प्रेम की पराकाष्ठा
जीवन
की हर इच्छा के पीछे एक ही मांग है। आप यदि परख कर देखो कि वह एक मांग
क्या है, तो निश्चित रूप से मालूम पड़ता है कि वह है ढाई अक्षर प्रेम का।
सब-कुछ हो जीवन में, पर प्रेम न हो, तब जीवन जीवन नहीं रह जाता। प्रेम हो,
और कुछ हो या न हो, फिर भी तृप्ति रहती है जीवन में, मस्ती रहती है,
आनन्द रहता है, है कि नहीं।
जीवन की मांग है प्रेम –
और जीवन में परेशानियां, समस्यायें, बन्धन, दु:ख, दर्द यह सब होता भी
प्रेम से ही है। व्यक्ति से प्रेम हो जाए, वही फिर मोह का कारण बन जाता
है। वस्तु से प्रेम हो जाए तो लोभ हो जाता है, उसी को लोभ कहते हैं। अपनी
स्थिति से प्रेम हो जाए, उसको मद कहते हैं, अहंकार कहते हैं। और ममता,
अपनेपन से प्रेम यदि मात्रा से अधिक हो जाए, तो उसे ईर्ष्या कहते हैं।
प्रेम अभीष्ट है, फिर भी उसके साथ जुड़ा हुआ यह सब अनिष्ट – किसी को पसन्द नहीं है। हम इससे बचना चाहते हैं क्योंकि अनिष्टों से ही दु:ख होता है।
फिर
जीवन की तलाश क्या है। हमें एक ऐसा प्रेम मिले जिससे कोई विकार, जिससे
कोई दु:ख, कोई बन्धन महसूस नहीं हो। जीवन भर प्रेम की खोज चलती है। बचपन
में इसे खि लौनों में खोजते हैं, खेल में खोजते हैं, फिर उसी प्रेम को
दोस्तों में खोजते हैं, साथी-संगियों में खोजते हैं। फिर आगे चलकर,
वृद्धावस्था में, बच्चों में खोजते हैं। तब भी हाथ कुछ नहीं आता, खाली ही
रह जाता है।
यदि
सचमुच में प्रेम का अनुभव, शुद्ध प्रेम का अनुभव एक बार भी हो जाए, तो
व्यक्ति का जीवन परिवर्तन की दिशा पर चल पड़ता है। एक बार भी एक झलक मिल
जाए भक्ति की, फिर व्यक्ति के जीवन में समष्टि उतर आती है, तृप्ति झलकती
है, कदम-कदम पर आनन्द की लहर उठती है।
यदि
हम प्रेम को जानते ही नहीं होते, तब प्रेम के बारे में चर्चा करना, विचार
करना, कुछ कहना, सब बेकार है। यदि कोई व्यक्ति अन्धा है, तो उसको रोशनी
के बारे में बताना मुश्किल है, या कोई बहरा है, उसको संगीत के बारे में
समझाना करीब-करीब असम्भव है। इसी तरह यदि हम प्रेम को जानते ही नहीं होते,
तब उसके बारे में कहना, बताना, चर्चा करना, विचार करना, सब बेकार है।
हम
प्रेम को जानते हैं, या ऐसा कहें, प्रेम को हम महसूस करते हैं जीवन में,
मगर उसकी गहराई में नहीं उतरे। हमारे जीवन में प्रेम एक कूएं जैसा बनकर रह
गया है। एक छोटा कंकड़, पत्थर भी यदि उसमें डालो तो एकदम नीचे की मिट्टी
ऊपर आने लगती है। परन्तु मन यदि सागर जैसा हो, प्रेम यदि इतना वि शाल हो,
तब चाहे पहाड़ भी गिर जाए उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। जीवन में प्रेम
उदय हो और उसकी वि शालता हमारे अनुभव में आ जाए, जब समझना जीवन सफल हो गया।
जरा सोचो न, मान लो आपको सब कुछ मिल जाए जीवन में, मगर प्रेम नहीं, आप
जीना पसन्द करेंगे क्या। प्रेम अनुभव में पूर्ण रूप से आ जाए, तब उसके
बारे में व्याख्या करने की कोई जरूरत नहीं। गहराई में यदि एक बार भी तुम
भक्ति की श्वास ले लोगे, फिर भक्ति क्या है, बताने की जरूरत नहीं। किंतु
एक धुंधला सा अनुभव तो है, थोड़ा पता तो है, मगर पूरा समझ में नहीं आ रहा।
तब नारद महर्षि कहते हैं:-
अब
हम भक्ति की चर्चा करते हैं। कब, जब हम जानते हैं प्रेम क्या है। जब हम
जीवन में, किसी न किसी अंश पर, प्रेम और भक्ति को, शान्ति और तृप्ति को,
अनुभव कर चुके हैं। खुद के जीवन में मुड़कर देख चुके हैं, अनुभव कर चुके
हैं कि हर परिस्थिति, वस्तु, व्यक्ति परिवर्तनशील है। दुनिया में सब कुछ
