महामति प्राणनाथ और प्रेमलक्षणा भक्ति
महामति श्री प्राणनाथजी ने परमधाम की प्राप्ति एवं धामधनी की कृपा
प्राप्ति के लिए ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग के स्थान पर प्रेमलक्षणा
भक्ति को ज्यादा महत्त्व दिया है. नवधा भक्ति से भी श्रेष्ठ प्रेमलक्षणा
भक्ति को अक्षरातीत परमधाम तक पहुँचने का मार्ग बताया है. महामति श्री
प्राणनाथजी मानते हैं कि प्रेम से बढ़कर इस संसार में कुछ नहीं है. वे अपने
श्री मुख से कहते हैं- एही सबद एक उठे अवनी में, नहीं कोई नेह समाना. (किरंतन २३/५)
महामति
श्री प्राणनाथजी कहते हैं कि प्रेमलक्षणा भक्ति के बिना वेद श्री मद्भागवत
पुराण, कुरान के गूढ़ार्थों को न समझने वाले लोगों को शान्ति प्राप्त नहीं
होती है ऐसा लगता है मानो बहरे को गूँगा समझा जा रहा हो. महामति श्री
प्राणनाथजी कहते हैं- प्रेमें गम अगम की करी, प्रेम करी अलख की लाख ! कहें श्री महामति प्रेम समान, तुम दूजा जिन कोई जान !!
महामति प्रेम को सर्वोपरि मानते हैं. प्रेम के अतिरिक्त सभी साधना पद्धतियाँ व्यर्थ हैं- इसक बड़ा रे सबन में, न कोई इसक समान ! एक तेरे इसक बिना, उड़ गई सब जहान !!
'प्राणनाथजी के अनुसार पुष्ट, प्रवाह और मर्यादा मार्ग तो अन्य सृष्टियों
के लिए है. परमधाम की ब्रह्मसृष्टियों के लिए तो सकाम और निष्काम भक्ति से
परे तुरीयातीत अवस्था में गोपीभाव युक्त परा प्रेमलक्षणा भक्ति ही कही जा
सकती है- नवधा से न्यारा कह्या, चौदे भवन में नाहीं ! सो प्रेम कहाँ से पाइए, जो बसत गोपिका माहिं !
प्रेम
ही आत्मा को निर्मल करता है, प्रेम ही आचरण को श्रेष्ठ बनाता है. प्रेम ही
झुकना सिखाता है, प्रेम ही जगत का सार है ! महामति श्री प्राणनाथजी कहते
हैं- उत्पन्न प्रेम पारब्रह्म संग, वाको
सुपना हो गयो संसार ! प्रेम बिना सुख पार को नाहीं, जो तुम अनेक करो आचार
!! छकियो साथ प्रेम रस मातो, छूटे अंग विकार ! परआतम अंतस्करण उपज्यो, खेले
संग आधार !! (किरंतन ८३/९)
महामति
श्री प्राणनाथजी के अनुसार प्रेम ही परमधाम का द्वार है तारतम वाणी में
प्रेम को परमधाम की प्राप्ति का सर्वोच्च साधन माना गया है. महामति श्री
प्राणनाथजी ने प्रेम की अवधारणा का प्रसार न केवल जीवधारियों तक किया,
बल्कि वनस्पति जगत तक प्रेम का प्रसारण किया. इसलिए वे सदा सर्वदा सभी को
शीतल नैन एवं मीठे बैन से आत्मवत बनाना चाहते हैं, वे कहते हैं- दुःख न देऊं फूल पांखडी, देखूँ शीतल नैन ! उपजाऊं सुख सबों अंगो, बोलाऊं मीठे बैन !! (कलस २३/४)
महामति श्री प्राणनाथजी प्रेम को परमात्मा मानते थे वे कहते हैं
कि- 'प्रेम ब्रह्म दोऊ एक हैं' ! प्रेम के लिए चौदह लोक से लेकर परमधाम
तक कोई अवरोध नहीं है- प्रेम खोल देवे सब द्वार, पार के पर जो पर ! (परिक्रमा १/२४)
पंथ होवे कोट कलप, प्रेम पहोंचावे मिने पलक ! जब आतम प्रेम से लागी, अन्तर दृष्टि तबहीं जागी !!
महामति श्री प्राणनाथजी मानते हैं कि प्रेम से ही अन्तरात्माकी शुद्धिकरण
होगी तथा प्रेम से ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है. वे 'प्रकाश
ग्रन्थ अन्तर्गत लिखते हैं- तुम प्रेम सेवाएँ पाओगे पार, ए वचन धनी कहे निराधार !
स्पष्ट है महामति श्री प्राणनाथजी ने प्रेम को जीवन का आधार माना है, तो
परमधाम का मार्ग भी प्रेम का मार्ग माना है और परमधाम का द्वार भी प्रेम का
ही है, वस्तुत: वे प्रेम और ज्ञान की मूर्ती थे. कहा गया है कि-पूरणब्रह्म प्रगट भये, प्रेम सहित लै ज्ञान ! प्रणाम
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