Thursday, November 1, 2012

भक्ति क्या है ?

भक्ति क्या है ?

देवर्षि नारद ने अपने भक्तिसूत्र में कहा है कि भगवान में जो परमप्रेम है वही भक्ति है ---
सा त्वस्मिन्परमप्रेमरूपा -1/1/2.
यहा नारदजी ने अस्मिन् शब्द का प्रयोग किया है । इदम् शब्द के पुल्लिड़्ग मे सप्तमी एक वचन मे अस्मिन् रूप बनता है अस्मिन् =उसमें । प्रश्न उठता है किसमे ? इसका उत्तर। है भगवान् मे । कैसे ? सुनिये -- आगे चलकर देवर्षि कहते हैं कि सभी समयो मे सर्वतो भावेन निश्चिन्त होकर केवल भगवान् का ही भजन करना चाहिए ---
 सर्वदा सर्वतोभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः---ना 0 भ0 सूत्र 3/24. 
यहां विद्वज्जन देख सकते हैं कि भगवानेव मे एव का प्रयोग करके नारद जी ने अन्य के भजन का निषेध कर दिया है । अतः उपक्रम (आरम्भ)और उपसंहार की एकवाक्यता से निर्णीत होता है कि उपक्रम 
सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा 
 सूत्र में अस्मिन् का अर्थ भगवान् मे - यही है । अतएव दृष्टान्त रूप। से उन्होने भगवान की परमभक्ता गोपियों का ही नाम लिया । अन्य किसी देवी देवता का नही -- 
यथा ब्रज गोपिकानाम्-!1/3/21. 
गोपियां भगवान् की ही भक्ता है। अन्तिम सूत्र क पहले भक्ति के जितने आचार्यो का नाम नारदजी ने लिया वे सब भगवान् के परमोपासको मे आते हैं । जैसे शेष उद्धव हनुमान जी विभीषण आदि । नारदजी ने भगवान् के भक्ति को घर घर जन जन मे स्थापित करने की प्रतिज्ञा भी कर चुके है ----
तस्मिंस्त्वां स्थापयिष्यामि गेहे गेहे जने जने । 
यदि मै ऐसा न कर सकूं तो भगवान का दास नही---
तदा नाहं हरेर्दासो लोके त्वां न प्रवर्तये । --भागवतमाहात्म्य 2/13-14.
वही पर भक्ति को भगवान की प्रिया भी कहा गया है---- 
त्वं तु भक्तिः प्रिया तस्य ---2/3. 
नारदजी ने अन्तिम सूत्रमे भी द्वितीयान्त पुल्लिड़्ग शब्द का प्रयोग किया -
स प्रेष्ठं लभते = वह प्रियतम को प्राप्त करता है ।अतः भक्ति चूंकि भगवान की प्रिया है मध्य मे भगवानेव शब्द का प्रयोग और नारदजी के द्वारा भगवद्भक्ति के स्थापना की प्रतिज्ञाभगवान के द्वादश महाभागवतों में नारद जी के होने से यह सुनिश्चित है कि नारद भक्तिसूत्रों का प्रतिपाद्य वस्तु भगवान कीही भक्ति है अतएव ---सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा सूत्रमे अस्मिन् का अर्थ भगवान मे --है। अर्थात् भगवान् में जो परमप्रेम है वही भक्ति है । यही साध्य भक्ति है । श्रवण कीर्तन आदि साधन भक्तियां है । इनसे प्रेमलक्षणा भक्ति प्राप्त होती है । इसके लब्ध हो जाने पर प्राणी न तो किसी वस्तु की कामना करता है न ही शोक और न ही द्वेष करता है वह भगवान को छोड़कर कहीं भी रमण नही करता--
यं पालाप्य न किञ्चिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति -ना0भ0सूत्र 1/5.
 यही परमप्रेम रूपा भक्ति सभी साधकों को अपने अपने इष्ट देवता मे प्राप्त करने का
प्रयास करना चाहिये । --------
भक्ति भक्त भगवन्त गुरु चतुर नाम वपु एक ।
इनके पदवन्दन किये नाशहिं विघ्न अनेक ।।
न तपोभिर्न वेदैश्च न ज्ञानेनापि कर्मणा ।
हरिर्हि साध्यते भक्त्या प्रमाणं तत्र गोपिकाः।।

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