बदल रहा है मगर कुछ ऐसा है जो बदलता नहीं है। वह क्या है यह नहीं पता है।
हम
अपने बारे में भी देख चुके हैं, अपना सब कुछ बदल रहा है। विचार बदलते हैं,
शरीर तो बदल चुका, वातावरण में बहुत परिवर्तन आया है। दिन-दिन नए वातावरण
से, परिस्थितियों से गुजरते हुए हम निकल रहे हैं। फिर वह क्या है जो
अपरिवर्तनशील है, जो बदला नहीं है, इस खोज की एक आकांक्षा मन में उठे। भई,
जब सुनने की चाह हो तब बोलने से फायदा होता है, प्यास हो तब पानी पीने में
मजा आता है, तब वह अच्छा लगता है।
ऐसी प्यास हमारे भीतर जग जाए, तब नारद कहते हैं, ‘अच्छा
अब मैं बताता हूं भक्ति क्या है। अब मैं उसकी व्याख्या करता हूं। अब
तुम ऐसे प्रेम की तलाश में हो जिसका रूप क्या है, लक्षण क्या है, यह मैं
तुम्हें बताता हूं।‘
नारद
माने वह ऋषि जो तुम्हें अपने केन्द्र से जोड़ देते हैं, अपने आप से जोड़
देते हैं। नारद महर्षि का नाम तो विख्यात है, सब ने सुना है। जहां जाएं
वहां कलह कर देते हैं नारद मुनि। कलह भी वही व्यक्ति कर सकता है जो प्रेमी
हो, जिसके भीतर एक मस्ती हो। जो व्यक्ति परेशान है वह कलह नहीं पैदा कर
सकता, वह झगड़ा करता है। झगड़ा और कलह में भेद है। जिनकी दृष्टि में समस्त
जीवन एक खेल हो गया है वह व्यक्ति तुम्हे भक्ति के बारे में बताते हैं – भक्ति क्या है –
असल
में भक्ति व्याख्या की चीज नहीं है। व्याख्या दिमाग की चीज होती है,
भक्ति एक समझ दिल की होती है, प्रेम दिल का होता है, व्याख्या दिमाग की
होती है। व्यक्ति का जीवन पूर्ण तभी होता है जब दिल और दिमाग का सम्मिलन
हो। इसीलिए कहते हैं कि सिर्फ भाव में बह जाओगे तब भी जीवन पूर्ण नहीं
होगा। और दिमाग के सिद्धान्तों में, विचारों में उलझे रहोगे तब भी जीवन
पूर्ण नहीं होगा। दिमाग से दिल को समझो, दिल से दिमाग को परखो।
अब हम भक्ति के बारे में व्याख्या करते हैं। जिसकी व्याख्या करना करीब-करीब असम्भव है –
वह सिर्फ नारद के लिए सम्भव है। बहुत से ऋषि हुए हैं इस देश में, उनमें
से एक नारद और एक शाण्डिल्य के सिवाय किसी और ने भक्ति के बारे में
व्याख्या नहीं की है। उसमें नारद ही भक्ति के प्रतीक हैं क्योंकि वे
जानते हैं केन्द्र को भी और वे जानते हैं वृत्त को भी।
अब हम किसी से पूछें, ‘ऋषिकेश कहां हैं।‘ तो काई हरिद्वार जानने वाला होगा वह कहेगा ‘देखो हरिद्वार जानते हो न, ऋषिकेश हरिद्वार से पचीस किलोमीटर की दूरी पर है, उत्तरभारत में, यू पी में है।‘
कुछ समझाने के लिए भी एक निदेशन की जरूरत है, जिसे अग्रेंजी में रेफरेन्स
पाइन्ट कहते हैं। जैसे दिल्ली कहां है। हरियाणा और यू पी के बीच में।
वह
भक्ति क्या है। परमप्रेम, अतिप्रेम, प्रेम की पराकाष्ठा है। जब प्रेम
क्या है नहीं जानते हैं, तब भक्ति कैसे समझ सकते हैं। तो कहते हैं प्रेम
तो तुम जानते हो। माता का प्रेम तुमने जाना, पिता का प्रेम जाना, भाई का,
बहन का प्रेम तुमने जाना, पति-पत्नी का प्रेम तुमने जाना। बच्चों के
प्रति प्यार तुम्हारे अनुभव में आ गया। वस्तु के प्रति लगाव, व्यक्ति
के प्रति लगाव, परिस्थिति के प्रति लगाव, जिससे मोहित होकर हम दु:खी हो
जाते हैं – उस प्रेम को जानने पर, कहते हैं, इस प्रेम की ही पराकाष्ठा है भक्ति।
एक प्रेम को वात्सल्य, दूसरे को स्नेह, तीसरे को प्रेम कहते हैं –
प्रीति, गौरव। इस तरह से अलग-अलग नाम से हम प्रेम को जानते हैं। और इन सब
तरह के प्रेम से परे जो एक प्रेम है, उसी को भक्ति कहते हैं। और इन सब
