गृहस्थ के लिए सबसे बड़ी समस्या होती है परमात्मा का ध्यान लगाना। जब कोई
गृहस्थ परमात्मा की अध्यात्म की राह पर चल पड़े तो उसे समाज को डर लगने
लगता है कि वह सन्यासी न हो जाए। और पूरी तरह गृहस्थी में डूबकर भी
परमात्मा का ध्यान नहीं लगा सकते हैं।
अभी भी कई लोग मानते हैं कि
अध्यात्म साधना में दाम्पत्य संकट है, गृहस्थी रुकावट है, परिवार बाधा है
और नारी तो नर्क का द्वार है। जो लोग भगवान तक पहुंचना चाहें या भगवान को
अपने तक लाना चाहें वे ये समझ लें कि एकाकी जीवन से तो भगवान ने स्वयं को
भी मुक्त रखा है। ईश्वर के सभी रूप लगभग सपत्नीक हैं। फिर परिवार तथा पत्नी
बाधा और व्यवधान कैसे हो सकते हैं। समझने वाली बात यह है कि अध्यात्म ने
काम का विरोध किया है स्त्री का नहीं। अनियमित काम भावना स्त्री का पुरुष
के प्रति और पुरुष का स्त्री के प्रति घातक है। भारतीय संस्कृति में तो
ऋषिमुनियों के अनेक उदाहरण हैं जिन्होंने अपनी धर्मपत्नी के साथ ही तपस्या
की थी। बाधा तो दूर वे तो सहायक बन गई थीं।
बीते दौर में अध्यात्म
साधकों ने विवेकशील चिन्तन को बहुत महत्व दिया था। विवेक के कारण
स्त्री-पुरुष का भेद अध्यात्म में मान्य नहीं किया है। जब भेद ही नहीं है
तो स्त्री बाधा कैसे होगी। नारी संग और काम भावना बिल्कुल अलग-अलग है।
ब्रम्हचर्य को साधने के लिए नारी को नरक की खान बताना दरअसल ब्रम्हचर्य का
ही अपमान है। वासना का जन्म, संग से नहीं कुविचार और दुबरुद्धि से होता है।
स्त्री-पुरुष के सहचर्य अध्यात्म में पवित्रता से देखा गया है। इसीलिए
विवाह के पूर्व स्त्री-पुरुष को आध्यात्मिक अनुभूतियों से जरूर गुजरना
चाहिए। पति-पत्नी के सम्बन्धों में पवित्रता और परिपक्वता के लिए
आध्यात्मिक अनुभव आवश्यक हैं। इस रिश्ते में जिस तरह से आज अशांति देखी जा
रही है इसका निदान केवल भौतिक संसाधनों और तरीकों से नहीं होगा इसमें
आध्यात्मिक मार्गदर्शन उपयोगी रहेगा।
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