प्रेम शब्द सुनते ही हमारे मन में मधुर भाव उमड़ने लगते हैं। प्रेम करना
प्राणियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। शेर-चीते जैसे मांसभक्षी पशु भी अपनी
संतान और परिवार से प्रेम करते हैं। मनुष्य में यह प्रवृत्ति सर्वाधिक
विकसित है। प्रत्येक व्यक्ति प्रेम चाहता है। बचपन में वह अपने माता-पिता
से प्रेम करता है, फिर अपने भाई-बहनों से प्रेम करने लगता है और उसके बाद
उसकी प्रेम-परिधि में परिवार, जाति, राष्ट्र इत्यादि का समावेश होने लगता
है।
प्रेम के कारण ही वह समाज और देश से प्रेम करता है। अस्पताल व स्कूलों
आदि का निर्माण करवाता है। गरीबों को भोजन बांटता है। सर्दियों में कंबल
तथा गर्मियों में पेयजल की व्यवस्था करता है। कभी वह राष्ट्र की रक्षा के
लिए सुख-सुविधाओं का त्याग कर सीमा पर अपने प्राणों का बलिदान कर देता है।
कभी वह अपने प्रेम को अभिव्यक्ति देने के लिए पशुओं से प्रेम करने लगता है
और उनके संरक्षण के लिए प्रयास करता है। सर्वव्यापी प्रयत्नों के बावजूद
मनुष्य को जिस संतोष की तलाश है, वह उसे नहींमिलता।
इसका कारण यह है कि मनुष्य अपने प्रेम को सही स्थान पर स्थापित नहीं
करता। हमारी प्रेम-तृष्णा तब तक पूर्ण नहीं होगी, जब तक हम अपना प्रेम
भगवान श्रीकृष्ण से स्थापित नहींकरेंगे। वे ही प्रेम का सर्वोत्तम विषय
हैं। उनके संग हमारा प्रेम-संबंध अनश्वर है, जो कभी नहीं टूटता। वे हमारे
प्रेम के बदले हमें अपना अनंत प्रेम प्रदान करते हैं। जब हम भगवान
श्रीकृष्ण से प्रेम की चाह करते हैं, तब वे खुली बाहों से हमारा स्वागत
करते हैं। हम उनकी ओर एक पग बढ़ाते हैं, तो वे नंगे पांव हमारी ओर दस पग
दौड़कर आते हैं। चूंकि वे आनंदघन स्वरूप हैं, इसलिए उनका प्रेम हमारे भीतर
परम आनंद का संचार करता है।
ऐसे में हमारे आपसी मनमुटाव समाप्त हो जाते हैं। हम प्रत्येक जीव को
भगवान का अंश मानकर प्रेम करने लगते हैं। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ को
सींचने से संपूर्ण वृक्ष फलता-फूलता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण को
प्रेम करने से हम समस्त जीवों के प्रति प्रेममय हो जाते हैं। यदि हम वृक्ष
के अन्य भागों को सींचते रहें और उसकी जड़ में पानी डालना भूल जाएं, तो वह
वृक्ष नहीं टिकेगा।
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