Tuesday, November 27, 2012

क्यों ना खाएं किसी का झूठा

खाना या भोजन हमारे जीवन की सबसे आवश्यक जरुरतों में से एक है। खाना ही हमारे शरीर को जीने की शक्ति प्रदान करता है। हम सभी दिन में कम से कम दो बार भोजन या नाश्ता जरूर करते हैं। अधिकांश लोग ऑफिस में या कॉलेज में अपने मित्रों के साथ भोजन करते हैं। एक साथ बैठकर भोजन करने को बहुत अच्छा माना गया है क्योंकि इससे प्रेम बढ़ता है।वहीं इस संबंध में आपने हमेशा अपने बढ़े- बूजुर्गो को यह कहते भी सुना होगा कि हमें किसी का झूठा नहीं खाना चाहिए।

दरअसल इसका कारण यह है कि हर व्यक्ति का भोजन करने का तरीका अलग होता है। कुछ लोग भोजन करने से पहले हाथ नहीं धोते हैं जिसके कारण उनका झूठा खाने वाले को भी संक्रमण हो सकता है। यदि कोई बीमार हो या उसे किसी तरह का संक्रमण हो तो उसका झूठा खाने से आप भी उस संक्रमण से प्रभावित हो सकते हैं। साथ ही ऐसी भी मान्यता है कि आप जिस व्यक्ति का झूठा खाते हैं उसके विचार नकारात्मक हैं तो वे विचार आपकी सोच को भी प्रभावित करते हैं।

इनसान सबसे पुराना है, Human being is oldest than all religions

इनसान सबसे पुराना है, जितने सारे धर्म हैं वो बाद में बने हैं | धर्म मनुष्य के लिए है, वे उसकी आत्मिक उन्नति के लिए बनाये गये हैं, इनसान मज़हब के लिए नहीं | आज के दौर में दुनियावी साज़-सामानों, तड़क-भड़क, वैज्ञानिक उपलब्धियों, बुद्धि की चतुराइयों, सदाचार के नियमों, और धार्मिक सिद्धांतों के होते हुए भी इनसान फिर भी खुश नज़र नहीं आता है | एक अनबुझी प्यास, अतृप्त इच्छाएं, आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में मानसिक तनाव से हमेशा ग्रस्त रहता है | लाखों लोग अपने आपसे और इस दुनिया की अंधी दौड़ से संतुष्ट नहीं हैं, उनके लिए जीवन एक पतझड़ के सामान नीरस, वीरान और बेजान है | लोग अपने को इनसान पहले कहने की बजाय हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख आदि कहलाने में ज्यादा चाव रखते हैं | वास्तव में सच्चा धर्म सबके लिए समान है और सर्वव्यापी है | प्रत्येक धर्म का स्वरुप दूसरों धर्मों के स्वरुप से अलग लगता है | लेकिन हरेक धर्म की शरियत (कर्मकांड) को छोड़कर उसके हकीकत के पहलू में जाएँ तो पायेंगें की एक ही रास्ता और एक ही नियम सब धर्मों की नींव में काम करता है | यह सारे संसार के लिए एक ही है | इनसान होने के नाते हम सब एक ही मानव बिरादरी के हैं और हमारा रूहानी आधार भी एक ही है |

परवरदिगार ने इनसान पैदा किया | इनसान ने अपने को मन के प्रभाव में आकर अपने आपको बाँटना शुरू किया | वे हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध आदि बाद में बने | आज से पांच सौ साल पहले सिक्ख नहीं थे, चौदह सौ साल पहले मुसलमान नहीं थे | दो हज़ार साल पहले ईसाईयों का नामो-निशान भी नहीं था और पांच हज़ार साल पहले बौद्धों का कहीं पता नहीं था | इस तरह आर्य हिन्दुओं से पहले भी कई कौमें आई और चली गईं | ज़ाहिर है कि सभी मनुष्य, क्या पूर्व के, क्या पश्चिम के, सब एक ही हैं और एक ही रहे हैं | कोई ऊँची या नीची जाति का नहीं | सबके अन्दर आत्मा है जो मालिक का अंश है | कबीर साहिब कहते हैं:

कहु कबीर इहु राम की अंसु ॥
जस कागद पर मिटै न मंसु ॥४॥२॥५॥ (SGGS 871)