प्रेम को अपने में समेटकर पूर्ण रूप से जो निकली है जीवनी ऊर्जा, जीवनी
शक्ति, वही प्रेम है।
अक्सर
क्या होता है, प्रेम तो होता है हमें, किन्तु वह प्रेम बहुत शीघ्र ही
विकृत हो जाता है। उसकी मौत हो जाती है। प्रेम जहां ईर्ष्या बनी तो प्रेम
की मौत हो गई वहां पर। ईर्ष्या में बदल गया वह प्रेम। जहां प्रेम लोभ हुआ
तो वहां प्रेम खत्म हो गया, वह प्रेम ही द्वेष बन गया। प्रेम हमारे जीवन
में हमेशा मरणशील रहा है, इसीलिए ही समस्या है।
आप किसी से भी पूछो –
आप अपने लिए जी रहे हो क्या - - - - - सब एक दूसरे के लिए जी रहे हैं।
फिर भी कोई नहीं जी रहा है। इतना कोलाहल, इतनी परेशानी, इतनी बेचैनी जीवन
में क्यों। प्रेम की मौत हो गई। मगर परमप्रेम का स्वरूप क्या है, तब
कहते हैं नारद - -
भक्ति एक ऐसा प्रेम है जिसकी कभी मृत्यु नहीं, जो कभी मरता नहीं है, दिन-प्रतिदिन उसकी वृद्धि होती है।
जो कभी मरती नहीं, उस भक्ति को जानने से क्या होगा।
भक्ति
पाकर क्या करोगे तुम जीवन में। इससे क्या होता है। तब कहते है सिद्धो
भवति। कोई कमी नहीं रह जाएगी तुम्हारे जीवने में। भक्तों के जीवन में कोई
कमी नहीं होती। किसी भी चीज की कमी नहीं होती, किसी भी गुण की कमी नहीं
होती। ‘’सिद्धो भवति, अमृतो भवति’’
जो अमृतत्व को जान लिया, उसके जीवन में अमृतत्व फलप गया। जब हम क्रोधित
होते हैं, तब हम एकदम क्रोध में हो जाते हैं और जब खुश होते हैं तब वह खुशी
हमारे में छा जाती है। हम कहते हैं न खुशी से भर गए। इसी तरह अमृतत्व को
जानते ही, भक्ति को जानने ही लगता है ‘’मैं तो शरीर नहीं हूं, मैं तो कुछ और ही हूं।‘’ मैं वही हूं। मेरी कभी मृत्यु हुई ही नहीं, और न ही होगी।‘’
जब मन सिमटकर अपने आप में डूब गया तब जो रहा वह गगन जैसी वि शाल हमरी
सत्ता। कभी गगन की मृत्यु देखी है, सुनी है। मृत्यु शब्द ही मिट्टी के
साथ जुड़ा हुआ है। मिट्टी परिवर्तनशील है, आकाश नहीं। मन पानी के साथ जुड़ा
हुआ है, जैसे पानी बहता है वैसे मन भी बहता है। आज के विज्ञान से यह बात
सिद्ध हुई है कि शरीर में 98 प्रति शत आकाश तत्व है, जो बचा हुआ दो प्रति
शत है उसमें साठ प्रति शत पानी है, जल तत्व है। मृण्मय शरीर मौत के अधीन
है, मगर चेतना अमर है।
प्रेम
चमड़ा है या चेतना। क्या है प्रेम। यदि प्रेम सिर्फ मिट्टी होता तो वह
अमृतत्व में नहीं ले जा सकता, भक्ति तक नहीं पहुंचा सकता। परम प्रेम जो है
वह अमृतस्वरूप है, वही तुम्हारा स्वरूप है। सिद्धो भवति, अमृतो भवति,
तृप्तो भवति – तृप्त हो जाओ।
नारद अगले सूत्र में कहते हैं –
अच्छा, इसका प्राप्त करने के बाद क्या क्या नहीं करते ......... दोनों
तरफ देखना पड़ता है न लक्षण। एक तो आपने क्या पाया और आपने क्या खोया।
पाया तो यह कि हमारे भीतर जो तत्व है वह न भीतर है, न बाहर है, सब जगह है
या दोनों जगह है, और वह अमृतत्व है। और जिसके पाने से जीवन में कोई कमी
नहीं रह जाती, यह भक्ति है और तृप्ति है। तृप्ति झलकती है जीवन में, तो यह
भक्ति पाने का लक्षण हुआ।
भक्ति
पाने से क्या-क्या नहीं करते। मुझे यह चाहिए, वह चाहिए....... और चाह
जिससे मिट जाती है - देखो, जीवन में सौभाग्यशाली उन्हीं को कहते हैं
जिनके मन में चाह उठने से पहले ही पूरी हो जाये। भाग्यशाली हम उसी को कह
सकते हैं जिनके भीतर चाह की कोई आवश्यकता ही न पड़े। माने भूख लगे भी
नहीं, तब तक खाना सामने मौजूद हो, प्यास लगे ही नहीं मगर पानी हो, अमृत हो
