Wednesday, February 20, 2013

प्रेम की सुगंध

हम प्रेम से बढ़कर सुख या आनंद की कल्पना नहीं कर सकते। पर इस प्रेम शब्द का अर्थ भिन्न है। इसका अर्थ संसार का स्वार्थमय प्रेम नहीं। बच्चों और स्त्री के प्रति हमारा जो प्रेम होता है, वह केवल पाशविक प्रेम है। जो प्रेम पूर्णतया निस्वार्थ हो, वही प्रेम है। यही ईश्वर का प्रेम है। हम भिन्न भिन्न प्रेम, जैसे पितृ-प्रेम, संपत्ति प्रेम, मातृ प्रेम इत्यादि के मार्ग से जा रहे हैं, इसके जरिये हम प्रेम की प्रवृत्ति का अभ्यास कर रहे हैं। पर बहुधा हम इससे कुछ सीख नहीं पाते, बल्कि उलटे किसी एक ही सीढ़ी पर एक ही व्यक्ति में आसक्त हो जाते हैं और बंध जाते हैं।
इस संसार में मनुष्य सदा स्त्रियों के पीछे, धन के पीछे, मान के पीछे दौड़ता फिरता है। कभी-कभी उसे ऐसी जबरदस्त ठोकर लगती है कि उसकी आंख खुल जाती है और उसे प्रतीत हो जाता है कि यह संसार यथार्थ में क्या है। पत्नी कहती है मैं पति से प्रेम करती हूं, किंतु पति की मृत्यु के बाद उसका ध्यान अपने पति द्वारा जमा किए धन की ओर चला जाता है। पति पत्नी से प्रेम करता है, पर जब पत्नी का बीमारी से रूप नष्ट हो जाता है, तो वह उसकी चिंता करना छोड़ देता है। संसार के समस्त प्रेम प्रदर्शन में निरा दंभ है। खोखलापन है।
ईश्वर को छोड़ प्रेम अन्यत्र कैसे ठहर सकता है? तो फिर प्रश्न यह है कि इन भिन्न-भिन्न प्रेमों का प्रयोजन क्या है? ये प्रेम केवल सीढि़यां या सोपान मात्र हैं। इसके पीछे एक ऐसी शक्ति है, जो हमें सदा यथार्थ प्रेम की ओर प्रेरित कर रही है। हमें पता नहीं कि हम यथार्थ वस्तु को कहां ढूंढ़े। पर यह प्रेम ही हमें उस मार्ग में, अर्थात उसकी खोज में अग्रसर करा रहा है। बारंबार हमें अपनी गलती सूझती है। हम एक वस्तु को ग्रहण करते हैं, पर देखते हैं कि वह हमारी मुट्ठी में से निकली जा रही है। तब हम किसी दूसरी वस्तु को पकड़ लेते हैं। इस प्रकार हम आगे ही आगे बढ़ते चले जाते हैं। एक दिन हमें प्रकाश दिखाई देता है और तब हम परमात्मा के पास पहुंच जाते हैं।

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