सच्चा धर्म क्या है ? यह सवाल इनसान के अन्दर शुरू से उठता आ रहा है | इन विषय पर कितने मज़मून, ग्रन्थ और पोथियाँ लिखी गयी हैं | कोई कुछ कहता है कोई कुछ | अँधा अँधे को रोशनी दिखता है | लेकिन एक प्रश्न का तो एक ही उत्तर हो सकता है | इस पर विचार करने से पहले हमें देखना चाहिये कि धर्म या मज़हब का उद्देश्य क्या है ? इसका उत्तर संतों के हिसाब से एक ही है, "परम सुख या मालिक की प्राप्ति" |

प्रभु से प्रेम करते हुए हमें उसकी रचना से भी प्रेम करना है | सब संतों के जीवन में एक ही सिद्धांत काम करता हुआ नज़र आता है, वो आस्तिक और नास्तिक सब जीवों से एक सा ही प्यार करते हैं | वे जानते हैं कि सब एक ही मूल से ही पैदा हें हैं, इसलिए सब एक ही शरीर के अंग हैं | यदि एक अंग को दुःख होता है तो दुसरे अंग अपने आप बैचैन हो जाते हैं |

शेख फरीद साहिब फरमाते हैं की अगर तुझे प्रियतम से मिलने की तड़प है तो किसी का दिल न दुखा | दीनता, माफी और मीठे वचन एक जादूई शक्ति हैं जिससे तुम उस मालिक का दिल जीत लोगे | अगर बुद्धिमान हो तो सामान्य और सीधे रहो | अगर कुछ बांटने की ज़रुरत नहीं है तो भी दूसरों को कुछ दो | ऐसा भक्त मिलना बड़ा मुश्किल है | कभी भी कडवे बोल कर किसी का दिल न दुखाओ क्योंकि हर दिल में वो दिलवर रहता है |

निवणु सु अखरु खवणु गुणु जिहबा मणीआ मंतु ॥
ए त्रै भैणे वेस करि तां वसि आवी कंतु ॥१२७॥
मति होदी होइ इआणा ॥
ताण होदे होइ निताणा ॥
अणहोदे आपु वंडाए ॥
को ऐसा भगतु सदाए ॥१२८॥
इकु फिका न गालाइ सभना मै सचा धणी ॥
हिआउ न कैही ठाहि माणक सभ अमोलवे ॥१२९॥
सभना मन माणिक ठाहणु मूलि मचांगवा ॥
जे तउ पिरीआ दी सिक हिआउ न ठाहे कही दा ॥१३०॥ (SGGS 1384)

गुरु गोविन्द सिंह फरमाते हैं कि वह परवरदिगार सबके अन्दर बसता है, हरएक हृदय उसके रहने का स्थान है | अगर कोई उसकी खलकत को दुःख देता है, तो मालिक उस पर नाराज़ होता है:

खलक खालक की जान कै, खलक दुखावही नाहिं |
खलक दुःखहि नन्द लाल जी, खालक कोपहि ताहिं || (रहतनामे, प्र. ५९)

सब निर्मल आत्माओं और मालिक के आशिकों का एक ही धर्म है, 'वह है मालिक की इबादत और उसकी खलकत से प्यार |' इनसान तब ही इनसान कहलाने का हक़दार है जब उसमे इंसानियत के गुण हों, जब इनसान इनसान को भाई समझे, उसका दुःख-दर्द बंटायें, दिल में हमदर्दी रखे, मालिक और उसकी कुदरत से अटूट प्रेम रखे |

इसके विपरीत अगर ईर्ष्या, ज़ुल्म, हरामखोरी, दुश्मनी, लालच, लोभ, पाखण्ड, पक्षपात, हठ-धर्म, आदि हमारे अन्दर बसते हों तो हृदय का शीशा कैसे साफ़ हो सकता है ? इनसे मनुष्य-जीवन की सारी खुशी और मिठास ख़त्म हो जाती है | ऐसी मैल के होते हुए दिल के शीशे मैं परमात्मा की झलक कहाँ ?