सामने पीने के लिए। माने चाहे उठने की सम्भावना ही नहीं रहे –
तो कह सकते हैं भाग्यशाली हैं। और दूसरे नम्बर का भाग्यशाली, उससे जरा
कम, चाहे उठे, उठते ही पूर्ण हो जाए, माने प्यास लग रही हो आपको, तुरन्त
कोई पानी लेकर आए। माने चाह उठी और उसके पूर्ण होने में कोई देर न लगे। वे
दूसरे नम्बर के भाग्यशाली हैं। तीसरे नम्बर के भाग्यशाली वे होते हैं
जिनके भीतर चाह तो उठती है मगर पूरा होने में बहुत समय और परिश्रम लग जाता
है। बरसों उसमें लगे रहते हैं, बहुत परिश्रम करते हैं, फिर जब वह चाह पूरी
भी होती है तब भी कुछ अच्छा नहीं लगता। उसका आनन्द भी नहीं ले पाते, उसकी
खुशी भी नहीं अनुभव कर पाते। ये उससे भी कम भाग्यशाली हैं।
दुर्भाग्यशाली उनको कहते हैं जिनके भीतर चाह ही चाह उठती है परन्तु वह
पूरी नहीं होती।
भक्ति
को पाने से जीवने में कुछ इच्छा नहीं रह जाती। क्यों। जो आवश्यक
वस्तुएं हैं, अपने आप, जरूरत से अधिक, समय से पूर्व प्राप्त होने लग जाती
हैं।
न
किन्चिद वान्छति न शोचति। जब चाह ही नहीं, फिर दु:खी होने की बात ही नहीं
रही। वे बैठकर दु:खी नहीं होते। दु:ख माने क्या। भूतकाल को पकड़ना। भूत
पकड़ लिया है न। सचमुच में यह बात सच है, भूत सवार हो गया। बीती हुई बातों
को दिमाग में ले-लेकर हम दु:खी हो जाते हैं। चित्त की दशा यदि देखोगे न,
हर क्षण में, हम क्षण में हम बीती हुई बातों पर अफसोस करते रहते हैं और
भविष्य में होने वाली बातों को लेकर भयभीत होते रहते हैं। एक कल्पना से
हम भयभीत होते हैं और स्मृति से हम दु:खी होते हैं। कल्पना और स्मृति के
बीच में कहीं हम रहते हैं। भक्ति उस वर्तमान क्षण की बात है। कहते हैं, न
किन्चिद वान्छति भविष्यकाल के बारे में ये चाहिए, वो चाहिए.... ये नहीं। न
शोचति। भूतकाल को लेकर अफसोस नहीं करते। हम हर बात पर अफसोस करने लगते
हैं, नाराज होते रहते हैं पुरानी बातों को लेकर, वर्तमान क्षण को भी खराब
करते हैं, भविष्यकाल का तो कहना ही क्या। न किन्चिद वान्छति न शोचति, न
द्वेष्टि – जब हम लगातार चाह करते रहते हैं और अफसोस करते हैं तो इसका तीसरा भाई है द्वेष –
वह इनके पीछे-पीछे आ जाता है, तीसरा भागीदार। हम खुद के मन की वृत्तियों
को देखकर खुद से नफरत करने लगते हैं या दूसरों से नफरत करने लगते हैं,
द्वेष। मगर भक्ति के पाने से क्या होता है। न द्वेष्टि –
द्वेष मिट जाता है जीवन में, तुम कर ही नहीं सकोगे द्वेष। मन में एक
हल्का सा द्वेष का धुआ भी उठे तो एकदम असह्य हो जाता है, क्षण भर भी उसको
सहन नहीं कर पायेंगे। जब क्षण भर किसी चीज को सहन नहीं कर पाते हैं तब हम
उसका त्याग कर देते हैं। यह हो जाता है, अपने आप। न खुद से नफरत, न किसी
और से नफरत। वह नफरत का बीज ही नष्ट हो जाता है।
जिसको
पाकर कभी चाह में, या अफसोस में, या द्वेष में मग्न हो जाना, माने रम
जाना। यहां बताया, रमते माने जिसमें रमण कर लें। यह और सूक्ष्म है। प्रेम
में भी रमण अधिक करने लगते हैं, तब भी हम होश खो देते हैं, प्रेम को खो
देते हैं। देखो, अकसर जो लोग खुश रहते हैं न, वही लोग दूसरों को परेशानी
में डाल देते हैं। वे खुशी में होश खो देते हैं और बेहोश आदमी से गलती ही
होगी। वह कुछ भी करेगा उसमें कोई भूल होगी ही। यह अकसर होता है। पार्टियों
में जो लोग बहुत खुश रहते हैं उनको इतनी समझ नहीं कि वे क्या बोल रहे हैं,
क्या कर रहे हैं, कुछ बोल पड़ते हैं, कर बैठते हैं जिससे दूसरों के दिल
में चोट लग जाती है। इसलिए रमण भी नहीं करते। और उत्साहित भी नहीं होते।
