हम भागदौड़ में इतने रम गए हैं कि दुनिया तो ठीक सबसे ज्यादा खुद को ही
भूला बैठे हैं। आज हमारे पास खुद के लिए ही समय नहीं है। इससे सबसे बड़ी
समस्या यह खड़ी हो गई है कि हमारा खान-पान भी बिगड़ गया है, जो सीधे हमारी
प्राणशक्ति को प्रभावित करता है। हम कब, कहां, क्या और कैसे खा रहे हैं
इसका ध्यान नहीं रहता है।
आज आदमी इतना अधिक बाहर टिक गया है कि
मनुष्यता की भीतर भी एक यात्रा हो सकती है वह भूल ही गया है। आप कितने ही
सक्रिय, व्यस्त और परिश्रमी हों अपने भीतर मुड़ना न भूलें। चौबीस घण्टे में
कुछ समय खुद के साथ जरूर रहें। दिनभर, रातभर हम सबके साथ रह लेते हैं।
अपना काम, उपयोग की सामग्रियां, रिश्ते, घटनाएं इन सबके साथ हमारा वक्त
गुजरता है पर खुद के साथ होने में चूक जाते हैं। भीतर उतरने में जितनी
बांधाएं हैं उनमें से एक बाधा है हमारा भोजन। हमारे व्यक्तित्व की पहली परत
है देह और इसका निर्माण भोजन से होता है। आइए हनुमानजी महाराज से सीखें
भोजन का महत्व और सही उपयोग। लंका जलाने जैसा विशाल कार्य करने के पूर्व वे
सीताजी के सामने एक निवेदन रखते हैं।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
सुंदर
फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बहुत भूख लगी है। यहां हनुमानजी इशारा कर
रहे हैं कितने ही व्यस्त रहें समय पर संतुलित और शुद्ध (शाकाहारी) भोजन
अवश्य कर लें। भोजन को काम चलाऊ गतिविधि मानना अपने ही शरीर पर खुद के ही
द्वारा एक खतरनाक आक्रमण है। एक ऐसा युद्ध जिसमें आप स्वयं ही शस्त्र हैं
और स्वयं ही आहत हैं। आप जितना शुद्ध भोजन ले रहे होंगे उतनी ही आपकी
अंतरयात्रा सरल हो रही होगी। इस अल्पाहार के ठीक बाद हनुमानजी को रावण से
मिलना था। रावण यानी दुगरुणों का गुच्छा। यदि आप भरे पेट हैं तो दुगरुण
खाने की अरूचि की संभावना बनी रहेगी। शुद्ध भोजन भीतर की पारदर्शिता और
बाहर की सक्रियता को बढ़ाता है और इसी कारण हनुमानजी लंका जलाने यानी
दुगरुण को नष्ट करने जैसा कार्य कर सके। इसलिए आहार बाहरी शरीर को सुंदर और
भीतरी शरीर को शांत बनाएगा।
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