अपना है नहीं, उसको चाहते हैं। प्रेम तो आपका स्वभाव है, आपका गुण है,
आपकी सॉंस हैं, अपका जीवन है, आप हो। उसको चाहने से नहीं मिलेगा। चाहने से
उससे दूर जाओगे तुम, इसलिए निरोध रूपत्वात्। सा न कामयमाना निरोध
रूपत्वात् तालाब में लहर है, लहर शान्त होते ही तालाब की शुचिता का एहसास
होता है। इसी तरह मन की जो इच्छाऍं हैं, ये शान्त होते ही प्रेम का उदय
हो जाता है।
अब
निरोध कैसे हो। मन को शान्त करें कैसे। तब अगला सूत्र। देखिए इन सूत्रों
में यह महत्व है कि एक-एक कदम पर एक-एक सूत्र पूर्ण रूप है, अपने आप में
पूर्ण है, वहीं पर तुम समाप्त कर सकते हो, आगे जाने की कोई जरूरत नहीं।
यदि तब भी समझ में न आये तो आगे के सूत्र में उसको और समझा देते हैं।
निरोधस्तु लोक वेदव्यापारन्यास:।।
निरोध –
किसको रोके। क्या रोकना चाहिए जीवन में। तब कहते हैं, लोक वेद व्यापार
न्यास:। बहुत काम में चौबीस घंटे हम फंसे रहें, तब मन में कभी प्रेम का
अनुभव, एहसास हो ही नहीं सकता। यह एक तरकीब है। आदमी को प्रेम से बचना हो
तो अपने आप को इतना व्यस्त कर दो – कहते है न, सांस लेने की भी फुरसत नहीं – फिर मरे हुए के जैसे रहते हैं। सुबह उठने से लेकर रात तक काम में लगे रहो, लगे रहो, लगे रहो –
जीवन उसी में समाप्त हो जाता है। पैसे बनाने की मशीन बन जाओ। सुबह से रात
तक पैसे के बारे में सोचते रहो, या कुछ और ऐसे सोचते रहो, काम करते रहो,
शान्त कभी नहीं होना, तब जीवन में प्रेेम या उससे संबंधित कोई भी चीज की
कोई झलक तक नहीं आएगी। या हम काम से तो छुट्टी लेकर बैठ जाते हैं मगर कुछ
क्रिया-कलाप शुरू कर देते हैं –
माला लेकर जपते रहो, या लगातार कुछ क्रिया-काण्ड करते चले जाओ, किताबें
पढ़ते जाओ, टेलीविजन देखते जाओ, कुछ तो करते जाओ, तब भी परम प्रेम के अनुभव
से, अनुभूति से, वंचित रह जाते हो। लोक वेद व्यापार न्यास:। ठीक ढंग से
लौकिक और धार्मिक जो भी तुम करते हो न, ठीक ढंग से इन सबसे विश्राम पाना।
तब तुम प्रेम का अनुभव कर सकते हो। जो व्यक्ति धर्म के नाम से लगातार
कर्मकाण्ड में लगा रहता है, उसके चेहरे पर भी प्रेम झलकता नहीं है। आपने
गौर किया है। नहीं तो कितने सारे मन्दिर हैं, जगह हैं, जगह-जगह लोग पूजा
करते हैं, पाठ करते हैं, इनमें ऐसा प्रेम टपकना चाहिए – ऐसा नहीं होता। पूजा करते हैं, इधर घंटी बजाते रहते हैं, उधर एकदम क्रोध-आक्रोश, वेग-उद्वेग – इसलिए नए पीढ़ी के लोगों का पूजा-पाठ से विश्वास उठ गया –
क्यों। मॉं-बाप को देखा इतना पूजा-पाठ करते हुए, जीवन में कोई परिवर्तन
नहीं आया, जैसे के तैसे ही रहते हैं। पूजा-पाठ में कोई दोष नहीं है, मगर हम
बीच में विश्राम लेना भूल गए हैं। हर पूजा-पाठ की प्रक्रिया में यह है कि
पहले आचमन करो, फिर प्राणायाम करो, फिर ध्यान करो। ध्यान की जगह हम एक
श्लोक पढ़ लेते हैं और मन को शान्त होने ही नहीं देते, वेद व्यापार में
लगे रहते हैं। वेद का भी एक व्यापार हो गया। लोक वेद व्यापार न्यास:।
निरोध करना हो तो लौकिक और वैदिक –
दोनों व्यापारों से मन को कुशलतापूर्वक निवृत्त करना है। बहुत कुशलता से
करना है यह काम। ऐसा नहीं कि पूजा-पाठ सब बेकार है, ऐसा कहकर एक तरफ कर दो
इसको, इससे भी नहीं होगा। लोक वेद व्यापार न्यास: - ढंग से इनसे विश्राम
पाना, कुशलतापूर्वक। यह कुशलता क्या है, और आगे कैसे चलें, इसके बारे में
कल विचार करेंगे।
प्रेम की अभिव्यक्ति
मन
की हर चंचलता, भक्ति की तलाश है। भक्ति ही ऐसा ठहराव ला सकती है मन में,
चेतना में। और भक्ति प्रेम रूप है। प्रेम जानते हैं, भक्ति को खोजते हैं।
प्रेम की पराकाष्ठा भक्ति है। और यह भक्ति विश्राम में उपलब्ध है, काम