आत्मा परमात्मा का अभिन्न अंश है | इसका दर्ज़ा सृष्टि में सबसे अव्वल और ऊँचा है | 'परमात्मा और उसकी रचना के साथ प्यार' का गुण जितना बढता है, उतना ही मनुष्य मालिक के नज़दीक कोटा जाता है | सब एक ही नूर से पैदा हुए हैं और उसी परवरदिगार का नूर सबके अन्दर चमक रहा है | फिर इनमें कौन बुरा है और कौन भला ?

अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥१॥ (SGGS 1349)

अंश और अंशी में कोई भेद नहीं हो सकता, सब उसी एक जौहर से पैदा हुए हैं | बाहरी रंग-रंग की शक्लों, पोशाकों और सभ्यताओं के भेद या फिर फिरकों के झगडे उनके आत्मिक तौर पर एक होने में फर्क नहीं डाल सकते हैं | खलकत के साथ प्यार करना भी एक तरह से मालिक के साथ प्यार करना ही है |

यही सच्चा मज़हब,सच्चा धर्म, दीं और ईमान है | शेख सादी ने इस बारे में कहा है कि ऐ मालिक, तेरी बन्दगी तेरे बन्दों की खिदमत करने में है; तस्बीह (माला) फेरने, सज्जदा (आसन) पर बैठे रहने या गुदड़ी पहन लेने में नहीं:

तरीक़त बजुज़ खिदमते-ख़लक नीस्त |
बी-तस्वीह ओ सज्जादा ओ दलक नीस्त || (बोस्तान, प्र. ४०)

हर घट में मेरा साईं है, कोई सेज उससे सूनी नहीं, लेकिन जिस घट के अन्दर वह प्रकट है, वह बलिहार जाने के योग्य है:

सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोई |
बलिहारी वा घट की , जा घट प्रकट होय ||

मौलाना रूम फरमाते हैं कि तू जिंदा दिलों की परिक्रमा कर, क्योंकि यह दिल हज़ारों काबों से बेहतर है | काबा तो हज़रत इब्राहीम का पिता का बुतखाना था, पर यह दिल खुदा के प्रकट होने का स्थान है |

कअबा बुंगाहे-खलीले-आज़र अस्त,
दिल गुज़रगाहे-ज़लीले-अकबर अस्त |
दिल बदस्त आवर कि हज्जे-अकबर अस्त,
अज हजारां कअबा यक दिल बिहतर अस्त | (मौलाना रूम )

सूफी फकीर मगरिबी कहते हैं कि धर्म के नाम पर इनसान को जिबह करने से या किसी का दिल दुखाने से मालिक कभी प्रसन्न नहीं होता, चाहे कोई हज़ारों तरह की पूजा, इबादत और तौबा करे, हज़ारों रोज़े रखे और हरएक रोज़े में हज़ार-हज़ार नमाजें पड़े और हज़ारों रात उसकी याद में गुज़ार दे | यह सब कुछ मालिक को मंज़ूर नहीं अगर वह एक दिल को भी सताता है:

हज़ार जुह्दो इबादत हज़ार इस्तिफ्गार,
हज़ार रोज़ा ओ हर रोज़ा रा नमाज़ हज़ार |
हज़ार ताअते-शब्-हा हज़ार बेदारी,
कबूल नीस्त अगर खातरे ब्याज़ारी | (मगरिबी )

हाफ़िज़ साहिब कहते हैं कि शराब पी, कुरान शरीफ जला दे, काबा में आग लगा दे, जो चाहे कर, पर किसी इनसान के दिल को मत दुखा:

मै खुर ओ मुसहफ़ बसोज़ ओ आतिश अंदर कअबा जन,
हर चिह ख्वाही कुन व्-लेकिन मर्दुम आजारी मकुन | (हाफ़िज़ साहिब )

शेख शादी कहते हैं कि जब तक तू खुदा के बन्दों को खुश नहीं करेगा, तू मालिक की रज़ा की प्राप्ति से खाली रहेगा | अगर तू चाहता है कि मालिक तुझ पर बख्शीश करे तो तू उसकी खलकत के साथ नेकी कर:

हासिल न-शवद रज़ाए-सुलतान, ता खातिरे-बन्दगा न जुई |
ख्वाही किह खुदाए बर तू बख्सद, बा खल्के-खुदाए बी-कुन निकुई | (शेख शादी, गुलिस्तान, प्र. ५८)

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