यह शब्द जरा चौकाने वाला है। क्या। भक्ति माने जिसमें उत्साह नहीं है,
वह भक्ति है। भक्त उत्साहित नहीं होगा। उत्साह तो जीवन का लक्षण है,
निरूत्साह नहीं है। इसको हम लोगों न गलत समझा है। खात तौर से इस देश में
जब किसी भी धर्म की बात होती है, या ध्यान, सत्संग, भजन कीर्तन होता है,
लोग बहुत गम्भीर बैठे रहते हैं, क्यों। उत्साहित नहीं होना चाहिए, खुशी
व्यक्त नहीं करते। गम्भीरता, निरूत्साह –
यही है क्या भक्ति का लक्षण। नहीं। यहां जो बताया है न, न उत्साही भवति
माने एक उत्साह या उत्सुकता में ज्वरित। उत्साह में क्या है, अकसर एक
ज्वर है, फलाकांक्षा है। दो तरह का उत्साह है – एक उत्साह जिसमें हम फलाकांक्षी रहते हैं, माने – ‘क्या होगा, क्या होगा, कैसे होगा, यह हो जाएगा कि नहीं’ –
इस तरह का ज्वर होता है भीतर। दूसरी तरह का उत्साह है जिसमें आनन्द या
जीवन ऊर्जा को अभिव्यक्त करते हैं। यहां जो नोत्साही भवति बताया है नारद
ऋषि ने, उस तरह के उत्साह को उन्होंने नकारा जिस उत्साह में ज्वर है,
फलाकांक्षा है।
फिर अगले सूत्र में कहते हैं:-
यत् ज्ञात्वा मत्तो भवति, स्तब्धो भवति, आत्मारामों भवति।।
यत् ज्ञात्वा जिसको जानने से मत्तो भवति उन्मत अवस्था हो। स्तब्धो भवति – स्तब्धता छा जाएगी, स्तब्ध – ठहराव, जीवन में एक ठहराव आ जाता है, मन में एक ठहराव आता है, व्यक्तित्व में ठहराव आ जाए – यह भक्ति का लक्षण है। चंचलता मिट जाए, स्थिरता की प्राप्ति हो। मत्तो भवति – intoxicated
जिसको कहते है न, नशे में, भक्ति का नशा ऐसा है जिसके बराबर और कोई नशा
नहीं। प्रेम का नशा सबसे बुरा है। यह ऐसा नशा है जो तुम्हें सारी दुनिया
को भुला देता है। यत् ज्ञात्वा। जिसको जानने से – यहां एक फर्क है। जिसको पाना और उसको जानना –
दो अलग चीज है। पा लेना आसान है मगर जानना कठिन है, सो जाना आसान है मगर
नींद के बारे में जानना बहुत कठिन है। प्रेम करना आसान है मगर प्रेम को
समझना अति कठिन है। मगर एक बार समझ जाएं, समझने का जो साधन है, उस साधन में
ही ऐस डूब जाएं, जिससे तुम समझते हो, समझने लगे हो, वही शान्त हो जाएगा।
वही पिघल जाएगा। तभी मस्त हो सकते हो, उन्मत्त हो सकते हो। उन्मत्त
माने क्या है। जहां बुद्धि पिघल गई। बुद्धि का पि घलना इतना आसान नहीं है।
जब भी आदमी बुद्धि से परेशान होता है तभी पीकर उसको पिघलाने की कोशिश करता
है। वह होता तो नहीं है, थोड़े समय के लिए हो जाओं उन्मत्त, नशे में,
मगर वह एक स्थाई स्थिति तो नहीं है। मगर भक्ति में एक स्थाई स्थिति का
उद्गम होता है। मत्तो भवति, मत्त:, एक नशा। उस नशे के साथ-साथ ठहराव।
अक्सर जो व्यक्ति नशे में होता है उसमें कोई ठहराव नहीं होता, अस्थिर
रहता है। स्थिरता भी रहे और उन्मत्तता भी हो, यह एक विशेष अवस्था है। यह
भक्ति से ही सम्भव है। और कोई चारा ही नहीं। मत्तो भवति स्तब्धो भवति,
आत्मारामों भवति। फिर वह अपनी आत्मा में रमण करता है। आत्मा में रमण
करना, आत्मारामों भवति। शब्द तो बहुत सुना है, आत्माराम, आत्मा में रमण
करो, अपनी आत्मा में ठहर जाओ, आत्मा तुम हो, निश्चय करो –
यह आत्मा है क्या। कई लोग कहते हैं मेरी आत्मा ऐसे निकल कर बाहर आ गई,
मैंने देख लिया। यह देखने वाला कौन होता है, आत्मा को देखने वाला। यह
आत्मा की आत्मा है। तुमने अपनी आत्मा को देख लिया, उड़ता हुआ ऊपर छत पर।
‘’ मेरी आत्मा निकल गई ऐसे, ज्योति रूप में, मैं वहां देखता रहा....... आत्मदर्शन.....’’
