भक्तियोग क्या है ?
भक्तियोग क्या है ?
यह योग भावनाप्रधान है और प्रेमी प्रकृति वाले व्यक्ति के लिए उपयोगी
है. प्रेमी भक्त परमात्मा से प्रेम करना चाहता है और सभी प्रकार
के क्रिया-अनुष्ठान, पुष्प, गंध-द्रव्य, सुन्दर मन्दिर और मूर्ती आदि
का आश्रय लेता और उपयोग करता है. प्रेम एक आधारभूत एवं सार्वभौम संवेग है.
यदि कोई व्याक्ति मृत्यु से डरता है तो इसका अर्थ यह
हुआ कि उसे अपने जीवन से प्रेम है. यदि कोई व्यक्ति अधिक स्वार्थी है तो
इसका तात्पर्य यह है कि उसे स्वार्थ से प्रेम है. किसी व्याक्ति को अपनी
पत्नी या पुत्र आदि से विशेष प्रेम हो सकता है. इस प्रकार के प्रेम से भय,
घृणा अथवा शोक उत्पन्न होता है. यदि यही प्रेम पूर्णब्रह्म परमात्मा से हो
जाय तो वह मुक्तिदाता बन जाता है. ज्यों-ज्यों परमात्मा से लगाव बढ़ता है,
नश्वर सांसारिक वस्तुओं से लगाव कम होने लगता है. जब तक मनुष्य
स्वार्थयुक्त उद्देश्य को लेकर परमात्मा का भजन करता है तब तक वह भक्तियोग
की परिधि में नहीं आता है. परा-प्रेमलक्षणा भक्ति ही भक्तियोग के अन्तर्गत
आती है जिसमें परमात्मा को छोड़कर अन्य कोई अभिलाषा नहीं होता है. भक्तियोग
शिक्षा देता है कि परमात्मा के साथ शुभ भाव से प्रेम इसलिए करना चाहिए कि
ऐसा करने से तन-मन और धन शुद्ध होता है. और ऐसा करना अच्छी बात है, न कि
स्वर्ग पाने के लिए अथवा सन्तति, सम्पत्ति या अन्य किसी कामना की पूर्ती के
लिए.! भक्तियोग यह सिखाता है कि "प्रेम" का सबसे बड़ा पुरस्कार "प्रेम" ही है, और प्रेम का पर्यावाची शब्द भी प्रेम ही है, और स्वयं परमात्मा प्रेम स्वरूप है !
"हे प्रियतम ! अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के भोग के
नाशवान पदार्थों पर रहती है, उसी प्रकार की प्रीति मेरी आपमें हो, और आप का
स्मरण करते हुए मेरे हृदय से आप कभी दूर न होना" ! भक्तियोग सभी प्रकार के
संबोधनो द्वारा परमात्मा को अपने हृदय का भक्ति-अर्ध्य प्रदान करना सिखाता
है-जैसे, सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी पूर्णब्रह्म
परमात्मा अक्षरातीत श्री राजजी आदि ! सबसे बढ़कर वाक्यांश जो परमात्मा का
वर्णन कर सकता है, सबसे बढ़कर कल्पना जिसे मनुष्य का मन परमात्मा के बारे
में ग्रहण कर सकता है, वह यह है कि परमात्मा 'प्रेम स्वरूप है' ! जहाँ कहीं
प्रेम है, वह परमात्मा ही है. जब माता बच्चे को दूध पिलाती है तो इस
वात्सल्य में वह परमात्मा ही है, जब पति पत्नी का चुम्बन करता है तो वहाँ
उस चुम्बन में भी परमात्मा ही है ! जब दो मित्र हाथ मिलाता है तब वहाँ भी
परमात्मा प्रेममय धामधनी के रूप में विद्यमान है. मानव जाती की सहायता करने
में भी परमात्मा के प्रति प्रेम प्रकट होता है. यही भक्तियोग का शिक्षा है
!
भक्तियोग भी आत्मसंयम, अहिंसा, ईमानदारी, निश्छलता आदि गुणों की अपेक्षा
भक्त से करता है, क्योंकि चित्त की निर्मलता के बिना नि:स्वार्थ प्रेम
सम्भव ही नहीं है. प्रारम्भिक भक्ति के लिए परमात्मा के किसी स्वरूप की
कल्पित प्रतिमा या मूर्ती ( जैसे दुर्गा की मूर्ति, शिव की मूर्ति, राम की
मूर्ति, श्री कृष्ण की मूर्ति, गणेश की मूर्ति तथा वांग्मय स्वरूप की आदि )
को श्रद्धा का आधार बनाया जाता है. किन्तु साधारण स्तर के लोगों को ही
इसकी आवश्यकता पड़ती है. प्रेम का कोई भी स्वरूप नहीं होता ! ओतो सर्वव्यापी
है. बिरह सहन न होने के कारण उसको पानेकी आसमें मूर्तिरूप में पूजा
करने लगता है. जो भक्तियोग में तल्लीन होकर पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत
श्री राजश्यामाजी की लगन में लग जाता है, उन ब्रह्मात्माओं को इन सभी
चीजोंका आवश्यकता नहीं होती. ओतो आठों पहर चौसठ घड़ी निश-दिन अपने धामधनी
पूर्णब्रह्म परमात्मा के प्रेम में ही मग्न रहता है. ऐसी आत्माओं के लिए तो
खाना, पीना, उठना-बैठना आदि सबकुछ उनके ही लिए समरपित समझते हैं.
पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत धामधनी श्री कृष्ण तो सदैव अपने भक्तके
हृदय-मन्दिर में ही रहते हैं और अपने प्रिय भक्त से निरन्तर प्रेमालाप करते
रहते हैं !! प्रणाम !!
No comments:
Post a Comment