क्षुष मन्वन्तर की कथा है। असुरों(जो प्राणाधिक्य से काम, क्रोध, मोह, लोभ, पद और ईष्र्या से अभिभूत होते हैं) और देवताओं में वर्चस्व का युद्ध चल रहा था। असुर बलवान थे, उन्होंने देवताओं से उनका सब कुछ छीन लिया था। देवतागण असहाय होकर भगवान के श्री चरणों की शरण में गए और अपनी व्यथा कह सुनाई। भगवान ने उनकी व्यथा सुनकर देवताओं को सुझाव दिया कि इस समय असुरों का समय बलवान है, आप लोग उनसे संधि कर लें। असुर लोग आप से जो-जो चाहें, मान लो। शांति से सब काम बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता है। बाद में यदि आवश्यक हो तो अविमूषकवद् की राजनीति की जा सकती है। यह आलस्य और प्रमाद का समय नहीं है। आप लोग क्षीर समुद्र का मंथन करें तो अमृत प्रकट होगा। इससे समस्त विश्र्र्व का कल्याण होगा। मैं यथा समय आप लोगों की सहायता करूंगा।
देवताओं के राजा इंद्र, असुरों के राजा बलि के पास बिना अस्त्र-शस्त्र के पहुंचे। उन्हें देख असुरों को बड़ा आश्चर्य हुआ। किंतु राजा बलि बड़े बुद्धिमान थे। वे संधि और विरोण का संकेत भली भांति जानते थे। उन्होंने इंद्र भगवान का स्वागत किया और समुद्र(क्षीर सागर)मंथन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। शर्त यह थी कि समुद्र मंथन से प्रकट होने वाले अमृत में देवताओं और असुरों का बराबर का हिस्सा रहेगा। मंदराचल को मथानी बनाया गया और वासुकिनाग को नेति(मंथन की डोरी) बनी। मंथन आरंभ हुआ। प्रथम प्रवाह में विष उत्पन्न हुआ जो प्राण हर था। सब के सब व्याकुल हो गये। किंतु भगवान विष्णु की प्रार्थना पर भगवान शंकर ने मां अंबिका की अनुमति से विष का पान कर लिया और सारे संसार को काम और क्त्रोध रूपी भयंकर विष से मुक्ति मिल गयी। इसीलिए भगवान का नाम शंकर हुआ। शम् करोतीति(मन को शांति प्रदान करने वाले) शंकर।
समुद्र मंथन से चौदह रत्न प्रकट हुए। ये रत्न मानवीय उत्तमोत्तम गुण ही थे। अंत में अमृत प्रकट हुआ (अमृत- आयु, आरोग्य, सुाख्, समृद्धि और शांति)। अमृत के ये पंचरत्न अमूल्य रत्न हैं। जिसके पास ये होते हैं वे अमृत हो जाते हैं। फलत: अमृत की गुणवत्ता पहचानकर असुरों ने, जो शक्ति संपन्न थे, अमृत कलश का हरण कर लिया और आपस में ही पहले मैं पिउंगा, मैं पहले पिउंगा कहकर लड़ने लगे। देवता गण पुन: लाचार होकर भगवान की शरण में गए और अपने लिए अमृत पाने की प्रार्थना करने लगे। भगवान श्री ने देवताओं से कहा कि आप लोग चिंता न करें, मैं कुछ उपाय करता हूं।
अत: भगवान मोहिनी का सर्व सौन्दर्ययुक्त, आकर्षक और लावण्यमय रूप धारण कर असुरों के सामने अपनी मोहिनी छवि बिखेरने लगे तो असुर कामासक्त हो मोहिनी को पाने की चेष्टा करने लगे। मोहिनी ने असुरों से कहा कि आप, आपस में विवाद न करें। बताओं आपकी समस्या क्या है? असुरों ने अमृत-पान विवाद की बात बता दी। यह सुन कर मोहिनी ने असुरों से अमृत कलश ले लिया और उन्हीं के समक्ष चार कदम बड़े हाव-भाव से चल दिए। हाव-भाव की हस्त चालन विद्या से कलश से अमृत बिंदु छलका और भारत की पुण्य भूमि पर गिरा। प्रथम बिंदु गंगा-यमुना के संगम प्रयाग में गिरा तो यहां पर सद्विचारों की तृतीय वेणी सरस्वती निकल पड़ी। उस समय भगवान भाष्कर मकर राशि पर, बृहस्पति और चंद्रमा वृषभ राशि पर थे और वह माघ मास की अमावस्या का दिन था।
पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास ने राम चरित मानस में लिखा है-
राम भगति जहँ सुरसरि धारा।
सरसइ ब्रंा विचार प्रचारा
करम कथा रविनन्दिनि वरनी।
प्रयाग में वस्तुत: गंगा और यमुना दो ही नदियों का संगम है। उपरोक्त प्रामाणिक कथन का अर्थ यह है कि यहां प्रयाग में विष्णुपदी गंगा की धारा भगवद्भक्ति की प्रतीक है। यमुना की धारा कर्म-वेद विहित कर्म- की प्रतीक है। इन दोनों के संगम से इस पुण्य क्षेत्र में तीसरी सरस्वती की धारा भक्तों द्वारा प्रभावित होती है जो पूर्व की काशी नगरी की ओर जाती है। यही है त्रिवेणी-माधव।
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