यह क्या है। उसका कोई रंग है, लाल है, पीला है। यह बहुत बड़ी भूल है।
जिससे तुम जानते हो, वहीं आत्मा है। जिसमें जानने की शक्ति है, वही आत्मा
है। आकाश कहीं और दूर नहीं है –
हम समझते हैं आकाश वहां ऊपर है। आकाश ऊपर है तो यहां क्या है। तुम कहां
हो। जहां तुम हो, वहीं आकाश है। तुम आकाश में ही तो टिके हो। यह पृथ्वी
भी आकाश में ही तो है। आकाश के बाहर कुछ है क्या। शरीर के भीतर आत्मा
नहीं है, आत्मा के भीतर शरीर है। हमारा स्थूल शरीर जितना है, उससे दस
गुणा अधिक सूक्ष्म शरीर है और उससे भी हजार गुणा अधिक है कारण शरीर। कहते
है न पांच कोष हैं – एक शरीर, फिर प्राणमय कोष, फिर मनोमय कोष। तुम अपने अनुभव से देखो न – शरीर और प्राणमय, शरीर की जो प्राण शक्ति है, ऊर्जा है, यह शरीर, सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से भी बड़ा है। मनोमय कोष –
विचार का जो हमारा शरीर है, वह इससे भी बड़ा, भावनात्मक शरीर उससे भी बड़ा
है। और आनन्दमय कोष जिसको हम कहते हैं, वह अनन्त है, व्याप्त है, सब
जगह व्याप्त। हम जब भी खुश रहते हैं, आनन्द में रहते हैं, उस वक्त शरीर
का कोई भान नहीं रहता।
मत्तो भवति उस उन्मत्त अवस्था को, स्तब्धो भवति ठहराव, आत्मारामोभवति –
जिसमें हम अपनी ही आत्मा में रमण करते हैं। कोई पराया लगे ही नहीं, तब वह
आत्माराम अवस्था है। जैसे यह हाथ इस शरीर से ही जुड़ा हुआ है। इस शरीर
का ही अंग है। जैस शरीर के ऊपर कपड़े। इसी तरह सब एक है। जितना सूक्ष्म
में जाते जाओगे, तुम पाओगे कि यह सब एक ही है। स्थूल में पृथक्-पृथक्
मालूम पड़ता है, सूक्ष्म में जाते-जाते लगता है एक ही है। जैस जो हवा इस
शरीर में गई, वही हवा दूसरों के शरीर के भीतर भी गई। हवा को तो हम बॉंट
नहीं सकते न। यह मेरा है, यह तेरा –
यह नहीं कह सकते। तो सूक्ष्म में जाते-जाते हम पाते हैं कि एक ही है।
आत्मारामो भवति। यदि ऐसी बात हो, तो फिर क्या करें। फिर मुझे वही चाहिए।
मुझे मस्त होना है, मुझे आनन्दित अनुभव करना है। अभी ही होना है मुझे – यह इच्छा उठे, यह कामना उठे भीतर। तब नारद कहते हैं:-
सा न कामयमाना, निरोधरूपत्वात्।।
यह इच्छा करने वाली बात नहीं है। बैठकर यह न करो – मुझे भक्ति दो, मुझे भक्ति दो.......... भक्ति की मांग ऐसी है जैसे मुझे सांस दो, मुझे सांस दो। जिस सांस से तुम बोल रहे हो ‘सांस दो’, वहीं तो है। सांस लेकर ही तो तुम कह रहे हो कि मुझे सांस दो। सा न कामयमाना –
कामना की परिधि से परे है प्रेम। प्रेम की चाह मत करो। निरोध रूपत्वात्
चाहत के निरोध होते ही प्रेम का उदय होता है। मुझे कुछ नहीं चाहिए या मेरे
पास सब कुछ है। इन दोनों अवस्था में हम निरोधित हो जाते हैं। मन निरोध में
आ जाता है। निरोध माने क्या। ‘’मैं कुछ नहीं हूं, मुझे कुछ नहीं चाहिए,’’ या ‘’मैं सब कुछ हूं, मेरे पास सब कुछ है’’। सा न कामयमाना –
कामना उसी वस्तु की होती है जो अपनी नहीं है। अपना हो जाने पर कामना नहीं
होती। बाजार में जाते हो कोई अच्छा चित्र देखते हो, - तो कहते हो, ‘’यह मुझे चाहिए –
मगर घर में जो इतने चित्र लगे हुए हैं दीवालों पर, उनपर नजर नहीं जाती। जो
अपना है नहीं, उसको चाहते हैं। प्रेम तो आपका स्वभाव है, आपका गुण है,
आपकी सॉंस हैं, अपका जीवन है, आप हो। उसको चाहने से नहीं मिलेगा। चाहने से
उससे दूर जाओगे तुम, इसलिए निरोध रूपत्वात्। सा न कामयमाना निरोध
रूपत्वात् तालाब में लहर है, लहर शान्त होते ही तालाब की शुचिता का एहसास
होता है। इसी तरह मन की जो इच्छाऍं हैं, ये शान्त होते ही प्रेम का उदय
हो जाता है।
अब