में नहीं। नारद कहते हैं:-
निरोधस्तु लोक वेद व्यापारन्यास:।।
सब
तरह के काम से विश्राम पाओ। विश्राम में राम है। दुनियादारी के काम छोड़ते
हैं, फिर कर्मकाण्ड में उलझ जाते हैं। कई बार ऐसा होता है आप कर्मकाण्ड
तो करते हैं, पर मन उसमें लगता ही नहीं है। और सोचते रहते हैं कब यह खत्म
होगा। हाथ में माला फेर रहे हैं - - ‘’कब इसको खत्म करें, कब उठें’’ इस भाव से करते हैं। मन्दिर जाते हैं, तीर्थस्थानों पर जाते हैं, किसी भय से या लालसा से। भय से पूजा-पाठ करते हैं – किसी ने डरा दिया तो ऐसा हो जाएगा –
मंगल का या शनि का दोष हो जाएगा, कुछ बुरा हो जाएगा, धन्धा नहीं चलेगा।
आप हनुमानजी के मंदिर मे चक्कर लगाने लगते हैं, इसलिए नहीं कि हनुमानजी से
इतना प्रेम हो गया – दृष्टि तो धन्धे पर अटकी हुई है –
और दुकान को लेकर ही मंदिर जाते हैं। घर की समस्याओं को लेकर मंदिर जाते
हैं और लेकर ही वापस आते हैं। छोड़कर भी वापस नहीं आते। छोड़े कैसे। प्रेम
हो तभी न छोड़ें। भय से, या लोभ्ं से, हम पूजा-पाठ करते हैं, कर्मकाण्ड
में उलझते हैं। यह तो भक्ति नहीं हुई, यह तो प्रेम नहीं हुआ। आदमी थक जाता
है। तथाकथित धार्मिक लोगों के चेहरे को देखिए –
थके-हारे, उत्साह नहीं है, दु:ख से भरे हुए हैं। भगवान आनन्द स्वरूप
है, सच्चिदानन्द, उसकी एक झलक नहीं होनी चाहिए क्या। उसके साथ जुड़ जाने
से अपने भीतर उस गुण का प्रकाश होना है कि नहीं होना है। यह स्वाभाविक है।
मगर हम धर्म के नाम से बड़े उदास चेहरे दिखाते हैं।
दुनिया
दु:ख रूप है, मगर तुम भी दु:ख रूप हो जाते हो और इसका समझते हो धर्म। यह
गलत धारणा है। विश्राम पाओ। भक्त वहीं है जो यह नहीं सोचता कल मेरा क्या
होगा। अरे, जब मालिक अपने हैं तो कल की क्या बात है। जब मालिक हमारा है तो
तिजोरी की क्या बात है।
अगला सूत्र -
तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च।।
तस्मिन् अनन्यता। उसमें अनन्यता। वह अलग, मैं अलग – इस तरह से सोचने से प्रेम हो नहीं सकता। यह हो ही नहीं सकता। तस्मिन् अनन्यता। वह मुझसे अलग नहीं है।
जैसे
आपके बच्चों को कोई डांट दे तो आप उसको डांटने लगते हैं। आपकों तो डांट
नहीं पड़ी। किसी ने आपके बच्चों के साथ ठीक व्यवहार नहीं किया हो, तो आप
उस बात को अपने ऊपर ले लेते हैं। क्यों। मैं और मेरा बच्चा कोई अलग थोड़े
ही हैं। जिससे प्रेम हो जाता है उससे भेद भी कट जाता है। प्रेम हुआ माने
भेद मिटा और जब तक भेद नहीं मिटता तब तक प्रेम होता ही नहीं है। अपनापन हो,
आत्मीयता हो, इतनी आत्मीयता हो, तब ही मन ठहरता है। हम जो पसन्द कर
लेते हैं तब फिर मन भटकता नहीं है। जब टेलीफोन के सामन बहुत देर तक बैठते
हैं तो उसमें तल्लीन हो जाते हैं। अकेले बैठकर थोड़ी देर ध्यान में बैठो –
तो यहां दर्द, वहां दर्द, उधर वैचेनी, मन दुनिया भर में भागता है। क्यों।
सारी दुनिया दिमाग में आ जाती है जब ध्यान में बैठो। क्यों। हमने पसन्द
नहीं किया, प्रेम नहीं किया, अपने आप से प्रेम नहीं किया। जब खुद से, नफरत
से भर जाते हैं तो खुद के प्रति भी और औरों के प्रति भी नफरत ही करते हैं।
खुद के साथ जब प्रेम होता है, औरों के साथ भी प्रेम होता है। खुद के साथ
प्रेम हो कैसे, जब खुद में इतना दोष दिखता है। तब उस दोष को समर्पण कर दो।
समर्पित होने पर अनन्यता होती है। अनन्य होने पर समर्पित हो जाते हैं। यह
एक-दूसरे से मिले हुए हैं।
तस्मिन्
अनन्यता तद्विरोध। उदासीनता। उसके विरोध में कुछ भी हो, उसके प्रति
उदासीन हो जाओ। अधिक ध्यान नहीं देना। कर्मकाण्ड में नेम-निष्ठा बहुत
है, प्रेम में कोई नियम नहीं।
अन्याश्रयाणाम् त्यागो अनन्यता।।
Subscribe to:
Posts (Atom)