निरोध कैसे हो। मन को शान्त करें कैसे। तब अगला सूत्र। देखिए इन सूत्रों
में यह महत्व है कि एक-एक कदम पर एक-एक सूत्र पूर्ण रूप है, अपने आप में
पूर्ण है, वहीं पर तुम समाप्त कर सकते हो, आगे जाने की कोई जरूरत नहीं।
यदि तब भी समझ में न आये तो आगे के सूत्र में उसको और समझा देते हैं।
निरोधस्तु लोक वेदव्यापारन्यास:।।
निरोध –
किसको रोके। क्या रोकना चाहिए जीवन में। तब कहते हैं, लोक वेद व्यापार
न्यास:। बहुत काम में चौबीस घंटे हम फंसे रहें, तब मन में कभी प्रेम का
अनुभव, एहसास हो ही नहीं सकता। यह एक तरकीब है। आदमी को प्रेम से बचना हो
तो अपने आप को इतना व्यस्त कर दो – कहते है न, सांस लेने की भी फुरसत नहीं – फिर मरे हुए के जैसे रहते हैं। सुबह उठने से लेकर रात तक काम में लगे रहो, लगे रहो, लगे रहो –
जीवन उसी में समाप्त हो जाता है। पैसे बनाने की मशीन बन जाओ। सुबह से रात
तक पैसे के बारे में सोचते रहो, या कुछ और ऐसे सोचते रहो, काम करते रहो,
शान्त कभी नहीं होना, तब जीवन में प्रेेम या उससे संबंधित कोई भी चीज की
कोई झलक तक नहीं आएगी। या हम काम से तो छुट्टी लेकर बैठ जाते हैं मगर कुछ
क्रिया-कलाप शुरू कर देते हैं –
माला लेकर जपते रहो, या लगातार कुछ क्रिया-काण्ड करते चले जाओ, किताबें
पढ़ते जाओ, टेलीविजन देखते जाओ, कुछ तो करते जाओ, तब भी परम प्रेम के अनुभव
से, अनुभूति से, वंचित रह जाते हो। लोक वेद व्यापार न्यास:। ठीक ढंग से
लौकिक और धार्मिक जो भी तुम करते हो न, ठीक ढंग से इन सबसे विश्राम पाना।
तब तुम प्रेम का अनुभव कर सकते हो। जो व्यक्ति धर्म के नाम से लगातार
कर्मकाण्ड में लगा रहता है, उसके चेहरे पर भी प्रेम झलकता नहीं है। आपने
गौर किया है। नहीं तो कितने सारे मन्दिर हैं, जगह हैं, जगह-जगह लोग पूजा
करते हैं, पाठ करते हैं, इनमें ऐसा प्रेम टपकना चाहिए – ऐसा नहीं होता। पूजा करते हैं, इधर घंटी बजाते रहते हैं, उधर एकदम क्रोध-आक्रोश, वेग-उद्वेग – इसलिए नए पीढ़ी के लोगों का पूजा-पाठ से विश्वास उठ गया –
क्यों। मॉं-बाप को देखा इतना पूजा-पाठ करते हुए, जीवन में कोई परिवर्तन
नहीं आया, जैसे के तैसे ही रहते हैं। पूजा-पाठ में कोई दोष नहीं है, मगर हम
बीच में विश्राम लेना भूल गए हैं। हर पूजा-पाठ की प्रक्रिया में यह है कि
पहले आचमन करो, फिर प्राणायाम करो, फिर ध्यान करो। ध्यान की जगह हम एक
श्लोक पढ़ लेते हैं और मन को शान्त होने ही नहीं देते, वेद व्यापार में
लगे रहते हैं। वेद का भी एक व्यापार हो गया। लोक वेद व्यापार न्यास:।
निरोध करना हो तो लौकिक और वैदिक –
दोनों व्यापारों से मन को कुशलतापूर्वक निवृत्त करना है। बहुत कुशलता से
करना है यह काम। ऐसा नहीं कि पूजा-पाठ सब बेकार है, ऐसा कहकर एक तरफ कर दो
इसको, इससे भी नहीं होगा। लोक वेद व्यापार न्यास: - ढंग से इनसे विश्राम
पाना, कुशलतापूर्वक। यह कुशलता क्या है, और आगे कैसे चलें, इसके बारे में
कल विचार करेंगे।
प्रेम की अभिव्यक्ति
मन
की हर चंचलता, भक्ति की तलाश है। भक्ति ही ऐसा ठहराव ला सकती है मन में,
चेतना में। और भक्ति प्रेम रूप है। प्रेम जानते हैं, भक्ति को खोजते हैं।
प्रेम की पराकाष्ठा भक्ति है। और यह भक्ति विश्राम में उपलब्ध है, काम
में नहीं। नारद कहते हैं:-
निरोधस्तु लोक वेद व्यापारन्यास:।।
सब
तरह के काम से विश्राम पाओ। विश्राम में राम है। दुनियादारी के काम छोड़ते
हैं, फिर कर्मकाण्ड में उलझ जाते हैं। कई बार ऐसा होता है आप कर्मकाण्ड
तो करते हैं, पर मन उसमें लगता ही नहीं है। और सोचते रहते हैं कब यह खत्म
होगा। हाथ में माला फेर रहे हैं - - ‘’कब इसको खत्म करें, कब उठें’’ इस भाव से करते हैं। मन्दिर जाते हैं, तीर्थस्थानों पर जाते हैं, किसी भय से या लालसा से। भय से पूजा-पाठ करते हैं – किसी ने डरा दिया तो ऐसा हो जाएगा –
मंगल का या शनि का दोष हो जाएगा, कुछ बुरा हो जाएगा, धन्धा नहीं चलेगा।
आप हनुमानजी के मंदिर मे चक्कर लगाने लगते हैं, इसलिए नहीं कि हनुमानजी से
इतना प्रेम हो गया – दृष्टि तो धन्धे पर अटकी हुई है –
और दुकान को लेकर ही मंदिर जाते हैं। घर की समस्याओं को लेकर मंदिर जाते
हैं और लेकर ही वापस आते हैं। छोड़कर भी वापस नहीं आते। छोड़े कैसे। प्रेम
हो तभी न छोड़ें। भय से, या लोभ्ं से, हम पूजा-पाठ करते हैं, कर्मकाण्ड
में उलझते हैं। यह तो भक्ति नहीं हुई, यह तो प्रेम नहीं हुआ। आदमी थक जाता
है। तथाकथित धार्मिक लोगों के चेहरे को देखिए –
थके-हारे, उत्साह नहीं है, दु:ख से भरे हुए हैं। भगवान आनन्द स्वरूप
है, सच्चिदानन्द, उसकी एक झलक नहीं होनी चाहिए क्या। उसके साथ जुड़ जाने
से अपने भीतर उस गुण का प्रकाश होना है कि नहीं होना है। यह स्वाभाविक है।
मगर हम धर्म के नाम से बड़े उदास चेहरे दिखाते हैं।
दुनिया
दु:ख रूप है, मगर तुम भी दु:ख रूप हो जाते हो और इसका समझते हो धर्म। यह
गलत धारणा है। विश्राम पाओ। भक्त वहीं है जो यह नहीं सोचता कल मेरा क्या
होगा। अरे, जब मालिक अपने हैं तो कल की क्या बात है। जब मालिक हमारा है तो
तिजोरी की क्या बात है।
अगला सूत्र -
तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च।।
तस्मिन् अनन्यता। उसमें अनन्यता। वह अलग, मैं अलग – इस तरह से सोचने से प्रेम हो नहीं सकता। यह हो ही नहीं सकता। तस्मिन् अनन्यता। वह मुझसे अलग नहीं है।
जैसे
आपके बच्चों को कोई डांट दे तो आप उसको डांटने लगते हैं। आपकों तो डांट
नहीं पड़ी। किसी ने आपके बच्चों के साथ ठीक व्यवहार नहीं किया हो, तो आप
उस बात को अपने ऊपर ले लेते हैं। क्यों। मैं और मेरा बच्चा कोई अलग थोड़े
ही हैं। जिससे प्रेम हो जाता है उससे भेद भी कट जाता है। प्रेम हुआ माने
भेद मिटा और जब तक भेद नहीं मिटता तब तक प्रेम होता ही नहीं है। अपनापन हो,
आत्मीयता हो, इतनी आत्मीयता हो, तब ही मन ठहरता है। हम जो पसन्द कर
लेते हैं तब फिर मन भटकता नहीं है। जब टेलीफोन के सामन बहुत देर तक बैठते
हैं तो उसमें तल्लीन हो जाते हैं। अकेले बैठकर थोड़ी देर ध्यान में बैठो –
तो यहां दर्द, वहां दर्द, उधर वैचेनी, मन दुनिया भर में भागता है। क्यों।
सारी दुनिया दिमाग में आ जाती है जब ध्यान में बैठो। क्यों। हमने पसन्द
नहीं किया, प्रेम नहीं किया, अपने आप से प्रेम नहीं किया। जब खुद से, नफरत
से भर जाते हैं तो खुद के प्रति भी और औरों के प्रति भी नफरत ही करते हैं।
खुद के साथ जब प्रेम होता है, औरों के साथ भी प्रेम होता है। खुद के साथ
प्रेम हो कैसे, जब खुद में इतना दोष दिखता है। तब उस दोष को समर्पण कर दो।
समर्पित होने पर अनन्यता होती है। अनन्य होने पर समर्पित हो जाते हैं। यह
एक-दूसरे से मिले हुए हैं।
तस्मिन्
अनन्यता तद्विरोध। उदासीनता। उसके विरोध में कुछ भी हो, उसके प्रति
उदासीन हो जाओ। अधिक ध्यान नहीं देना। कर्मकाण्ड में नेम-निष्ठा बहुत
है, प्रेम में कोई नियम नहीं।
अन्याश्रयाणाम् त्यागो अनन्यता।।
जीवन
में प्रेम बढ़े, उसके लिए अनन्यभाव की आवश्यकता है। अपनापन महसूस करना।
चाहे दूसरे करेंया न करें, अपनी तरफ से उनको अपना मान लिया। जब संशय करते
हैं कि दूसरे व्यक्ति हमसे प्रेमकरते हैं कि नहीं, तब खुद का प्रेम भी
कुंठित हो जाता है। हम भी प्रेम नहीं कर पाते|